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अध्याय अठारह / Chapter Eighteen

बिना श्लोक केवल हिंदी अर्थ  

।18.1।   अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामी! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्‌-पृथक्‌ जानना चाहता हूँ |

।18.2।   श्री भगवान् ने कहा - कवि जन फल के उद्देश्य से किए कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं और विवेकशील जन समस्त कर्मों के फलों के त्याग को त्याग कहते हैं |

।18.3।   मनीषी जन कहते हैं कि कर्म दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य हैं और अन्य जन कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याज्य नहीं हैं |

।18.4।   हे अर्जुन, उस त्याग के विषय में तुम मेरे निर्णय को सुनो। हे अर्जुन, वह त्याग तीन प्रकार का कहा गया है |

।18.5।   यज्ञ, दान और तपरूप कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये, वह तो कर्तव्य है, यज्ञ, दान और तप ये साधकों को पवित्र करने वाले हैं।

।18.6।   हे अर्जुन, इन कर्मों को भी, फल और आसक्ति को त्यागकर, कर्तव्य समझकर करना चाहिए, यह मेरा निश्चित तथा उत्तम मत है।

।18.7।   नियत कर्म का त्याग उचित नहीं है मोहवश उसका त्याग, तामस कहा गया है |

।18.8।   जो कर्म को दुख समझकर शारीरिक कष्ट के भय से त्याग देता है, वह उस राजस त्याग को करके कदापि त्याग के फल को नहीं पाता।

।18.9।   हे अर्जुन - कर्म करना कर्तव्य है, ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फल को त्यागकर किया जाता है, वही त्याग सात्त्विक माना गया है |

।18.10।   जो अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में प्रीति नहीं करता, वह त्यागी, बुद्धिमान्, सन्देह रहित अपने सत्त्वगुण में स्थित है।

।18.11।   क्योकि देहधारी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करना सम्भव नहीं है। इसलिये जो कर्म फल का त्यागी है, उसे त्यागी कहते है |

।18.12।   कर्मफल का त्याग न करने वाले के कर्मों का अच्छा, बुरा और मिश्रित- ऐसे तीन प्रकार का फल होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले के कर्मों का फल मरने के बाद भी भी नहीं होता |

।18.13।   हे अर्जुन, कर्मों का अन्त करने वाले सांख्य में सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये ये पाँच कारण बताये गये हैं, इनको तू मेरे से समझ |

।18.14।   शरीर, कर्ता, विविध इन्द्रियां, विविध और पृथक्पृथक् चेष्टाएं तथा पाँचवा कारण दैव है |

।18.15।   मनुष्य अपने शरीर, वाणी और मन से जो कोई उचित या अनुचित कर्म करता है, उसके ये पाँच कारण ही हैं |

।18.16।   परन्तु फिर भी जो उस में केवल आत्मा को कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता क्योंकि उसकी असंस्कृत बुद्धि है |

।18.17।   जिसमें अहंकार का भाव नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह इन प्राणियों को मारकर भी न मारता है और न बँधता है |

।18.18।   ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता- ये तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा हैं, करण, क्रिया और कर्ता- ये तीन प्रकार का कर्म-संग्रह है |

।18.19।   गुणों का निरूपण करने वाले शास्त्र में गुणों के भेद से ज्ञान, कर्म तथा कर्ता तीन प्रकार से कहे जाते हैं, उनको तुम यथार्थरूप से सुनो |

।18.20।   जिससे मनुष्य विभक्त रूप में सब प्राणियों में एक अविभक्त और अविनाशी स्वरूप को देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान |

।18.21।   जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सब अलग अलग प्राणियों में अनेक भावों को अलग अलग रूप से जानता है, उस ज्ञान को तुम राजस समझो |

।18.22।   और जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक कार्य में ही आसक्त हो जाता है, मानो वह ही पूर्ण हो तथा जो ज्ञान हेतुरहित, तत्त्वार्थ से रहित तथा संकुचित है, वह ज्ञान तामस है।

।18.23।   जो नित्य कर्म फल कामना से रहित पुरुष द्वारा आसक्तिशुन्य होकर तथा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है |

।18.24।   परन्तु जो कर्म, भोगों को चाहने वाले, मनुष्यके द्वारा अहंकार से अथवा परिश्रमपूर्वक किया जाता है, वह राजस कहा गया है |

।18.25।   जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सार्मथ्य का विचार न करके केवल मोहवश आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहलाता है |

।18.26।   जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष -शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है |

।18.27।   जो कर्ता आसक्ति से युक्त, कर्मफल की इच्छावाला, लोभी, हिंसा के स्वभाववाला, अशुद्ध और हर्ष शोक से युक्त है, वह राजस कहा गया है |

।18.28|   जो कर्ता अनुचित कार्य प्रिय, अशिक्षित, अकड़वाला, जिद्दी, उपकारी का अपकार करनेवाला, आलसी, विषादी और दीर्घसूत्री है, वह तामस कहा जाता है।

|18.29।   हे अर्जुन, अब तू गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के तीन प्रकार के भेद अलग से सुन, जो मैं पूर्णरूप से कहुंगा |

।18.30।   हे अर्जुन, जो प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्ति मार्ग को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है |

।18.31।   हे अर्जुन, मनुष्य जिसके द्वारा धर्म और अधर्म को, कर्तव्य और अकर्तव्य को भी ठीक तरह से नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है |

।18.32।   हे अर्जुन, तमस् से आवृत बुद्धि अधर्म को ही धर्म मानती है और सभी विषयों का विपरीत अर्थ करती है, वह बुद्धि तामसी है |

।18.33।   हे अर्जुन, जिस योग अभ्यास से अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है।

।18.34।   हे अर्जुन, कर्मफल का इच्छुक पुरुष अत्यन्त आसक्तिपूर्वक जिस धृति के द्वारा धर्म, अर्थ और काम को धारण करता है, वह धृति राजसी है |

।18.35।   हे अर्जुन, दुष्ट बुद्धिवाला जिससे स्वप्न, भय, शोक और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता- वह धारण शक्ति तामसी है |

।18.36।   हे अर्जुन, अब तुम तीन प्रकार के सुख को मुझसे सुनो, जिसमें साधक अभ्यास से रमता है और दुखों के अन्त को प्राप्त होता है |

।18.37।   जो सुख प्रारम्भ में विष के समान है, परिणाम में अमृत के समान है, वह आत्मबुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न सुख सात्त्विक कहा गया है |

।18.38।   जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से आरम्भ में अमृत की तरह और परिणाम में विष की तरह होता है, वह सुख राजस कहा गया है |

।18.39।   जो सुख प्रारम्भ में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है |

।18.40।   पृथ्वी में या स्वर्ग में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवाय कहीं भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणोंसे रहित हो।

।18.41।   हे अर्जुन - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म, स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभक्त किये गये |

।18.42।   शम, दम, तप, शौच, सहिष्णुता, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्ता ये ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं |

।18.43।   शूरवीरता, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध से पलायन न करना, दान और स्वामी भाव, ये क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं |

।18.44।   कृषि, गौ पालन तथा व्यापार ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं, और शूद्र का स्वाभाविक कर्म है सेवा करना |

।18.45।   अपने-अपने कर्मों में तत्परता से लगा मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है। अपने कर्म में लगा कैसे सिद्धि पाता है, उस को सुन |

।18.46।   जिस से प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है |

।18.47।   अच्छी तरह से अनुष्ठान किये हुए पर धर्म से गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है। स्वभाव से नियत कर्म को करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता।

।18.48।   हे अर्जुन, दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि सभी कर्म धुयें से अग्नि की तरह दोष से आवृत होते है |

।18.49।   सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धि वाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला कर्मों के संन्यास से परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है |

।18.50।   हे अर्जुन, सिद्धि को प्राप्त पुरुष किस प्रकार ब्रह्म को तथा ज्ञान की परा निष्ठा को प्राप्त होता है, मुझसे संक्षेप में जानो |

।18.51।   विशुद्ध बुद्धि से युक्त, धृति से आत्म नियमन करने वाला, शब्दादि विषयों को त्याग कर और रागद्वेष का परित्याग कर |

।18.52।   एकान्तसेवी, अल्प भोजन करने वाला, जिसने अपने शरीर, वाणी और मन को संयत किया है, नित्य ध्यानयोग के अभ्यास में तत्पर तथा वैराग्य पर आश्रित |

।18.53।   अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है |

।18.54।   वह ब्रह्म अवस्था को प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न शोक करता है और न इच्छा करता है, ऐसा सम्पूर्ण प्राणियों में सम भाव वाला साधक मेरी पराभक्ति को प्राप्त होता है |

।18.55।   भक्ति से वह मुझे तत्त्वत जानता है कि मैं कितना हूँ तथा क्या हूँ। तत्त्वत जानने के बाद तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है |

।18.56।   मेरा आश्रय लेने वाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है |

।18.57।   चित्त से सम्पूर्ण कर्म मुझ में अर्पण करके, मेरे परायण होकर तथा बुद्धियोग का आश्रय लेकर निरन्तर मुझ में चित्त वाला हो जा |

।18.58।   मेरे में चित्त लगा कर तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा और यदि तू अहंकारके कारण नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा |

।18.59।   और अहंकारवश तु ऐसा मान रहा है , युद्ध नहीं करूंगा, यह तुम्हारा निश्चय मिथ्या है, क्योंकि प्रकृति ही तुम्हें प्रवृत्त करेगी |

।18.60।   हे अर्जुन, तुम अपने स्वाभाविक कर्मों से बंधे हो, मोह के कारण जिस को करना नहीं चाहते हो, वही तुम विवश होकर करोगे |

।18.61।   हे अर्जुन, ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया से (शरीर रूपी) यन्त्र पर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को भ्रमण कराता है |

।18.62।   हे अर्जुन, तुम सम्पूर्ण भाव से ईश्वर की शरण में जाओ। उसके प्रसाद से तुम परम शान्ति और शाश्वत स्थान को प्राप्त करोगे |

।18.63।   इस प्रकार समस्त गोपनीयों से अधिक गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कहा इस पर पूर्ण विचार करके जैसी इच्छा हो, वैसा तुम करो |

।18.64।   सबसे अत्यन्त गोपनीय परम वचन तू फिर मेरे से सुन। तू मेरा अत्यन्त प्रिय है, इसलिये मैं तेरे हित की बात कहूँगा |

।18.65।   मेरे में मनवाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा पूजन करने वाला हो और मेरे को नमस्कार कर, ऐसा करने से तू मेरे को ही प्राप्त हो जायगा - मैं यह सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है |

।18.66।   सब धर्मों का परित्याग करके तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर |

।18.67।   यह ज्ञान ऐसे पुरुष से नहीं कहना चाहिए, जो तप रहित है, जो अभक्त है, जो सेवा में तत्पर नहीं है और न ही उससे जो मुझ में दोष देखता है |

।18.68।   जो मुझसे परा भक्ति करके यह परम गोपनीय उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह निसन्देह मुझे ही प्राप्त होता है |

।18.69।   उसके समान मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है और इस भूमण्डल पर दूसरा कोई उससे बढ़कर प्रिय होगा भी नहीं |

।18.70।   जो हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का अध्ययन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा ऐसा मेरा मत है।

।18.71।   श्रद्धावान् और दोष दृष्टि से रहित जो मनुष्य इस को सुन भी लेगा, वह भी मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ लोकोंको प्राप्त हो जायगा |

।18.72।   हे अर्जुन, क्या तुमने एकाग्रचित्त से इसको सुना और हे अर्जुन, क्या तुम्हारा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हुआ |

।18.73।   अर्जुन ने कहा - हे अच्युत आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया अब मैं सन्देहरहित होकर स्थित हूँ और मैं आपके वचन का पालन करूँगा |

।18.74।   संजय ने कहा, इस प्रकार मैंने वासुदेव और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत और रोमान्चक संवाद सुना |

।18.75।   व्यास जी की कृपा से मैंने स्वयं इस परम गोपनीय योग को कहते हुए साक्षात् योगेश्वर श्रीकृष्ण से सुना है |

।18.76।   हे राजन्, भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस पवित्र और अद्भुत संवाद को याद कर कर के मैं बारबार हर्षित हो रहा हूँ।

।18.77।   हे राजन, श्री हरि के उस अति अद्भुत रूप को भी पुन पुन स्मरण करके मुझे महान् विस्मय होता है और मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ |

।18.78।   जहाँ योगेश्वर श्री कृष्ण हैं और जहाँ धनुष धारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, ऐश्वर्य और स्थिर नीति है, ऐसा मेरा मत है |



ਸ਼ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਬਿਨਾ ਸਿਰਫ ਪੰਜਾਬੀ ਅਰਥ 

।18.1।   ਅਰਜੁਨ ਬੋਲੇ - ਹੇ ਮਹਾਬਾਹੋ ! ਹੇ ਅੰਤਰਯਾਮੀ! ਹੇ ਵਾਸੁਦੇਵ ! ਮੈਂ ਸੰਨਿਆਸ ਅਤੇ ਤਿਆਗ ਦੇ ਤੱਤ ਨੂੰ ਭਿੰਨ‌ - ਭਿੰਨ‌ ਜਾਨਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ |

।18.2।   ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਂਨ ਨੇ ਕਿਹਾ - ਕਵੀ ਲੋਕ ਫਲ ਦੇ ਉਦੇਸ਼ ਨਾਲ ਕੀਤੇ ਕਰਮਾਂ ਦੇ ਤਿਆਗ ਨੂੰ ਸੰਨਿਆਸ ਸੱਮਝਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਵਿਵੇਕਸ਼ੀਲ ਲੋਕ ਸਬ ਕਰਮਾਂ ਦੇ ਫਲਾਂ ਦੇ ਤਿਆਗ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ |

।18.3।   ਸਿਆਣੇ ਲੋਕ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਕਰਮ ਦੋਸ਼ ਯੁਕਤ ਹੋਣ ਦੇ ਕਾਰਨ ਛੱਡਨ ਯੋਗ ਹਨ ਅਤੇ ਹੋਰ ਲੋਕ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਯੱਗ, ਦਾਨ ਅਤੇ ਤਪ ਰੂਪ ਕਰਮ ਛੱਡਨ ਯੋਗ ਨਹੀਂ ਹਨ |

।18.4।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਉਸ ਤਿਆਗ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਵਿੱਚ ਤੂੰ ਮੇਰਾ ਫ਼ੈਸਲਾ ਸੁਣ । ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਉਹ ਤਿਆਗ ਤਿੰਨ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦਾ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ |

।18.5।   ਯੱਗ, ਦਾਨ ਅਤੇ ਤਪ ਰੂਪ ਕਰਮ ਦਾ ਤਿਆਗ ਨਹੀਂ ਕਰਣਾ ਚਾਹੀਦਾ, ਉਹ ਤਾਂ ਕਰਤੱਵ ਹੈ, ਯੱਗ, ਦਾਨ ਅਤੇ ਤਪ ਇਹ ਸਾਧਕਾਂ ਨੂੰ ਪਵਿਤਰ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਹਨ ।

।18.6।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਇਨਾਂ ਕਰਮਾਂ ਨੂੰ ਵੀ, ਫਲ ਅਤੇ ਆਸਕਤੀ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕੇ, ਕਰਤੱਵ ਸੱਮਝ ਕੇ ਕਰਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ, ਇਹ ਮੇਰਾ ਨਿਸ਼ਚਿਤ ਅਤੇ ਉੱਤਮ ਮਤ ਹੈ ।

।18.7।   ਨਿਅਤ ਕਰਮ ਦਾ ਤਿਆਗ ਉਚਿਤ ਨਹੀਂ ਹੈ ਮੋਹਵਸ਼ ਉਸਦਾ ਤਿਆਗ, ਤਾਮਸ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ |

।18.8।   ਜੋ ਕਰਮ ਨੂੰ ਦੁੱਖ ਸੱਮਝ ਕੇ ਸਰੀਰਕ ਕਸ਼ਟ ਦੇ ਡਰ ਤੋਂ ਤਿਆਗ ਦਿੰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਉਸ ਰਾਜਸ ਤਿਆਗ ਨੂੰ ਕਰਕੇ ਹਰਗਿਜ਼ ਤਿਆਗ ਦੇ ਫਲ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਪਾਉਂਦਾ ।

।18.9।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ - ਕਰਮ ਕਰਣਾ ਕਰਤੱਵ ਹੈ, ਅਜਿਹਾ ਸੱਮਝ ਕੇ ਜੋ ਨਿਅਤ ਕਰਮ ਆਸਕਤੀ ਅਤੇ ਫਲ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕੇ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹੀ ਤਿਆਗ ਸਾੱਤਵਿਕ ਮੰਨਿਆ ਗਿਆ ਹੈन द्वेष्ट्यकुशलं - अकुशल कर्मसे द्वेष नहीं |

।18.10।   ਜੋ ਅਕੁਸ਼ਲ ਕਰਮ ਤੋਂ ਨਫਰਤ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ਅਤੇ ਕੁਸ਼ਲ ਕਰਮ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰੀਤੀ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ, ਉਹ ਤਿਆਗੀ, ਬੁੱਧੀਮਾਨ, ਸੰਦੇਹ ਰਹਿਤ ਆਪਣੇ ਸੱਤਵ ਗੁਣ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹੈ ।

।18.11।   ਕਯੋਂਕਿ ਦੇਹਧਾਰੀ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਸੰਪੂਰਣ ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਤਿਆਗ ਕਰਣਾ ਸੰਭਵ ਨਹੀਂ ਹੈ । ਇਸਲਈ ਜੋ ਕਰਮ ਫਲ ਦਾ ਤਿਆਗੀ ਹੈ, ਉਸ ਨੂੰ ਤਿਆਗੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ |

।18.12।   ਕਰਮਫਲ ਦਾ ਤਿਆਗ ਨਾਂ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਦੇ ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਚੰਗਾ, ਭੈੜਾ ਅਤੇ ਮਿਲਿਆ ਜੁਲਿਆ - ਅਜਿਹਾ ਤਿੰਨ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦਾ ਫਲ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਕਰਮਫਲ ਦਾ ਤਿਆਗ ਕਰ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਦੇ ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਫਲ ਮਰਨ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਵੀ ਵੀ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ |

।18.13।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਅੰਤ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਸਾਂਖਇ ਵਿੱਚ ਸੰਪੂਰਣ ਕਰਮਾਂ ਦੀ ਸਿੱਧੀ ਲਈ ਇਹ ਪੰਜ ਕਾਰਨ ਦੱਸੇ ਗਏ ਹਨ, ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਤੂੰ ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਸੱਮਝ |

।18.14।   ਸਰੀਰ, ਕਰਤਾ, ਵਿਵਿਧ ਇੰਦਰੀਆਂ, ਵਿਵਿਧ ਅਤੇ ਅਲਗ ਅਲਗ ਚੇਸ਼ਟਾਵਾਂ ਅਤੇ ਪੰਜਵਾਂ ਕਾਰਨ ਦੈਵ ਹੈ |

।18.15।   ਮਨੁੱਖ ਆਪਣੇ ਸਰੀਰ, ਬਾਣੀ ਅਤੇ ਮਨ ਵਲੋਂ ਜੋ ਕੋਈ ਉਚਿਤ ਜਾਂ ਅਣੁਚਿੱਤ ਕਰਮ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਸਦੇ ਇਹ ਪੰਜ ਕਾਰਨ ਹੀ ਹਨ |

।18.16।   ਪਰ ਫਿਰ ਵੀ ਜੋ ਉਸ ਵਿੱਚ ਕੇਵਲ ਆਤਮਾ ਨੂੰ ਕਰਤਾ ਮੰਨਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਦੁਰਮਤੀ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਸੱਮਝਦਾ ਕਿਉਂਕਿ ਉਸਦੀ ਨਾਸਮਝ ਬੁੱਧੀ ਹੈ |

।18.17।   ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਹੈਂਕੜ ਦਾ ਭਾਵ ਨਹੀਂ ਹੈ ਅਤੇ ਜਿਸਦੀ ਬੁੱਧੀ ਲਿਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ, ਉਹ ਇਨਾਂ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਨੂੰ ਮਾਰਕੇ ਵੀ ਨਹੀਂ ਮਰਦਾ ਅਤੇ ਨਾਂ ਹੀਂ ਬੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |

।18.18।   ਗਿਆਨ, ਜਾਨਣ ਯੋਗ ਅਤੇ ਜਾਣਕਾਰ - ਇਹ ਤਿੰਨ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੀ ਕਰਮ - ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਹਨ, ਕਰਣ, ਕਿਰਆ ਅਤੇ ਕਰਤਾ - ਇਹ ਤਿੰਨ ਤਰਾੰ ਦਾ ਕਰਮ - ਸੰਗ੍ਰਿਹ ਹੈ |

।18.19।   ਗੁਣਾਂ ਦਾ ਨਿਰੂਪਣ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਸ਼ਾਸਤਰ ਵਿੱਚ ਗੁਣਾਂ ਦੇ ਭੇਦ ਨਾਲ ਗਿਆਨ, ਕਰਮ ਅਤੇ ਕਰਤਾ ਤਿੰਨ ਤਰਾਂ ਦੇ ਕਹੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਤੂੰ ਯਥਾਰਥਰੂਪ ਨਾਲ ਸੁਣ |

।18.20।   ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਮਨੁੱਖ ਵੰਡੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਸਭ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਅਣਵੰਡਿਆ ਅਤੇ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਸਵਰੂਪ ਵੇਖਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਗਿਆਨ ਨੂੰ ਤੂੰ ਸਾੱਤਵਿਕ ਜਾਨ |

।18.21।   ਜਿਸ ਗਿਆਨ ਦੇ ਨਾਲ ਮਨੁੱਖ ਸਭ ਵੱਖ ਵੱਖ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਵਿੱਚ ਅਨੇਕ ਭਾਵਾਂ ਨੂੰ ਵੱਖ ਵੱਖ ਰੂਪ ਨਾਲ ਜਾਣਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਗਿਆਨ ਨੂੰ ਤੂੰ ਰਾਜਸ ਸਮੱਝ |

।18.22।   ਅਤੇ ਜਿਸ ਗਿਆਨ ਦੇ ਨਾਲ ਮਨੁੱਖ ਇੱਕ ਕਾਰਜ ਵਿੱਚ ਹੀ ਆਸਕਤ ਹੋ ਜਾਵੇ, ਮੰਨ ਲਉ ਉਹ ਹੀ ਸਬ ਕੁੱਝ ਹੋਵੇ ਅਤੇ ਜੋ ਗਿਆਨ ਹੇਤੁ ਰਹਿਤ, ਤੱਤ ਰਹਿਤ ਅਤੇ ਛੋਟਾ ਹੋਵੇ, ਉਹ ਗਿਆਨ ਤਾਮਸ ਹੈ ।

।18.23।   ਜੋ ਨਿੱਤ ਕਰਮ ਫਲ ਕਾਮਨਾ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਪੁਰਖ ਦੁਆਰਾ ਆਸਕਤੀ ਰਹਿਤ ਹੋ ਕੇ ਅਤੇ ਬਿਨਾਂ ਰਾਗ - ਦਵੇਸ਼ ਦੇ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਹੋਵੇ - ਉਹ ਸਾੱਤਵਿਕ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |

।18.24।   ਪਰ ਜੋ ਕਰਮ, ਭੋਗਾਂ ਨੂੰ ਲੋਚਣ ਵਾਲੇ, ਪੁਰਖ ਦੁਆਰਾ ਹੈਂਕੜ ਨਾਲ ਅਤੇ ਮਿਹਨਤ ਨਾਲ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਰਾਜਸ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ |

।18.25।   ਜੋ ਕਰਮ ਨਤੀਜਾ, ਨੁਕਸਾਨ, ਹਿੰਸਾ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਤਾਕਤ ਦਾ ਵਿਚਾਰ ਨਾਂ ਕਰਕੇ ਕੇਵਲ ਮੋਹ ਦੇ ਵਸ਼ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਤਾਮਸ ਕਹਾਂਦਾ ਹੈ |

।18.26।   ਜੋ ਕਰਤਾ ਸੰਗਰਹਿਤ, ਹੈਂਕੜ ਦੇ ਵਚਨ ਨਾਂ ਬੋਲਣ ਵਾਲਾ, ਸਬਰ ਅਤੇ ਉਤਸ਼ਾਹ ਨਾਲ ਭਰਿਆ ਅਤੇ ਕਾਰਜ ਦੇ ਸਿੱਧ ਹੋਣ ਅਤੇ ਨਹੀਂ ਹੋਣ ਵਿੱਚ ਹਰਸ਼ - ਸ਼ੋਕਾਦਿ ਵਿਕਾਰਾਂ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਹੈ - ਉਹ ਸਾੱਤਵਿਕ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |

।18.27।   ਜੋ ਕਰਤਾ ਆਸਕਤੀ ਯੁਕਤ, ਕਰਮਫਲ ਦੀ ਇੱਛਾਵਾਲਾ, ਲੋਭੀ, ਹਿੰਸਕ ਸੁਭਾਅ ਵਾਲਾ, ਅਸ਼ੁੱਧ ਅਤੇ ਖੁਸ਼ੀ ਸੋਗ ਨਾਲ ਭਰਿਆ ਹੈ, ਉਹ ਰਾਜਸ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ |

।18.28|   ਜਿਸ ਨੂੰ ਅਣੁਚਿਤ ਕਾਰਜ ਚੰਗਾ ਲਗਦਾ ਹੈ, ਜੋ ਕਰਤਾ ਅਣਸਿੱਖਿਅਤ, ਅਕੜਵਾਲਾ, ਜਿੱਦੀ, ਉਪਕਾਰੀ ਦਾ ਅਪਕਾਰ ਕਰਨ ਵਾਲਾ, ਆਲਸੀ, ਵਿਸ਼ਾਦੀ ਅਤੇ ਕੰਮ ਨੂੰ ਲੰਬਾ ਪਾਉਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਉਹ ਤਾਮਸ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।

|18.29।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਹੁਣ ਤੂੰ ਗੁਣਾਂ ਦੇ ਅਨੁਸਾਰ ਬੁੱਧੀ ਅਤੇ ਧ੍ਰਿਤੀ ਦੇ ਤਿੰਨ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੇ ਭੇਦ ਸੁਣ, ਜੋ ਮੈਂ ਪੂਰਣ ਰੂਪ ਨਾਲ ਕਹੁੰਗਾ |

।18.30।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜੋ ਕੀ ਕਰਨ ਯੋਗ ਹੈ ਅਤੇ ਕੀ ਛੱਡਣ ਯੋਗ ਹੈ, ਕਰਤੱਵ ਅਤੇ ਅਕਰਤੱਵ ਨੂੰ, ਡਰ ਅਤੇ ਨਿਡਰ ਨੂੰ ਅਤੇ ਬੰਧਨ ਅਤੇ ਮੁਕਤੀ ਨੂੰ ਜਾਣਦੀ ਹੈ, ਉਹ ਬੁੱਧੀ ਸਾੱਤਵਿਕੀ ਹੈ |

।18.31।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਮਨੁੱਖ ਜਿਸ ਨਾਲ ਧਰਮ ਅਤੇ ਅਧਰਮ ਨੂੰ, ਕਰਤੱਵ ਅਤੇ ਅਕਰਤੱਵ ਨੂੰ ਵੀ ਠੀਕ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨਹੀਂ ਜਾਣਦਾ, ਉਹ ਬੁੱਧੀ ਰਾਜਸੀ ਹੈ |

।18.32।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜਿਹੜੀ ਬੁੱਧੀ ਅਧਰਮ ਨੂੰ ਹੀ ਧਰਮ ਮੰਨਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਸਾਰੇ ਮਜ਼ਮੂਨਾਂ ਦਾ ਵਿਪਰੀਤ ਮਤਲੱਬ ਕਰਦੀ ਹੈ, ਉਹ ਬੁੱਧੀ ਤਾਮਸੀ ਹੈ |

।18.33।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜਿਸ ਯੋਗ ਅਭਿਆਸ ਅਤੇ ਅਚਲ ਨਿਸ਼ਚੈ ਨਾਲ ਮਨੁੱਖ ਮਨ, ਪ੍ਰਾਣ ਅਤੇ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੀਆਂ ਕਿਰਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਧਾਰਨ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਨਿਸ਼ਚਾ ਸਾੱਤਵਿਕ ਹੈ ।

।18.34।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਕਰਮਫਲ ਦਾ ਇੱਛੁਕ ਪੁਰਖ ਅਤਿਅੰਤ ਆਸਕਤੀ ਨਾਲ ਜਿਸ ਨਿਸ਼ਚੈ ਨਾਲ ਧਰਮ, ਅਰਥ ਅਤੇ ਕਾਮ ਨੂੰ ਧਾਰਨ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਨਿਸ਼ਚਾ ਰਾਜਸੀ ਹੈ |

।18.35।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਦੁਸ਼ਟ ਬੁੱਧੀਵਾਲਾ ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਸੁਪਨੇ, ਡਰ, ਸੋਗ, ਦੁੱਖ ਅਤੇ ਮੋਹ ਨੂੰ ਵੀ ਨਹੀਂ ਛੱਡਦਾ - ਉਹ ਧਾਰਨ ਸ਼ਕਤੀ ਤਾਮਸੀ ਹੈ |

।18.36।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਹੁਣ ਤੂੰ ਤਿੰਨ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੇ ਸੁਖ ਨੂੰ ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਸੁਣ, ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਸਾਧਕ ਅਭਿਆਸ ਨਾਲ ਰਮਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਦੁਖਾਂ ਦੇ ਅੰਤ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ |

।18.37।   ਜੋ ਸੁਖ ਸ਼ੁਰੂ ਵਿੱਚ ਜ਼ਹਿਰ ਦੇ ਸਮਾਨ ਹੈ, ਅਤੇ ਨਤੀਜਾ ਅਮ੍ਰਿਤ ਦੇ ਸਮਾਨ ਹੈ, ਉਹ ਆਤਮਬੁੱਧੀ ਦੀ ਖੁਸ਼ੀ ਨਾਲ ਪੈਦਾ ਸੁਖ ਸਾੱਤਵਿਕ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ |

।18.38।   ਜੋ ਸੁਖ ਇੰਦਰੀਆਂ ਅਤੇ ਮਜ਼ਮੂਨਾਂ ਦੇ ਸੰਜੋਗ ਨਾਲ ਸ਼ੁਰੂ ਵਿੱਚ ਅਮ੍ਰਿਤ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅਤੇ ਨਤੀਜੇ ਵਿੱਚ ਜ਼ਹਿਰ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਸੁਖ ਰਾਜਸ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ |

।18.39।   ਜੋ ਸੁਖ ਸ਼ੁਰੂ ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਆਖਰ ਵਿੱਚ ਵੀ ਆਤਮਾ ਨੂੰ ਮੋਹਿਤ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਉਹ ਨਿੰਦਰ, ਆਲਸ ਅਤੇ ਪ੍ਰਮਾਦ ਨਾਲ ਪੈਦਾ ਸੁਖ ਤਾਮਸ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ |

।18.40।   ਧਰਤੀ ਵਿੱਚ ਜਾਂ ਸਵਰਗ ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਦੇਵਤਿਆਂ ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਇਲਾਵਾ ਕਿਤੇ ਵੀ ਅਜਿਹੀ ਚੀਜ਼ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਜੋ ਕੁਦਰਤ ਦੇ ਇੰਨਾ ਤਿੰਨਾਂ ਗੁਣਾਂ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਹੋਵੇ ।

।18.41।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ - ਬਾਹਮਣ , ਕਸ਼ਤਰਿਅ , ਵੈਸ਼ ਅਤੇ ਸ਼ੂਦਰ ਦੇ ਕਰਮ , ਸੁਭਾਅ ਨਾਲ ਪੈਦਾ ਗੁਣਾਂ ਦੇ ਅਨੁਸਾਰ ਵੰਡੇ ਗਏ |

।18.42।   ਸ਼ਮ , ਦਮ , ਤਪ , ਸ਼ੁਧੀ , ਸਹਿਨਸ਼ੀਲਤਾ , ਸਰਲਤਾ , ਗਿਆਨ , ਵਿਗਿਆਨ ਅਤੇ ਆਸਤੀਕਤਾ ਇਹ ਬਾਹਮਣ ਦੇ ਸਵੈਭਾਵਕ ਕਰਮ ਹਨ |

।18.43।   ਸ਼ੂਰਵੀਰਤਾ , ਤੇਜ , ਸਬਰ , ਯੋਗਤਾ , ਲੜਾਈ ਤੋਂ ਪਲਾਇਨ ਨਾਂ ਕਰਣਾ , ਦਾਨ ਅਤੇ ਸਵਾਮੀ ਭਾਵ , ਇਹ ਕਸ਼ਤਰਿਅ ਦੇ ਸਵੈਭਾਵਕ ਕਰਮ ਹਨ |

।18.44।   ਖੇਤੀਬਾੜੀ, ਗਾਂ ਪਾਲਣ ਅਤੇ ਵਪਾਰ ਇਹ ਵੈਸ਼ ਦੇ ਸਵੈਭਾਵਕ ਕਰਮ ਹਨ , ਅਤੇ ਸ਼ੂਦਰ ਦਾ ਸਵੈਭਾਵਕ ਕਰਮ ਹੈ ਸੇਵਾ ਕਰਣਾ |

।18.45।   ਆਪਣੇ - ਆਪਣੇ ਕਰਮਾਂ ਵਿੱਚ ਤਤਪਰਤਾ ਨਾਲ ਲੱਗਾ ਮਨੁੱਖ ਪਰਮ ਸਿੱਧੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ । ਆਪਣੇ ਕਰਮ ਵਿੱਚ ਲਗਾ ਕਿਵੇਂ ਸਿੱਧੀ ਪਾਉਂਦਾ ਹੈ , ਉਸ ਨੂੰ ਸੁਣ |

।18.46।   ਜਿਸ ਨਾਲ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਦੀ ਉਤਪੱਤੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਇਹ ਸੰਪੂਰਣ ਸੰਸਾਰ ਵਿਆਪਤ ਹੈ , ਉਸ ਦਾ ਆਪਣੇ ਕਰਮ ਦੇ ਨਾਲ ਪੂਜਨ ਕਰਕੇ ਮਨੁੱਖ ਸਿੱਧੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |

।18.47।   ਚੰਗੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਕੀਤੇ ਹੋਏ ਦੁੱਜੇ ਦੇ ਧਰਮ ਨਾਲੋਂ ਗੁਣਰਹਿਤ ਆਪਣਾ ਧਰਮ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਹੈ । ਸੁਭਾਅ ਤੋਂ ਨਿਅਤ ਕਰਮ ਨੂੰ ਕਰਦਾ ਹੋਇਆ ਪਾਪ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ।

।18.48।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਦੋਸ਼ ਯੁਕਤ ਹੋਣ ਉੱਤੇ ਵੀ ਸਹਿਜ ਕਰਮ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਤਿਆਗਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਕਿਉਂਕਿ ਸਾਰੇ ਕਰਮ ਅੱਗ ਨਾਲ ਧੁਐਂ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੋਸ਼ ਨਾਲ ਮਿਲੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ |

।18.49।   ਸਭਨੀ ਥਾਂਈਂ ਆਸਕਤੀ ਰਹਿਤ ਬੁੱਧੀ ਵਾਲਾ , ਭੋਤਿਕ ਭੋਗਾਂ ਤੋਂ ਦੂਰ ਅਤੇ ਜਿੱਤੇ ਹੋਏ ਅੰਤਕਰਣ ਵਾਲਾ ਕਰਮਾਂ ਦੇ ਸੰਨਿਆਸ ਨਾਲ ਪਰਮ ਨੈਸ਼ਕਰਮ ਸਿੱਧਿ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ |

।18.50।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਸਿੱਧੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਪੁਰਖ ਕਿਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਬ੍ਰਹਮਾ ਨੂੰ ਅਤੇ ਗਿਆਨ ਦੀ ਪਰਾ ਨਿਸ਼ਠਾ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ , ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਸੰਖੇਪ ਵਿੱਚ ਜਾਣ |

।18.51।   ਖਾਲਸ ਬੁੱਧੀ ਨਾਲ ਯੁਕਤ , ਧੀਰਜ ਨਾਲ ਆਤਮ ਨਿਅਮਨ ਕਰਣ ਵਾਲਾ , ਸ਼ਬਦ ਆਦਿ ਮਜ਼ਮੂਨਾਂ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕੇ ਅਤੇ ਰਾਗ ਦਵੇਸ਼ ਦਾ ਤਿਯਾਗ ਕਰ ਕੇ |

।18.52।   ਏਕਾਂਤ ਪਸੰਦ , ਘੱਟ ਭੋਜਨ ਕਰਣ ਵਾਲਾ , ਜਿਨ੍ਹੇ ਆਪਣੇ ਸਰੀਰ , ਬਾਣੀ ਅਤੇ ਮਨ ਨੂੰ ਕਾਬੂ ਕੀਤਾ ਹੈ , ਨਿੱਤ ਧਿਆਨਯੋਗ ਦੇ ਅਭਿਆਸ ਵਿੱਚ ਤਤਪਰ ਅਤੇ ਤਪੱਸਿਆ ਉੱਤੇ ਆਸ਼ਰਿਤ |

।18.53।   ਹੈਂਕੜ , ਜੋਰ , ਘਮੰਡ , ਕੰਮ , ਕ੍ਰੋਧ ਅਤੇ ਭੋਤਿਕ ਚੀਜਾਂ ਦੇ ਸੰਗ੍ਰਿਹ ਤੋਂ ਮੁਕਤ, ਮਮਤਵਭਾਵ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਅਤੇ ਸ਼ਾਂਤ ਪੁਰਖ ਬ੍ਰਹਮ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਦੇ ਲਾਇਕ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |

।18.54।   ਉਹ ਬ੍ਰਹਮ ਦੀ ਦਸ਼ਾ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਖੁਸ਼ ਮਨ ਵਾਲਾ ਸਾਧਕ ਨਾਂ ਸੋਗ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾਂ ਇੱਛਾ ਕਰਦਾ ਹੈ , ਅਜਿਹਾ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਵਿੱਚ ਬਰਾਬਰ ਭਾਵ ਵਾਲਾ ਸਾਧਕ ਮੇਰੀ ਪਰਾਭਗਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ |

।18.55।   ਭਗਤੀ ਨਾਲ ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਤੱਤ ਤੋਂ ਜਾਣਦਾ ਹੈ ਕਿ ਮੈਂ ਕਿੰਨਾ ਹਾਂ ਅਤੇ ਕੀ ਹਾਂ । ਤੱਤ ਤੋਂ ਜਾਣਨ ਦੇ ਬਾਅਦ ਤੱਤਕਾਲ ਹੀ ਉਹ ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਪਰਵੇਸ਼ ਕਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |

।18.56।   ਮੇਰਾ ਸਹਾਰਾ ਲੈਣ ਵਾਲਾ ਭਗਤ ਹਮੇਸ਼ਾ ਸਭ ਕਰਮ ਕਰਦਾ ਹੋਇਆ ਵੀ ਮੇਰੀ ਕ੍ਰਿਪਾ ਨਾਲ ਸਦਾ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਪਦ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |

।18.57।   ਚਿੱਤ ਨਾਲ ਸੰਪੂਰਣ ਕਰਮ ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਅਰਪਣ ਕਰਕੇ , ਮੇਰੇ ਪਰਾਇਣ ਹੋ ਕੇ ਅਤੇ ਬੁੱਧੀ ਯੋਗ ਦਾ ਸਹਾਰਾ ਲੈ ਕੇ ਨਿਰੰਤਰ ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਚਿੱਤ ਵਾਲਾ ਹੋ ਜਾ |

।18.58।   ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਚਿੱਤ ਲਗਾ ਕੇ ਤੂੰ ਮੇਰੀ ਕ੍ਰਿਪਾ ਨਾਲ ਸੰਪੂਰਣ ਵਿਘਨਾਂ ਨੂੰ ਤਰ ਜਾਏਗਾ ਅਤੇ ਜੇਕਰ ਤੂੰ ਅਹੰਕਾਰ ਦੇ ਕਾਰਨ ਨਹੀਂ ਸੁਣੇਗਾ ਤਾਂ ਤੇਰਾ ਪਤਨ ਹੋ ਜਾਏਗਾ |

।18.59।   ਅਤੇ ਅਹੰਕਾਰਵਸ਼ ਤੁ ਅਜਿਹਾ ਮੰਨ ਰਿਹਾ ਹੈ , ਲੜਾਈ ਨਹੀਂ ਕਰਾਂਗਾ , ਇਹ ਤੇਰਾ ਨਿਸ਼ਚਾ ਝੂੱਠ ਹੈ , ਕਿਉਂਕਿ ਤੇਰੀ ਕੁਦਰਤ ਹੀ ਤੈਨੂੰ ਮਜਬੂਰ ਕਰੇਗੀ |

।18.60।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਤੂੰ ਆਪਣੇ ਸਵੈਭਾਵਕ ਕਰਮਾਂ ਨਾਲ ਬੱਝਿਆਂ ਹੈਂ , ਮੋਹ ਦੇ ਕਾਰਨ ਤੂੰ ਜਿਸ ਨੂੰ ਕਰਣਾ ਨਹੀਂ ਚਾਹੁੰਦਾ , ਉਹੀ ਤੂੰ ਮਜ਼ਬੂਰ ਹੋ ਕੇ ਕਰੇਂਗਾ |

।18.61।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਰੱਬ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਦੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿੱਚ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਮਾਇਆ ਨਾਲ ( ਸਰੀਰ ਰੂਪੀ ) ਯੰਤਰ ਉੱਤੇ ਸਵਾਰ ਦੀ ਤਰਾਂ ਬੈਠੇ ਹੋਏ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਨੂੰ ਘੁੰਮਾਉਂਦਾ ਹੈ |

।18.62।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਤੂੰ ਸੰਪੂਰਣ ਭਾਵ ਨਾਲ ਰੱਬ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਵਿੱਚ ਜਾ । ਉਸਦੇ ਪ੍ਰਸਾਦ ਨਾਲ ਤੂੰ ਪਰਮ ਸ਼ਾਂਤੀ ਅਤੇ ਪਰਮ ਸਥਾਨ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰੇਂਗਾ |

।18.63।   ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਸਾਰੇ ਗੁਪਤ ਗਿਆਂਨਾ ਤੋਂ ਜਿਆਦਾ ਗੁਪਤ ਗਿਆਨ ਮੈਂ ਤੈਂਨੂੰ ਕਿਹਾ, ਇਸ ਤੇ ਸਾਰਾ ਵਿਚਾਰ ਕਰਕੇ ਜੈਸੀ ਇੱਛਾ ਹੋਵੇ , ਉਹੋ ਜਿਹਾ ਤੂੰ ਕਰ |

।18.64।   ਸਭ ਤੋਂ ਅਤਿਅੰਤ ਗੁਪਤ ਪਰਮ ਵਚਨ ਤੂੰ ਫਿਰ ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਸੁਣ, ਤੂੰ ਮੇਰਾ ਅਤਿਅੰਤ ਪਿਆਰਾ ਹੈ , ਇਸ ਲਈ ਮੈਂ ਤੇਰੇ ਹਿੱਤ ਦੀ ਗੱਲ ਕਹਾਂਗਾ |

।18.65।   ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਮਨ ਵਾਲਾ ਹੋ , ਮੇਰਾ ਭਗਤ ਹੋ , ਮੇਰਾ ਪੂਜਨ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਹੋ ਅਤੇ ਮੇਨੂੰ ਨਮਸਕਾਰ ਕਰ , ਅਜਿਹਾ ਕਰਣ ਨਾਲ ਤੂੰ ਮੇਨੂੰ ਹੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਏਗਾ - ਮੈਂ ਇਹ ਸੱਚ ਦਾਅਵਾ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ਕਿਉਂਕਿ ਤੂੰ ਮੇਰਾ ਅਤਿਅੰਤ ਪਿਆਰਾ ਹੈਂ |

।18.66।   ਸਭ ਧਰਮਾਂ ਦਾ ਤਿਯਾਗ ਕਰਕੇ ਤੂੰ ਕੇਵਲ ਮੇਰੀ ਸ਼ਰਨ ਵਿੱਚ ਆ ਜਾ । ਮੈਂ ਤੈਨੂੰ ਸੰਪੂਰਣ ਪਾਪਾਂ ਤੋਂ ਅਜ਼ਾਦ ਕਰ ਦੇਵਾਂਗਾ , ਚਿੰਤਾ ਨਾ ਕਰ |

।18.67।   ਇਹ ਗਿਆਨ ਅਜਿਹੇ ਪੁਰਖ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਕਹਿਣਾ ਚਾਹੀਦਾ, ਜੋ ਤਪ ਰਹਿਤ ਹੈ , ਜੋ ਭਗਤ ਨਹੀਂ ਹੈ , ਜੋ ਸੇਵਾ ਵਿੱਚ ਤਤਪਰ ਨਹੀਂ ਹੈ ਅਤੇ ਜੋ ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਦੋਸ਼ ਵੇਖਦਾ ਹੈ |

।18.68।   ਜੋ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਪਰਾ ਭਗਤੀ ਕਰਕੇ ਇਹ ਪਰਮ ਗੁਪਤ ਉਪਦੇਸ਼ ਮੇਰੇ ਭਗਤਾਂ ਨੂੰ ਦਿੰਦਾ ਹੈ , ਉਹ ਬਿਨਾਂ ਸ਼ੱਕ ਮੈਨੂੰ ਹੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ |

।18.69।   ਉਸਦੇ ਸਮਾਨ ਮੇਰਾ ਪਿਆਰਾ ਕਾਰਜ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਮਨੁੱਖਾਂ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਵੀ ਨਹੀਂ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਭੂਮੰਡਲ ਉੱਤੇ ਦੂਜਾ ਕੋਈ ਉਸਤੋਂ ਵਧ ਕੇ ਪਿਆਰਾ ਹੋਵੇਗਾ ਵੀ ਨਹੀਂ |

।18.70।   ਜੋ ਸਾਡੇ ਦੋਨਾਂ ਦੇ ਇਸ ਧਰਮਮੀ ਸੰਵਾਦ ਦਾ ਪਾਠ ਕਰੇਗਾ , ਉਸਦੇ ਦੁਆਰਾ ਮੈਂ ਗਿਆਨ ਯੱਗ ਨਾਲ ਪੂਜਿਆ ਸਮਝਿਆ ਜਾਵਾਂਗਾ ਅਜਿਹਾ ਮੇਰਾ ਮਤ ਹੈ ।

।18.71।   ਸ਼ਰਧਾਵਾਨ ਅਤੇ ਦੋਸ਼ ਨਜ਼ਰ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਇਸ ਨੂੰ ਸੁਣ ਵੀ ਲਵੇਗਾ , ਉਹ ਵੀ ਮੁਕਤ ਹੋ ਕੇ ਪੁੰਣਕਰਮੀਆਂ ਦੇ ਸ਼ੁਭ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਏਗਾ |

।18.72।   ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਕੀ ਤੂੰ ਸਥਿਰ-ਚਿੱਤ ਨਾਲ ਇਸਨ੍ਹੂੰ ਸੁਣਿਆ ਅਤੇ ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਕੀ ਤੇਰਾ ਅਗਿਆਨ ਨਾਲ ਪੈਦਾ ਮੋਹ ਨਸ਼ਟ ਹੋ ਗਿਆ |

।18.73।   ਅਰਜੁਨ ਨੇ ਕਿਹਾ - ਹੇ ਕ੍ਰਿਸ਼ਣ, ਤੁਹਾਡੀ ਕ੍ਰਿਪਾ ਨਾਲ ਮੇਰਾ ਮੋਹ ਨਸ਼ਟ ਹੋ ਗਿਆ ਅਤੇ ਮੈਨੂੰ ਗਿਆਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਗਿਆ, ਹੁਣ ਮੈਂ ਸੰਦੇਹ ਰਹਿਤ ਹੋ ਕੇ ਸਥਿਤ ਹਾਂ ਅਤੇ ਮੈਂ ਤੁਹਾਡੇ ਵਚਨ ਦਾ ਪਾਲਣ ਕਰਾਂਗਾ |

।18.74।   ਸੰਜੈ ਨੇ ਕਿਹਾ , ਇਸ ਤਰਾੰ ਮੈਂਨੇ ਵਾਸੁਦੇਵ ਅਤੇ ਮਹਾਤਮਾ ਅਰਜੁਨ ਦੇ ਇਸ ਅਨੌਖੇ ਅਤੇ ਰੋਮਾਂਚਕ ਸੰਵਾਦ ਨੂੰ ਸੁਣਿਆ |

।18.75।   ਵਿਆਸ ਜੀ ਦੀ ਕ੍ਰਿਪਾ ਨਾਲ ਮੈਂਨੇ ਆਪ ਇਸ ਪਰਮ ਗੁਪਤ ਯੋਗ ਨੂੰ ਕਹਿੰਦੇ ਹੋਏ ਸਾਕਸ਼ਾਤ ਯੋਗੇਸ਼ਵਰ ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਣ ਤੋਂ ਸੁਣਿਆ ਹੈ |

।18.76।   ਹੇ ਰਾਜਨ , ਭਗਵਾਂਨ ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਣ ਅਤੇ ਅਰਜੁਨ ਦੇ ਇਸ ਪਵਿਤਰ ਅਤੇ ਅਨੌਖੇ ਸੰਵਾਦ ਨੂੰ ਯਾਦ ਕਰ ਕਰਕੇ ਮੈਂ ਬਾਰਬਾਰ ਗਦ ਗਦ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹਾਂ ।

।18.77।   ਹੇ ਰਾਜਨ , ਸ਼੍ਰੀ ਹਰਿ ਦੇ ਉਸ ਅਤਿ ਅਨੌਖੇ ਰੂਪ ਨੂੰ ਵੀ ਬਾਰਬਾਰ ਸਿਮਰਨ ਕਰਕੇ ਮੈਨੂੰ ਮਹਾਨ ਅਚਰਜ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਮੈਂ ਬਾਰਬਾਰ ਗਦ ਗਦ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹਾਂ |

।18.78।   ਜਿੱਥੇ ਯੋਗੇਸ਼ਵਰ ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਣ ਹਨ ਅਤੇ ਜਿੱਥੇ ਧਨੁਸ਼ ਧਾਰੀ ਅਰਜੁਨ ਹਨ , ਉੱਥੇ ਹੀ ਸ਼੍ਰੀ , ਫਤਹਿ , ਐਸ਼ਵਰਿਐ ਅਤੇ ਸਥਿਰ ਨੀਤੀ ਹੈ , ਅਜਿਹਾ ਮੇਰਾ ਮਤ ਹੈ |


English Translation of Chapter 18 without Verses 

।18.1।   Arjuna said O mighty-armed Hrsikesa, O slayer of Kesi, I want to know the truth about different nature of renunciation and relinquishment.

।18.2।   Shri Krishna replied: The learned ones say that renunciation means forgoing an action which springs from desire; and relinquishing means the surrender of its fruit.

।18.3।   Some philosophers say that all action is evil and should be abandoned. Others say that acts of sacrifice, benevolence and austerity should not be given up.

।18.4।   O Arjuna, Hear from Me the final truth about this abandonment, it has been declared to be of three kinds.

।18.5।   Acts of sacrifice, gift and austerity should not be abandoned, but should be performed as a duty; sacrifice, gift and austerity purifies the wise.

।18.6।   O Arjuna, these actions have to be undertaken as a duty by renouncing attachment and results. This is My firm and best conclusion.

।18.7।   The abandoning of daily obligatory acts is not right. Giving up that through delusion is based on ignorance.

।18.8।   To avoid an action due to fear of physical suffering,because it is likely to be painful, is to act from passion, and the benefit of renunciation will not accrue.

।18.9।   O Arjuna, Whatever obligatory action is done, merely because it ought to be done, abandoning attachment and also the desire for fruits, that renunciation is regarded in the mode of goodness.

।18.10।   Neither hateful of inauspicious work nor attached to auspicious work, The intelligent, doubtless, renouncer is situated in the mode of goodness.

।18.11।   As it is not possible for an embodied being to abandon actions entirely; but he who relinquishes the fruits of actions is called a man of renunciation.

।18.12।   For one who is not renounced, the threefold fruits of action—desirable, undesirable and mixed—accrue after death. But those who are in the renounced the fruits of their work have no such results.

।18.13।   O Arjuna, I will tell you, the five causes which, according to the Sankhya philosophy, must concur for the accomplishment of all actions.

।18.14।   The place of action (the body), the performer, the various senses, the many different kinds of endeavor, and presiding deity are the five factors of action.

।18.15।   Whatever just or unjust action a man performs with the body, speech and mind, these five are the cuases for it.

।18.16।   Therefore one who thinks himself the only doer, is of perverted intelligence and cannot percieve the things as they are.

।18.17।   He who has no false ego, and whose intellect is unalloyed by attachment, even though he kill these people, yet he does not kill them, and his act does not bind him

।18.18।   Knowledge, the object the knowledge and the knower-this is the threefold inducement to action, and the act, the actor and the instrument are the threefold constituents of action.

।18.19।   The books which describe different qualities also describe three types of knowledge, action and actor; listen to these duly.

।18.20।   That knowledge by which one undivided spiritual nature is seen in all living entities, though they are divided into innumerable forms, you should understand to be in the mode of goodness.

।18.21।   That knowledge by which one sees that in every different body there is a different type of living entity you should understand to be in the mode of passion.

।18.22।   But that which clings one work as if it were all, without logic, truth, and is insignificant, that has its origin in Darkness.

।18.23।   The daily obligatory action which is performed without attachment and without likes or dislikes by one who does not hanker for rewards, that is said to be born in the mode of goodness.

।18.24।   But action performed with great effort by one seeking to gratify his desires, and enacted from a sense of false ego, is called action in the mode of passion.

।18.25।   That action which is undertaken from delusion, without a regard for the consequences, loss, injury and one's own ability that is declared to be in the mode of darkness

।18.26।   The agent who is free from attachment, does not make any speech of egoism, full of contentment and enthusiasm, and does not change in success or failure-that agent is said to be of the mode of goodness.

।18.27।   The worker who is attached to work and the fruits of work, and who is greedy, violent, impure, and moved by joy and sorrow, is said to be in the mode of passion.

।18.28|   The agent who likes to do the undesirable works, naive, unbending, stubborn, wicked, lazy, morose and postponing the duties for long, is said to be in the mode of ignorance.

|18.29।   O Arjuna, listen to the classification of the intellect and fortitude, which is threefold according to the qulaities, while I elaborate it fully in a different manner.

।18.30।   O Arjuna, The intellect which knows the path of work and renunciation, what ought to be done and what ought not to be done, fear and fearlessness, bondage and liberation that intellect is pure.

।18.31।   O Arjuna, that understanding which cannot distinguish between religion and irreligion, between action that should be done and action that should not be done, is in the mode of passion.

।18.32।   O Arjuna, that intellect is born of ignorance mode, which being covered by darkness, considers vice as virtue, and perceives all things contrary to what they are.

।18.33।   O Arjuna, that determination which is unbreakable and steadfast by yoga practice, and controls the activities of the mind, life and senses is determination in the mode of goodness

।18.34।   O Arjuna, But that determination by which one holds fast to fruitive results of bounden duty, wealth and sense gratification is of the nature of passion.

।18.35।   O Arjuna, And that firmness which cannot go beyond dreaming, fearfulness,lamentation, moroseness and illusion—such unintelligent determination, is in the mode of darkness.

।18.36।   O Arjuna, And now hear from Me the threefold pleasure, in which one rejoices by practice and comes to the end of pain.

।18.37।   That which is like poison in the beginning, but nectar in the end, and arises from the purity of one's intellect-that joy is spoken of as born in the mode of goodness

।18.38।   That happiness which is derived from contact of the senses with their objects and which appears like nectar at first but poison at the end is said to be in the mode of passion.

।18.39।   And that happiness which is deluding the Self from beginning to end and which arises from sleep, laziness and illusion is said to be in the mode of ignorance.

।18.40।   There is no such entity in the world, in the heaven, among the demi-gods, which can be free from these three gunas born of Nature.

।18.41।   O Arjuna! The duties of spiritual teachers, the soldiers, the traders and the servants have all been divided according to the qualities in their nature.

।18.42।   Serenity, self-control, austerity, purity, tolerance, honesty, knowledge, wisdom and religiousness—these are the natural qualities by which the Brahmanas work.

।18.43।   Heroism, power, determination, excelling in his skills, not retreating from battle, generosity and leadership are the natural qualities of work for the kshatriyas.

।18.44।   Farming, cow protection and business are the natural work for the vaishyas,and for the shudras it is service to others.

।18.45।   Being devoted to his own duty, man attains complete success. Hear that as to how one devoted to his own duty achieves success.

।18.46।   By worshipping him, who is the source of all beings and who is all-pervading, a man can attain perfection by performing his own work.

।18.47।   It is better to engage in one’s own occupation, even though done imperfectly, than to accept another’s occupation and perform it perfectly. Duties prescribed according to one’s nature are never affected by sinful reactions.

।18.48।   O Arjuna, One should not give up the nature-born duty, even if it appears to be defective. All acts are marred by defects, as fire is covered by smoke.

।18.49।   One who is self-controlled and unattached and who disregards all material enjoyments, by practice of renunciation, obtains the perfect stage where one does not leaves any seeds of reaction.

।18.50।   O Arjuna, How one who has achieved this perfection can attain to the supreme Brahman, the state of highest knowledge; I shall now summarize.

।18.51।   Endowed with a pure intellect, controlling the self by firmness, relinquishing sense-gratifying objects and abandoning desire and hatred.

।18.52।   One who resorts to solitude, eats sparingly, has speech, body and mind under control, always engaged in meditation, possessed with the spirit of renunciation.

।18.53।   When one becomes free from false ego, false strength, pride, lust, anger, free from collection of material things, free from false possession, and peaceful—such a person is certainly elevated to the position of self-realization.

।18.54।   One who realizes the Supreme Brahman and with a joyful mind, never laments or desires to have anything. He is equally disposed toward every living entity and attains pure devotional service unto Me.

।18.55।   Through devotion he knows Me in reality, as to what and who I am. Then, having known Me in truth, he enters into Me immediately after that.

।18.56।   Though engaged in all kinds of activities, My pure devotee, taking refuge in me, reaches the eternal and imperishable abode by My grace.

।18.57।   Mentally surrendering all actions to Me and accepting Me as the supreme, have your mind ever fixed on Me, concentrate your intellect on Me.

।18.58।   Having your mind fixed on Me, you will cross over all difficulties through My grace. If you do not listen due to our ego, you will perish.

।18.59।   If due to your ego, you think that you will not fight, then your resolve is useless because the nature will compel you to fight.

।18.60।   O Arjuna, You are bound by your nature and duty. Even if you don't want to do some work due to delusion, you will be compelled to do the same.

।18.61।   The Supreme Lord is situated in everyone’s heart, O Arjuna, and is directing the wanderings of all living entities, as seated on a machine, by his mystic illusive power.

।18.62।   O Arjuna, surrender unto Him utterly. By His grace you will attain transcendental peace and the supreme and eternal abode.

।18.63।   Thus I have explained to you knowledge which is even more confidential. Deliberate on this fully, and then do what you wish to do.

।18.64।   Because you are My very dear friend, I am speaking to you My supreme instruction, the most confidential knowledge of all. Hear this from Me, for it is for your benefit.

।18.65।   Always think of Me, become My devotee, worship Me and offer your homage unto Me. Thus you will come to Me without fail. I promise you this because you are My very dear friend.

।18.66।   Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reactions, grieve not.

।18.67।   This is never to be spoken by you to one who is devoid of austerities or devotion, nor to one who does not render service and nor to one who sees fault in Me.

।18.68।   He who, entertaining supreme devotion to Me, will speak of this highest secret, to My devotees will without doubt reach Me alone.

।18.69।   There is no one in this world more dear to Me than he, nor will there ever be one more dear on this planet.

।18.70।   And I declare that he who studies this sacred conversation of ours worships Me by his intelligence at the altar of wisdom.

।18.71।   Also the man who hears this, full of faith and free from malice, will be liberated, and shall attain to the pious worlds of those of righteous deeds.

।18.72।   O Arjuna, has this been listened to by you with a one-pointed mind, O Arjuna, has your delusion caused by ignorance been destroyed.

।18.73।   Arjuna said O Achyuta, my delusion has been destroyed and truth has been regained by me through Your grace. I stand with my doubt removed; I shall follow Your instruction.

।18.74।   Sanjaya said: Thus I have heard this wonderful and thrilling dailogue of Vasudeva and the great Arjuna.

।18.75।   Through the grace of Vyasa I have heard this supreme and secret Yoga direct from Krishna, the Lord of Yoga, Himself declaring it.

।18.76।   O King, as I repeatedly recall this wondrous and holy dialogue between Krishna and Arjuna, I take pleasure, being thrilled again and again.

।18.77।   O King, as I remember the wonderful form of Lord Krishna, I am struck with wonder more and more, and I rejoice again and again.

।18.78।   Wherever there is Krishna, the master of Yoga, and wherever there is Arjuna, the supreme archer, there will also certainly be opulence, victory, fortune, and firm policy. That is my opinion.


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः॥18.1-18.78॥

Completed by 25th August, 2016 (78 days)

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