अध्याय चौदह / Chapter Fourteen
।14.1।
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ १ ॥
शब्दार्थ
श्रीभगवानुवाच - श्री भगवान् बोले
परं भूयः - परम, फिर
प्रवक्ष्यामि - कहूँगा
ज्ञानानां - सम्पूर्ण ज्ञानों में
ज्ञानमुत्तमम् - उत्तम ज्ञान
यज्ज्ञात्वा - जिसको जानकर
मुनयः - मुनिलोग
सर्वे - सब
परां - परम
सिद्धिमितो - सिद्धिको
गताः - प्राप्त हो गये हैं
भावार्थ/Translation
श्री भगवान् बोले - सम्पूर्ण ज्ञानों में उत्तम और परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनि परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं |14.1|
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨ ਬੋਲੇ - ਸੰਪੂਰਣ ਗਿਆਨਾਂ ਵਿੱਚ ਉੱਤਮ ਅਤੇ ਪਰਮ ਗਿਆਨ ਨੂੰ ਮੈਂ ਫਿਰ ਕਹਾਂਗਾ , ਜਿਸ ਨੂੰ ਜਾਨ ਕੇ ਸਭ ਮੁਨੀ ਪਰਮ ਸਿੱਧਿ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਗਏ ਹਣ |14.1|
Krishna Said - I will again speak the supreme knowledge, which is best of all knowledge, by realizing which the sages have attained perfection.|14.1|
।14.2।
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ २ ॥
शब्दार्थ
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य - इस ज्ञान का आश्रय लेकर
मम - मेरे
साधर्म्यमागताः - स्वरूप को प्राप्त
सर्गेऽपि - सृष्टि के आदि में
नोपजायन्ते - जन्म नहीं लेते
प्रलये न - प्रलयकाल में भी
व्यथन्ति च - व्याकुल भी नहीं होते
भावार्थ/Translation
इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे स्वरूप को प्राप्त पुरुष सृष्टि के आदि में जन्म नहीं लेते और प्रलयकाल में व्याकुल भी नहीं होते |14.2|
ਇਸ ਗਿਆਨ ਦਾ ਸਹਾਰਾ ਲੈ ਕੇ ਮੇਰੇ ਸਵਰੂਪ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਪੁਰਖ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟਿ ਦੇ ਆਦਿ ਵਿੱਚ ਜਨਮ ਨਹੀਂ ਲੈਂਦੇ ਅਤੇ ਪ੍ਰਲਇਕਾਲ ਵਿੱਚ ਵਿਆਕੁਲ ਵੀ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ |14.2|
Those who attain identity with Me by taking refuge in this Knowledge are not born even during creation, nor do they suffer pain during dissolution.|14.2|
।14.3।
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भ दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ ३ ॥
शब्दार्थ
मम - मेरी
योनिर्महद्ब्रह्म - मूल प्रकृति उत्पत्तिस्थान है
तस्मिन्गर्भ - उसमें गर्भका
दधाम्यहम् - मैं स्थापन करता हूँ
सम्भवः - उत्पत्ति
सर्वभूतानां - सम्पूर्ण प्राणियोंकी
ततो भवति - उससे होती है
भारत - हे अर्जुन
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन, मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति स्थान है और मैं उसमें गर्भ का स्थापन करता हूँ उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है |14.3|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਮੇਰੀ ਮੂਲ ਕੁਦਰਤ ਤਾਂ ਉਤਪੱਤੀ ਸਥਾਨ ਹੈ ਅਤੇ ਮੈਂ ਉਸ ਵਿੱਚ ਗਰਭ ਠਹਿਰਾਂਦਾ ਹਾਂ ਉਸਤੋਂ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਦੀ ਉਤਪੱਤੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ |14.3|
O Arjuna, My Womb is great Brahman, and I place the Seed in that, which results in the birth of all the beings. |14.3|
।14.4।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
सर्वयोनिषु - सम्पूर्ण योनियों में
कौन्तेय - हे अर्जुन
मूर्तयः - जितने शरीर
सम्भवन्ति - पैदा होते हैं
याः - उन
तासां - सबकी
ब्रह्म - प्रकृति
महद्योनिरहं - मूल, योनि
बीजप्रदः - बीजस्थापन करनेवाला
पिता - पिता हूँ
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन - सम्पूर्ण योनियों में जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी योनि तो मूल प्रकृति है और मैं बीजस्थापन करने वाला पिता हूँ |14.4|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ - ਸੰਪੂਰਣ ਯੋਨੀਆਂ ਵਿੱਚ ਜਿੰਨੇ ਸਰੀਰ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੇ ਹਨ , ਉਨ੍ਹਾਂ ਸਭ ਦੀ ਕੁੱਖ ਤਾਂ ਮੂਲ ਕੁਦਰਤ ਹੈ ਅਤੇ ਮੈਂ ਬੀਜ ਸਥਾਪਨ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਪਿਤਾ ਹਾਂ |14.4|
O Arjuna ! Whatever manifestations spring up in all the wombs, of them the mighty Brahman is the womb and I am the father laying the seed.|14.4|
।14.5।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबन्धन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
सत्त्वं - सत्त्व
रजस्तम - रज और तम
इति - ये
गुणाः - गुण
प्रकृतिसम्भवाः - प्रकृति से उत्पन्न
निबन्धन्ति - बाँधते हैं
महाबाहो - हे अर्जुन
देहे - शरीर में
देहिनमव्ययम् - अविनाशी जीवात्मा को
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन! सत्त्व, रज और तम -ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं |14.5|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ ! ਸੱਤਵ , ਰਜ ਅਤੇ ਤਮ - ਇਹ ਕੁਦਰਤ ਵਲੋਂ ਪੈਦਾ ਤਿੰਨ ਗੁਣ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਜੀਵਾਤਮਾ ਨੂੰ ਸਰੀਰ ਨਾਲ ਬੰਨ੍ਹਦੇ ਹਨ |14.5|
O Arjuna, Purity, passion and Inertia- These threee qualities, bind the indestructible soul with the body.|14.5|
।14.6।
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बन्धाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
तत्र - उन में
सत्त्वं - सत्त्व
निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् - निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है
सुखसङ्गेन - सुख के सम्बन्ध से और
बन्धाति - बाँधता है
ज्ञानसङ्गेन - ज्ञान के सम्बन्ध से
चानघ - हे अर्जुन
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन! उन तीनों गुणों में सत्त्व तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से बाँधता है |14.6|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ ! ਉਨ੍ਹਾਂ ਤਿੰਨਾਂ ਗੁਣਾਂ ਵਿੱਚ ਸੱਤਵ ਤਾਂ ਨਿਰਮਲ ਹੋਣ ਦੇ ਕਾਰਨ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਅਤੇ ਵਿਕਾਰ ਰਹਿਤ ਹੈ , ਉਹ ਸੁਖ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ਨਾਲ ਅਤੇ ਗਿਆਨ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ਨਾਲ ਬੰਨ੍ਹਦਾ ਹੈ |14.6|
O Arjuna, Of these three qualities, Sattva, Being Pure and stainless acts as an illuminator, It binds you by attachment to knowledge and happiness.|14.6|
।14.7।
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबन्धाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ ७ ॥
शब्दार्थ
रजो - रज
रागात्मकं - रागस्वरूप
विद्धि - समझो
तृष्णासङ्गसमुद्भवम् - तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले
तन्निबन्धाति - वह बाँधता है
कौन्तेय - हे अर्जुन
कर्मसङ्गेन - कर्मों की आसक्ति से
देहिनम् - शरीरी को
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन, तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले रज को तुम रागस्वरूप समझो वह कर्मों की आसक्ति से शरीरी को बाँधता है |14.7|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਤ੍ਰਿਸ਼ਣਾ ਅਤੇ ਆਸਕਤੀ ਨੂੰ ਪੈਦਾ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਰਜ ਨੂੰ ਤੂੰ ਰਾਗਸਰੂਪ ਸਮੱਝ, ਉਹ ਕਰਮਾਂ ਦੀ ਆਸਕਤੀ ਨਾਲ ਸ਼ਰੀਰੀ ਨੂੰ ਬੰਨ੍ਹਦਾ ਹੈ |14.7|
O Arjuna, Rajas is of the nature of desire and is a source of craving-attachment, and it binds the embodied by the attachment to action.|14.7|
।14.8।
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबन्धाति भारत ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
तमस्त्वज्ञानजं - तम को अज्ञान से उत्पन्न
विद्धि - समझ
मोहनं - मोहित करने वाले
सर्वदेहिनाम् - सम्पूर्ण देहधारियों को
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबन्धाति - वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बाँधता है
भारत - हे अर्जुन
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन, सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तम को तुम अज्ञान से उत्पन्न समझ वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बाँधता है |14.8|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਸੰਪੂਰਣ ਦੇਹਧਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਮੋਹਿਤ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਤਮ ਨੂੰ ਤੂੰ ਅਗਿਆਨ ਨਾਲ ਪੈਦਾ ਸੱਮਝ, ਉਹ ਪ੍ਰਮਾਦ, ਆਲਸ ਅਤੇ ਨਿੰਦਰ ਨਾਲ ਬੰਨ੍ਹਦਾ ਹੈ |14.8|
Know that Tamas is born of false knowledge and deludes all embodied selves. It binds, O Arjuna, with negligence, laziness and sleep. |14.8|
।14.9।
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
सत्त्वं - सत्त्व
सुखे - सुख में
सञ्जयति - आसक्त कर देता है
रजः - रज
कर्मणि - कर्म में
भारत - हे अर्जुन
ज्ञानमावृत्य - ज्ञान को ढक कर
तु तमः - तम
प्रमादे - प्रमाद से
सञ्जयत्युत -आसक्त कर देता है
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन - सत्त्व सुख में आसक्त कर देता है और रज कर्म में, तम ज्ञान को ढक करके जीव को प्रमाद से आसक्त कर देता है |14.9|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ - ਸੱਤਵ ਸੁਖ ਵਿੱਚ ਆਸਕਤ ਕਰ ਦਿੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਰਜ ਕਰਮ ਵਿੱਚ, ਤਮ ਗਿਆਨ ਨੂੰ ਢਕ ਕੇ ਜੀਵ ਨੂੰ ਪ੍ਰਮਾਦ ਨਾਲ ਆਸਕਤ ਕਰ ਦਿੰਦਾ ਹੈ |14.9|
O Arjuna, Sattva generates attachment to pleasure, Rajas to action and Tamas, veiling knowledge, generates attachment to negligence.|14.9|
।14.10।
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ १० ॥
शब्दार्थ
रजस्तमश्चाभिभूय - रज और तम को दबाकर
सत्त्वं - सत्त्व
भवति - बढ़ता है
भारत - हे अर्जुन
रजः - रज
सत्त्वं - सत्त्व
तमश्चैव - और तम को
तमः - तम
सत्त्वं - सत्त्व
रजस्तथा - और रज को
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन! रज और तम को दबाकर सत्त्व, सत्त्व और तम को दबाकर रज, सत्त्व और रज को दबाकर तम बढ़ता है |14.10|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ ! ਰਜ ਅਤੇ ਤਮ ਨੂੰ ਦਬਾ ਕੇ ਸੱਤਵ , ਸੱਤਵ ਅਤੇ ਤਮ ਨੂੰ ਦਬਾ ਕੇ ਰਜ , ਸੱਤਵ ਅਤੇ ਰਜ ਨੂੰ ਦਬਾ ਕੇ ਤਮ ਵਧਦਾ ਹੈ |14.10|
O Arjuna, purity prevails overpowering passion and inertia, passion prevails overpowering purity and inertia, inertia prevails overpowering purity and passion. |14.10|
।14.11।
सर्वद्वारेषु देहेस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ ११ ॥
शब्दार्थ
सर्वद्वारेषु - सब द्वारों
देहेस्मिन्प्रकाश - शरीर में प्रकाश
उपजायते - प्रकट हो जाता है
ज्ञानं - ज्ञान
यदा तदा - तब तब
विद्याद्विवृद्धं - जानना चाहिये, बढ़ा हुआ है
सत्त्वमित्युत - सत्त्व , तब
भावार्थ/Translation
जब शरीर में सब द्वारों (इन्द्रियों) में प्रकाश और ज्ञान प्रकट हो जाता है, तब जानना चाहिये कि सत्त्व बढ़ा हुआ है |14.11|
ਜਦੋਂ ਸਰੀਰ ਵਿੱਚ ਸਭ ਦਵਾਰਾਂ ( ਇੰਦਰੀਆਂ ) ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਅਤੇ ਗਿਆਨ ਜ਼ਾਹਰ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ , ਤੱਦ ਜਾਣਨਾ ਚਾਹੀਦੇ, ਕਿ ਸੱਤਵ ਵਧਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ |14.11|
When the knowledge and light illumines in all the gates in this body, then one should also know that the purity is predominant.|14.11|
।14.12।
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
लोभः - लोभ
प्रवृत्तिरारम्भः - निरन्तर प्रयत्न, आरम्भ
कर्मणामशमः - कार्य
स्पृहा - तृष्णा
रजस्येतानि - रज
जायन्ते - पैदा होती हैं
विवृद्धे - बढ़ने पर
भरतर्षभ - हे अर्जुन
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन, रज बढ़ने पर लोभ, निरन्तर प्रयत्न, कार्य का आरम्भ, अशान्ति और तृष्णा जैसी वृत्तियाँ पैदा होती हैं |14.12|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਰਜ ਵਧਣ ਤੇ, ਲੋਭ, ਨਿਰੰਤਰ ਜਤਨ , ਕਾਰਜਾਂ ਦਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰਣਾ , ਅਸ਼ਾਂਤੀ ਅਤੇ ਤ੍ਰਿਸ਼ਣਾ ਵਰਗੀਆਂ ਵ੍ਰਿਤੀਯਾਂ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ |14.12|
O Arjuna, when passion prevails- Greed, activity, undertaking of work, restlessness and craving arise.|14.12|
।14.13।
अप्रकाशोऽप्रवृतिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ १३ ॥
शब्दार्थ
अप्रकाशोऽप्रवृतिश्च - अविवेक, प्रयत्न न करना
प्रमादो - प्रमाद
मोह - मोह
एव च - और ये
तमस्येतानि - तम के
जायन्ते - उत्पन्न होते हैं
विवृद्धे - बढ़ने पर
कुरुनन्दन - अर्जुन
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन, तम के बढ़ने पर अविवेक, प्रयत्न न करना, प्रमाद और मोह ये सब उत्पन्न होते हैं |14.13|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ , ਤਮ ਦੇ ਵਧਣ ਤੇ, ਅਗਿਆਨ, ਜਤਨ ਨਾਂ ਕਰਣਾ , ਪ੍ਰਮਾਦ ਅਤੇ ਮੋਹ ਇਹ ਸਭ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੇ ਹਨ |14.13|
O Arjuna, darkness, inactivity, negligence and delusion arise when inertia is predominant.|14.13|
।14.14।
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥
शब्दार्थ
यदा - जब
सत्त्वे - सत्त्व
प्रवृद्धे - की वृद्धि में
तु प्रलयं - मरता है
याति - तब
देहभृत् - मनुष्य
तदोत्तमविदां - उत्तम कर्म करने वालों के
लोकानमलान्प्रतिपद्यते - निर्मल लोकों को प्राप्त होता है
भावार्थ/Translation
जब यह मनुष्य सत्त्व की वृद्धि में मरता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल लोकों को प्राप्त होता है |14.14|
ਜਦੋਂ ਮਨੁੱਖ ਸੱਤਵ ਦੇ ਵਾਧੇ ਵਿੱਚ ਮਰਦਾ ਹੈ , ਤੱਦ, ਉੱਤਮ ਕਰਮ ਕਰਣ ਵਾਲਿਆਂ ਦੇ ਨਿਰਮਲ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ |14.14|
If the embodied one dies when Sattva is predominant, then he attains to the pure worlds which have people who do excellent deeds.|14.14|
।14.15।
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
रजसि - रज में
प्रलयं - मरने
गत्वा - वाला
कर्मसङ्गिषु - कर्म आसक्त मनुष्य
जायते - जाता है
तथा प्रलीनस्तमसि - तथा तम में मरने वाला
मूढयोनिषु - निकृष्ट योनि
जायते - जाता है
भावार्थ/Translation
रज में मरने वाला कर्म आसक्त मनुष्य योनि, में जाता है तथा तम में मरने वाला निकृष्ट योनि में जाता है |14.15|
ਰਜ ਵਿੱਚ ਮਰਨ ਵਾਲਾ, ਕਰਮ ਵਿੱਚ ਆਸਕਤ ਮਨੁੱਖ ਜਨਮ, ਵਿੱਚ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਤਮ ਵਿੱਚ ਮਰਨ ਵਾਲਾ ਨੀਚਲੀਆਂ ਯੋਨੀਆਂ ਵਿੱਚ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |14.15|
Who dies in passion, is born among those who are attached to action; and who dies in Inertia, he is born in lower species.|14.15|
।14.16।
कर्मणः सकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥ १६ ॥
शब्दार्थ
कर्मणः - कर्म का
सकृतस्याहुः - शुभ
सात्त्विकं - सात्विक
निर्मलं - निर्मल
फलम् - फल
रजसस्तु - रज का
फलं - फल
दुःखमज्ञानं - दुख और अज्ञान
तमसः - तम का
फलम् - फल
भावार्थ/Translation
सात्विक भाव से किए शुभ कर्म का फल, निर्मल कहा गया है, रज का फल दुख और तम का फल अज्ञान है |14.16|
ਸਾਤਵਿਕ ਭਾਵ ਨਾਲ ਕੀਤੇ ਸ਼ੁਭ ਕਰਮ ਦਾ ਫਲ , ਨਿਰਮਲ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ , ਰਜ ਦਾ ਫਲ ਦੁੱਖ ਅਤੇ ਤਮ ਦਾ ਫਲ ਅਗਿਆਨ ਹੈ |14.16|
They say that the result of good work born of sattva is pure, the result of rajas is sorrow; the result of tamas is ignorance.|14.16|
।14.17।
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
सत्त्वात्सञ्जायते - सत्त्व, उत्पन्न होता है
ज्ञानं - ज्ञान
रजसो - रज से
लोभ - लोभ
एव च - तथा
प्रमादमोहौ - प्रमाद, मोह
तमसो - तम से
भवतोऽज्ञानमेव च - और अज्ञान उत्पन्न होता है
भावार्थ/Translation
सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है, रज से लोभ तथा तम से प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न होता है |14.17|
ਸੱਤਵ ਨਾਲ ਗਿਆਨ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ , ਰਜ ਨਾਲ ਲੋਭ ਅਤੇ ਤਮ ਨਾਲ ਪ੍ਰਮਾਦ , ਮੋਹ ਅਤੇ ਅਗਿਆਨ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ |14.17|
From the Sattva arises knowledge, and from Rajas greed, from Tamas arise negligence and delusion, and ignorance.|14.17|
।14.18।
ऊध्वँ गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ १८ ॥
शब्दार्थ
ऊध्वँ गच्छन्ति - उपर को जाते हैं
सत्त्वस्था - सत्त्व में स्थित
मध्ये - मध्य में
तिष्ठन्ति - रहते हैं
राजसाः - नीचे को
जघन्यगुणवृत्तिस्था - निन्दनीय वृत्ति
अधो - नीचे को
गच्छन्ति - जाते हैं
तामसाः - तम में
भावार्थ/Translation
सत्त्व में स्थित मनुष्य उपर को जाते हैं रज में स्थित मनुष्य मध्य में रहते हैं और निन्दनीय तम की वृत्ति में स्थित मनुष्य नीचे को जाते हैं |14.18|
ਸੱਤਵ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਮਨੁੱਖ ਉਪਰ ਨੂੰ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਰਜ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਮਨੁੱਖ ਵਿਚਕਾਰ ਵਿੱਚ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਨਿੰਦਾ ਯੋਗ ਤਮ ਦੀ ਵ੍ਰਿਤੀ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਮਨੁੱਖ ਹੇਠਾਂ ਨੂੰ ਜਾਂਦੇ ਹਨ |14.18|
Those who are seated in Sattva go upwards; the Rajasic dwell in the middle; and the Tamasic, abiding in lowest qualities, go downwards.|14.18|
।14.19।
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
नान्यं - अन्य किसी को, नहीं
गुणेभ्यः - गुणों से
कर्तारं - कर्ता
यदा - जब
द्रष्टानुपश्यति - विवेकी (द्रष्टा), देखता
गुणेभ्यश्च - गुणों के
परं - उपर
वेत्ति - जानता है
मद्भावं - मेरे भाव को
सोऽधिगच्छति - वह प्राप्त हो जाता है
भावार्थ/Translation
जब विवेकी (विचारकुशल) मनुष्य गुणों के उपर अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और गुणों से परे परम को जानता है, वह मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है |14.19|
ਜਦੋਂ ਵਿਵੇਕੀ ( ਵਿਚਾਰਕੁਸ਼ਲ ) ਮਨੁੱਖ ਗੁਣਾਂ ਦੇ ਉਪਰ ਹੋਰ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਕਰਤਾ ਨਹੀਂ ਵੇਖਦਾ ਅਤੇ ਗੁਣਾਂ ਤੋਂ ਪਰੇ ਪਰਮ ਨੂੰ ਜਾਣਦਾ ਹੈ , ਉਹ ਮੇਰੇ ਭਾਵ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |14.19|
When the witness sees none other than the qualities as the agent, and knows that which is even superior to the qualities, he attains My nature.|14.19|
।14.20।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहेसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ २० ॥
शब्दार्थ
गुणानेतानतीत्य - तीनों गुणोंका अतिक्रमण करके
त्रीन्देही - तीनों, मनुष्य
देहेसमुद्भवान् - देह को उत्पन्न करने वाले
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते - जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थारूप दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है
भावार्थ/Translation
मनुष्य, देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणोंका अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थारूप दुःखों से रहित हुआ अमरताका अनुभव करता है |14.20|
ਮਨੁੱਖ , ਦੇਹ ਨੂੰ ਪੈਦਾ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਇੰਨਾ ਤਿੰਨਾਂ ਗੁਣਾਂ ਦਾ ਉਲੰਘਣ ਕਰਕੇ ਜਨਮ , ਮੌਤ ਅਤੇ ਵ੍ਰਿਧ ਅਵਸਥਾਰੂਪ ਦੁਖਾਂ ਵਲੋਂ ਰਹਿਤ ਹੋਇਆ ਅਮਰਤਾ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਕਰਦਾ ਹੈ |14.20|
The Embodied, Transcending these three qualities, of which the body is born, being freed from sorrows of birth, death and old age attains immortality.|14.20|
।14.21।
अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
अर्जुन उवाच - अर्जुन बोले
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो - इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन लक्षणों से युक्त
भवति - होता है
प्रभो - हे प्रभो
किमाचारः - किस आचरण
कथं - कैसे
चैतांस्रीन्गुणानतिवर्तते - इन तीनों गुणों से अतीत होता है
भावार्थ/Translation
अर्जुन बोले- हे प्रभो, इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन लक्षणों और किस आचरण से युक्त होता है, किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है |14.21|
ਅਰਜੁਨ ਬੋਲਿਆ - ਹੇ ਪ੍ਰਭੋ , ਤਿੰਨਾਂ ਗੁਣਾਂ ਵਲੋਂ ਅਤੀਤ ਪੁਰਖ ਕਿੰਨਾ ਲੱਛਣਾਂ ਅਤੇ ਕਿਸ ਚਾਲ ਚਲਣ ਨਾਲ ਯੁਕਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ , ਕਿਸ ਉਪਾਅ ਨਾਲ ਤਿੰਨਾਂ ਗੁਣਾਂ ਤੋਂ ਅਤੀਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ |14.21|
Arjuna said, What are the qualities and behaviour of the person who has gone beyond these three qualities, and how does he transcends beyond these three qualities.|14.21|
।14.22।
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
श्री भगवानुवाच - श्री भगवान् ने कहा
प्रकाशं - प्रकाश
च प्रवृत्तिं - प्रवृत्ति
च मोहमेव - तथा मोह ये
च पाण्डव - हे पाण्डव
न द्वेष्टि - द्वेष नहीं करता
सम्प्रवृत्तानि न - बढने पर, नहीं
निवृत्तानि - न होने पर
काङ्क्षति - इच्छा करता
भावार्थ/Translation
श्री भगवान् बोले - हे पाण्डव, जो प्रकाश, प्रवृत्ति तथा मोह, इनके बढने पर इनसे द्वेष नहीं करता, और इनके न होने पर इनकी इच्छा नहीं करता |14.22|
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਂਨ ਬੋਲੇ - ਹੇ ਪਾਂਡਵ , ਜੋ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ , ਪ੍ਰਵਿਰਤੀ ਅਤੇ ਮੋਹ , ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਵਧਣ ਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਦਵੇਸ਼ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ , ਅਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਨਾਂ ਹੋਣ ਤੇ ਇਹਨਾਂ ਦੀ ਇੱਛਾ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ |14.22|
Krishna said, O Arjuna, he neither dislikes illumination, activity and delusion when they appear, nor does he long for them when they disappear.|14.22|
।14.23।
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ २३ ॥
शब्दार्थ
उदासीनवदासीनो - उदासीन के समान आसीन होकर
गुणैर्यो न - गुणों के द्वारा, नहीं
विचाल्यते - विचलित होता
गुणा - गुण ही
वर्तन्ते - व्यवहार करते हैं
इत्येव - ऐसा जानकर
योऽवतिष्ठति - स्थित रहता है
नेङ्गते - कोई भी चेष्टा नहीं करता
भावार्थ/Translation
जो उदासीन के समान आसीन होकर गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता और गुण ही व्यवहार करते हैं ऐसा जानकर स्थित रहता है और चेष्टा नहीं करता |14.23|
ਜੋ ਉਦਾਸੀਨ ਦੇ ਸਮਾਨ ਵਿਰਾਜਮਾਨ ਹੋ ਕੇ ਗੁਣਾਂ ਦੇ ਕਾਰਣ ਵਿਚਲਿਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ਅਤੇ ਗੁਣ ਹੀ ਵਰਤਦੇ ਹਨ ਅਜਿਹਾ ਜਾਨਕੇ ਸਥਿਤ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇੱਛਾ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ |14.23|
He, who remains unconcerned and does not get disturbed by the modes of nature, who knows that three qualities are the only ones responsible, and remains firm and does not desire for anything. |14.23|
।14.24।
समदुःखसुखः स्वस्थ समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ २४ ॥
शब्दार्थ
समदुःखसुखः - सुख दुख में समान
स्वस्थ - प्रसन्न
समलोष्टाश्मकाञ्चनः - मिट्टी पत्थर और स्वर्ण में समदृष्टि रखता है
तुल्यप्रियाप्रियो - प्रिय और अप्रिय को तुल्य
धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः - निन्दा और आत्मस्तुति को तुल्य
भावार्थ/Translation
जो प्रसन्न, सुख दुख में समान रहता है तथा मिट्टी पत्थर और स्वर्ण में समदृष्टि रखता है, प्रिय और अप्रिय को तथा निन्दा और आत्मस्तुति को तुल्य समझता है |14.24|
ਜੋ ਖੁਸ਼, ਸੁਖ ਦੁੱਖ ਵਿੱਚ ਸਮਾਨ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਮਿੱਟੀ, ਪੱਥਰ ਅਤੇ ਸੋਨੇ ਵਿੱਚ ਸਮਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਰੱਖਦਾ ਹੈ , ਪਿਆਰੀ ਅਤੇ ਨਾਪਸੰਦ ਚੀਜ ਨੂੰ ਅਤੇ ਨਿੰਦਿਆ ਅਤੇ ਆਤਮਸਤੁਤੀ ਨੂੰ ਬਰਾਬਰ ਸੱਮਝਦਾ ਹੈ |14.24|
Who enjoys in the self, to whom pain, pleasure are alike; to whom lump of earth, stone and gold are alike; to whom pleasant and unpleasant, blame and praise are equal.|14.24|
।14.25।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ २५ ॥
शब्दार्थ
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो - जो मान और अपमान में सम है, में भी सम है
मित्रारिपक्षयोः - शत्रु और मित्र के पक्ष
सर्वारम्भपरित्यागी - सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है
गुणातीतः - गुणातीत
स उच्यते - वह कहा जाता है
भावार्थ/Translation
जो मान और अपमान में सम है, शत्रु और मित्र के पक्ष में भी सम है, सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है, वह गुणातीत कहा जाता है |14.25|
ਜੋ ਮਾਨ ਅਤੇ ਬੇਇੱਜ਼ਤੀ ਵਿੱਚ ਬਰਾਬਰ ਹੈ , ਵੈਰੀ ਅਤੇ ਮਿੱਤਰ ਦੇ ਪੱਖ ਵਿੱਚ ਵੀ ਬਰਾਬਰ ਹੈ , ਸੰਪੂਰਣ ਕਰਮਾਂ ਨੂੰ ਆਰੰਭ ਕਰਣ ਦਾ ਤਿਆਗੀ ਹੈ , ਉਹ ਗੁਣਾਤੀਤ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |14.25|
Who is the same in honour and dishonour, the same to friend and foe, abandoning all initiatives, he is said to have transcended the qualities.|14.25|
।14.26।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतांब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६ ॥
शब्दार्थ
मां च - जो मेरी
योऽव्यभिचारेण - व्यभिचार रहित
भक्तियोगेन - भक्तियोग से
सेवते - सेवा करता है
स गुणान्समतीत्यैतांब्रह्मभूयाय - वह इन गुणों के अतीत होकर ब्रह्म बनने के
कल्पते - योग्य हो जाता है
भावार्थ/Translation
जो व्यभिचार रहित भक्तियोग से मेरी सेवा करता है, वह इन गुणों के अतीत होकर ब्रह्म बनने के योग्य हो जाता है |14.26|
ਜੋ ਵਿਭਚਾਰ ਰਹਿਤ ਭਗਤੀਯੋਗ ਨਾਲ ਮੇਰੀ ਸੇਵਾ ਕਰਦਾ ਹੈ , ਉਹ ਇਨਾਂ ਗੁਣਾਂ ਦੇ ਅਤੀਤ ਹੋ ਕੇ ਬ੍ਰਹਮ ਬਨਣ ਦੇ ਲਾਇਕ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |14.26|
One who engages in my service with full devotional service, unfailing in all circumstances, at once transcends the modes of nature and comes to the level of Brahman.|14.26|
।14.27।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७ ॥
शब्दार्थ
ब्रह्मणो - ब्रह्म
हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च - प्रतिष्ठा हूँ, अमृत, अविनाशी
शाश्वतस्य - शाश्वत
च धर्मस्य - तथा धर्म का
सुखस्यैकान्तिकस्य च - पारमार्थिक सुख
भावार्थ/Translation
क्योंकि उस परब्रह्म, अविनाशी, अमृतमय, शाश्वत, धर्ममय और पारमार्थिक आनन्द की प्रतिष्ठा (आश्रय) मैं ही हूँ |14.27|
ਕਿਉਂਕਿ ਉਸ ਪਰਬ੍ਰਹਮ , ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ , ਅਮ੍ਰਤਮੀ , ਸਦੀਵੀ , ਧਰਮਮਈ ਅਤੇ ਪਰਮਾਰਥਿਕ ਖੁਸ਼ੀ ਦੀ ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਠਾ ( ਸਹਾਰਾ ) ਮੈਂ ਹੀ ਹਾਂ |14.27|
And I am abode of the impersonal Brahman, immortal, imperishable, eternal, position of ultimate happiness. |14.27|
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नामचतुर्दशोऽध्यायः॥14.1-14.27॥
To be Completed by 28th March, 2016 (27 days)
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