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अध्याय तेरह / Chapter Thirteen

।13.1।
अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च |
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ||१||

शब्दार्थ
अर्जुन उवाच - अर्जुन ने कहा
प्रकृतिं - प्रकृति
पुरुषं - पुरुष
चैव - और
क्षेत्रं - क्षेत्र
क्षेत्रज्ञमेव - तथा क्षेत्रज्ञ
च - और
एतद्वेदितुमिच्छामि - मैं जानना चाहता हूँ
ज्ञानं - ज्ञान
ज्ञेयं - ज्ञेय
च - और
केशव - हे केशव
भावार्थ/Translation
   अर्जुन ने कहा - हे केशव, मैं प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय को जानना चाहता हूँ |13.1|

   ਅਰਜੁਨ ਨੇ ਕਿਹਾ - ਹੇ ਕੇਸ਼ਵ,ਮੈਂ ਕੁਦਰਤ ਅਤੇ ਪੁਰਖ, ਖੇਤਰ ਅਤੇ ਖੇਤਰਗਿਅ, ਗਿਆਨ ਅਤੇ ਜਾਨਣ ਯੋਗ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਨੂੰ ਜਾਨਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ |13.1|

   Arjuna said: O Krishna, I wish to know about nature, the enjoyer, and the field and the knower of the field, and of knowledge and the object of knowledge.|13.1|

।13.2।
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौंन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ २ ॥

शब्दार्थ
श्रीभगवानुवाच - श्रीभगवान् बोले
इदं - यह
शरीरं - शरीर को
कौंन्तेय - हे अर्जुन
क्षेत्रमित्यभिधीयते - क्षेत्र कहते हैं
एतद्यो - इस को जो
वेत्ति - जानता है
तं प्राहुः - उसको कहते हैं
क्षेत्रज्ञ - क्षेत्रज्ञ
इति - नामसे
तद्विदः - ज्ञानी

भावार्थ/Translation
   श्रीभगवान् बोले - हे अर्जुन, यह शरीर को क्षेत्र कहते हैं और इस को जो जानता है, उसको ज्ञानी लोग क्षेत्रज्ञ नाम से कहते हैं |13.2|

   ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਂਨ ਬੋਲੇ-ਹੇ ਅਰਜੁਨ,ਇਹ ਸਰੀਰ ਨੂੰ ਖੇਤਰ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਜੋ ਜਾਣਦਾ ਹੈ,ਉਹਨੂੰ ਗਿਆਨੀ ਲੋਕ ਖੇਤਰਗਿਅ ਕਹਿੰਦੇ ਹਣ |13.2|

   The Krishna said, O Arjuna, This body is called the Field. He who knows it is called the Filed-knower, by those who know this.|13.2|

।13.3।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥ ३ ॥

शब्दार्थ
क्षेत्रज्ञं - क्षेत्रज्ञ
चापि मां- मुझे ही
विद्धि - जानो
सर्वक्षेत्रेषु - समस्त क्षेत्रों में
भारत - हे अर्जुन
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं - क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान
यत्तज्ज्ञानं - वही ज्ञान है
मतं - मत है
मम - मेरा

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है |13.3|

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ,ਕੁਲ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿੱਚ ਖੇਤਰਗਿਅ ਮੈਨੂੰ ਹੀ ਜਾਣ ।ਖੇਤਰ ਅਤੇ ਖੇਤਰਗਿਅ ਦਾ ਗਿਆਨ ਹੀ ਗਿਆਨ ਹੈ,ਅਜਿਹਾ ਮੇਰਾ ਮਤ ਹੈ |13.3|

   O Arjuna,know Me as the Field-Knower in all Fields, The knowledge of the Field and its knower is, in My view, the true knowledge.|13.3|

।13.4।
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ॥ ४ ॥

शब्दार्थ
तत्क्षेत्रं - वह क्षेत्र
यच्च - जो है
यादृक्च - जैसा है
यद्विकारि - जिन विकारोंवाला है
यतश्च - जिससे है
यत् - वह
स - तथा
च - भी
यो - क्षेत्रज्ञ भी
यत्प्रभावश्च - जिस प्रभाववाला है
तत्समासेन - वह सब संक्षेप में मे - मेरे से
श्रृणु- सुन

भावार्थ/Translation
   वह क्षेत्र जो है, जैसा है, जिन विकारों वाला है और जिससे है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है, जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से सुन |13.4|

   ਉਹ ਖੇਤਰ ਜੋ ਹੈ,ਜੈਸਾ ਹੈ,ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਵਿਕਾਰਾਂ ਵਾਲਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਹੈ ਅਤੇ ਉਹ ਖੇਤਰਗਿਅ ਵੀ ਜੋ ਹੈ,ਜਿਸ ਪ੍ਰਭਾਵ ਵਾਲਾ ਹੈ,ਉਹ ਸਭ ਸੰਖੇਪ ਵਿੱਚ ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਸੁਣ |13.4|

   Listen from me in brief, What the Field is, how it is, what are its various forms, from what it arises. Also listen about the Field-knower, who he is and what are his powers.|13.4|

।13.5।
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ ५ ॥

शब्दार्थ
ऋषिभिर्बहुधा - ऋषियों द्वारा विस्तार से
गीतं - गाया है
छन्दोभिर्विविधैः - विविध छन्दों में
पृथक् - तथा
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव - ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी
हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः - सम्यक् प्रकार से निश्चित किये हुये

भावार्थ/Translation
   ऋषियों द्वारा विस्तार से और विविध छन्दों में तथा सम्यक् प्रकार से निश्चित किये हुये ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी यह गाया गया है |13.5|

   ਰਿਸ਼ੀਆਂ ਦੁਆਰਾ ਵਿਸਥਾਰ ਨਾਲ ਅਤੇ ਵਿਵਿਧ ਛੰਦਾਂ ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਠੀਕ ਪ੍ਰਕਾਰ ਨਾਲ ਨਿਸ਼ਚਿਤ ਕੀਤੇ ਹੋਏ ਬਰਹਮਸੂਤਰਦੇ ਪਦਾਂ ਵਿੱਚ ਵੀ ਇਹ ਗਾਇਆ ਗਿਆ ਹੈ |13.5|

   It has been sung by seers in various ways, in various distinctive hymns, and also in the well-reasoned and conclusive words of the Brahma-sutras.|13.5|

।13.6।
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ ६ ॥

शब्दार्थ
महाभूतान्यहङ्कारो -महाभूत (पाँच- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश), अहंकार
बुद्धिरव्यक्तमेव च - बुद्धि और प्रकृति भी
इन्द्रियाणि -इन्द्रियाँ
दशैकं - दस, एक मन
च - और
पञ्च - पाँच
चेन्द्रियगोचराः - इन्द्रियों के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध)

भावार्थ/Translation
   पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय |13.6|

   ਪੰਜ ਤੱਤ,ਹੈਂਕੜ,ਬੁੱਧੀ ਅਤੇ ਮੂਲ ਕੁਦਰਤ ਅਤੇ ਦਸ ਇੰਦਰੀਆਂ,ਇੱਕ ਮਨ ਅਤੇ ਪੰਜ ਇੰਦਰੀਆਂਦੇ ਵਿਸ਼ੇ |13.6|

   Five great elements, egoism, intellect, and also the Unmanifested Nature, the ten senses and one (mind), and the five objects of the senses. |13.6|

।13.7।
इच्छा द्वेषः सुखं दुखं सङघातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमदाहृतम् ॥ ७ ॥

शब्दार्थ
इच्छा - इच्छा
द्वेषः - द्वेष
सुखं - सुख
दुखं - दुःख
सङघातश्चेतना - स्थूल देह, चेतना
धृतिः - चेतना
एतत्क्षेत्रं - यह क्षेत्र
समासेन - संक्षेप में
सविकारमदाहृतम्- विकारों के सहित कहा गया

भावार्थ/Translation
   इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देह, चेतना और धृति - इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया |13.7|

   ਇੱਛਾ,ਦਵੇਸ਼,ਸੁਖ,ਦੁੱਖ,ਸਥੂਲ ਦੇਹ,ਚੇਤਨਾ ਅਤੇ ਧੀਰਜ-ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਵਿਕਾਰਾਂਦੇ ਸਹਿਤ ਇਹ ਖੇਤਰ ਸੰਖੇਪ ਵਿੱਚ ਕਿਹਾ ਗਿਆ |13.7|

   Desire, hatred, pleasure, pain, the aggregate (the body), life symptoms and fortitude, the field has thus been briefly described including its defects. |13.7|

।13.8।
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ ८ ॥

शब्दार्थ
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा - मान शून्यता, दम्भाचरण का अभाव, अहिंसा
क्षान्तिरार्जवम - क्षमाभाव, सरलता
आचार्योपासनं - गुरु की सेवा
शौचं - बाहर-भीतर की शुद्धि
स्थैर्यमात्मविनिग्रहः- अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का संयम

भावार्थ/Translation
   मान शून्यता (आत्मश्लाघा रहित), दम्भाचरण का अभाव, अहिंसा, क्षमाभाव, सरलता, गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह |13.8|

   ਆਤਮਸ਼ਲਾਘਾ ਰਹਿਤ,ਦੰਭਾਚਰਣ ਰਹਿਤ,ਅਹਿੰਸਾ,ਖਿਮਾਭਾਵ,ਸਰਲਤਾ,ਗੁਰੂ ਦੀ ਸੇਵਾ,ਬਾਹਰ - ਅੰਦਰ ਦੀ ਸ਼ੁੱਧੀ,ਅੰਤਕਰਣ ਦੀ ਸਥਿਰਤਾ ਅਤੇ ਮਨ - ਇੰਦਰੀਆਂ ਸਹਿਤ ਸਰੀਰ ਦਾ ਸੰਜਮ |13.8|

   Absence of pride, humility, non-injury, forgiveness, simplicity, service of the teacher, purity of mond and body, steadfastness, self-restraint.|13.8|

।13.9।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ ९ ॥

शब्दार्थ
इन्द्रियार्थेषु - इन्द्रियों के विषयों में
वैराग्यमनहङ्कार - वैराग्य, अहंकार शून्यता
एव च - और
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्- जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुःखरूप दोषों को बारबार देखना

भावार्थ/Translation
   इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य,अहंकार शून्यता और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुःखरूप दोषों को बारबार देखना |13.9|

   ਇੰਦਰੀਆਂਦੇ ਮਜ਼ਮੂਨਾਂ ਵਿੱਚ ਵੈਰਾਗ, ਹੈਂਕੜ ਦਾ ਨਾਂ ਹੋਣਾ ਅਤੇ ਜਨਮ,ਮੌਤ,ਬੁਢੇਪਾ ਅਤੇ ਬਿਮਾਰੀਆਂ ਵਿੱਚ ਦੁ:ਖਰੂਪ ਦੋਸ਼ਾ ਨੂੰ ਬਾਰਬਾਰ ਵੇਖਣਾ |13.9|

   Indifference to the objects of the senses, absence of egoism, pondering over evils of birth, death, old age and sickness.|13.9|

।13.10।
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ १० ॥

शब्दार्थ
असक्तिरनभिष्वङ्गः - आसक्ति व एकात्मभाव रहित होना
पुत्रदारगृहादिषु -पुत्र, स्त्री, घर आदि में
नित्यं च - और नित्य
समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु- प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में चित्त का सम रहना

भावार्थ/Translation
   पुत्र, स्त्री, घर आदि में आसक्ति व एकात्मभाव रहित होना और प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना |13.10|

   ਪੁੱਤ,ਇਸਤਰੀ,ਘਰ ਆਦਿ ਵਿੱਚ ਆਸਕਤੀ ਅਤੇ ਏਕਾਤਮਭਾਵ ਰਹਿਤ ਹੋਣਾ ਅਤੇ ਪਸੰਦ ਅਤੇ ਨਾਪਸੰਦ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਵਿੱਚ ਹਮੇਸ਼ਾ ਹੀ ਚਿੱਤ ਦਾ ਬਰਾਬਰ ਰਹਿਨਾ |13.10|

   Non-attachment, absence of fondness with children, wife and home and constant equal-mindedness on attainment of desirable and undesirable.|13.10|

।13.11।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥ ११ ॥

शब्दार्थ
मयि - मेरे में
चानन्ययोगेन - अनन्ययोग के द्वारा
भक्तिरव्यभिचारिणी - अव्यभिचारिणी भक्ति
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि - एकान्त स्थानमें रहनेका स्वभाव, जन समुदाय में प्रीति का न होना

भावार्थ/Translation
   मेरे में अनन्ययोग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहनेका स्वभाव होना और जन समुदाय में प्रीति का न होना |13.11|

   ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਅਤੁੱਟ ਭਗਤੀ ਦਾ ਹੋਣਾ,ਇਕਾਂਤ ਥਾਂ ਤੇ ਰਹਿਣ ਦਾ ਸੁਭਾਅ ਅਤੇ ਇਕੱਠ ਤੋਂ ਗੁਰੇਜ |13.11|

   An unswerving devotion towards Me, with the Yoga of non-difference; resorting to solitary place; distaste for a crowd of people.|13.11|

।13.12।
अध्यात्मज्ञाननित्त्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा ॥ १२ ॥

शब्दार्थ
अध्यात्मज्ञाननित्त्यत्वं - अध्यात्मज्ञानमें नित्य निरन्तर रहना
तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् - तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना
एतज्ज्ञानमिति - यह तो ज्ञान है
प्रोक्तमज्ञानं - वह अज्ञान है
यदतोन्यथा- जो इसके विपरीत है

भावार्थ/Translation
   अध्यात्मज्ञानमें नित्य निरन्तर रहना, तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्मा को देखना, यह तो ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है |13.12|

   ਅਧਿਆਤਮ ਗਿਆਨ ਵਿੱਚਨਿੱਤਨਿਰੰਤਰ ਰਹਿਨਾ,ਤੱਤਵ ਗਿਆਨ ਦੇ ਅਰਥਰੂਪ ਈਸਵਰ ਨੂੰ ਵੇਖਣਾ,ਇਹ ਤਾਂ ਗਿਆਨ ਹੈ ਅਤੇ ਜੋ ਇਸਦੇ ਵਿਪਰੀਤ ਹੈ ਉਹ ਅਗਿਆਨ ਹੈ |13.12|

   Steadfastness in the knowledge of the Self, contemplation on the real goal of the knowledgeis spoken of as Knowledge. Other than this is ignorance.|13.12|

।13.13।
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्य्ते ॥ १३ ॥

शब्दार्थ
ज्ञेयं - जानने योग्य है
यत्तत्प्रवक्ष्यामि - उस को मैं अच्छी तरह से कहूँगा
यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते - जिसको जानकर अमरता का अनुभव होता है
अनादिमत्परं - अनादि और परम
ब्रह्म न - ब्रह्म है, न
सत्तन्नासदुच्य्ते - सत् और न असत् ही कहते है

भावार्थ/Translation
   जो जानने योग्य है, जिसको जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है, उस को मैं अच्छी तरहसे कहूँगा। वह अनादि और परम ब्रह्म है। उसको न सत् और न असत् ही कहते है |13.13|

   ਜੋ ਜਾਣਨ ਲਾਇਕ ਹੈ,ਜਿਸਨੂੰ ਜਾਨ ਕੇ ਮਨੁੱਖ ਅਮਰਤਾ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ,ਉਸ ਨੂੰ ਮੈਂ ਚੰਗੀ ਤਰਾੰ ਨਾਲ ਕਹਾਂਗਾ ।ਉਹ ਅਨਾਦਿ ਅਤੇ ਪਰਮ ਬ੍ਰਹਮ ਹੈ ।ਉਸ ਨੂੰ ਨ ਸਤ ਅਤੇ ਨ ਅਸਤ ਹੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਣ |13.13|

   I shall describe that which is to be known, by knowing which one attains freedom from death: beginningless is the Supreme Brahman; It is said to be neither existent nor non-existent.|13.13|

।13.14।
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १४ ॥

शब्दार्थ
सर्वतः - सब जगह
पाणिपादं - हाथ-पैर
तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् - सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला
सर्वतः - सब ओर
श्रुतिमल्लोके - कान वाला है, संसार में
सर्वमावृत्य - सबको व्याप्त करके
तिष्ठति - स्थित है

भावार्थ/Translation
   वह सब जगह हाथ-पैर, सब ओर नेत्र, सिर और मुख तथा सब ओर कान वाला है, वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है |13.14|

   ਉਹ ਸਭ ਜਗ੍ਹਾ ਹੱਥ - ਪੈਰ,ਸਭ ਪਾਸੇ ਅੱਖਾਂ,ਸਿਰ ਅਤੇ ਮੂੰਹ ਅਤੇ ਸਭ ਵੱਲ ਕੰਨ ਵਾਲਾ ਹੈ,ਉਹ ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚ ਸਾਰਿਆ ਨੂੰ ਵਿਆਪਤ ਕਰਕੇ ਸਥਿਤ ਹੈ |13.14|

   That has hands, feet, eyes, heads and mouths everywhere, which has ears everywhere, exists by pervading everything in the universe.|13.14|

।13.15।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गणं गुणभोक्तृ च ॥ १५ ॥

शब्दार्थ
सर्वेन्द्रियगुणाभासं - सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों का प्रकाशक है
सर्वेन्द्रियविवर्जितम् - सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित हैं
असक्तं - आसक्ति रहित है
सर्वभृच्चैव - और सब का भरणपोषण करने वाले हैं
निर्गुणं - गुणों से रहित हैं
गुणभोक्तृ च - और गुणोंके भोक्ता हैं

भावार्थ/Translation
   सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों का प्रकाशक है, सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित है, आसक्ति रहित है और सब का भरणपोषण करने वाला है, गुणों से रहित हैं और गुणों का भोक्ता है |13.15|

   ਸੰਪੂਰਣ ਇੰਦਰੀਆਂਦੇ ਮਜ਼ਮੂਨਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਕ ਹੈ,ਸੰਪੂਰਣ ਇੰਦਰੀਆਂ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਹੈ,ਆਸਕਤੀ ਰਹਿਤ ਹੈ ਅਤੇ ਸਭ ਦਾ ਭਰਣਪੋਸ਼ਣ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਹੈ,ਗੁਣਾਂ ਵਲੋਂ ਰਹਿਤ ਹੈ ਅਤੇ ਗੁਣਾਂ ਦਾ ਭੋਕਤਾ ਹੈ |13.15|

   It causes all the sense-qualities to shine; It is without any sense-organ, unattached, yet supporting the whole mankind; It is free from the modes of nature, yet he is master of all the qualities of nature.|13.15|

।13.16।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मात्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ १६ ॥

शब्दार्थ
बहिरन्तश्च - बाहर भीतर
भूतानामचरं - सम्पूर्ण प्राणियों के, चर
चरमेव च - अचर के रूप में भी
सूक्ष्मात्वात्तदविज्ञेयं - अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे जाननेका विषय नहीं हैं
दूरस्थं - दूर से दूर
चान्तिके - नजदीक से नजदीक
च तत् - वे ही हैं

भावार्थ/Translation
   वे सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर भीतर हैं और चर अचर प्राणियों के रूप में भी वे ही हैं, एवं दूर से दूर तथा नजदीक से नजदीक भी वे ही हैं। वे अत्यन्त सूक्ष्म होने से जानने का विषय नहीं हैं |13.16|

   ਉਹ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂਦੇ ਬਾਹਰ ਅੰਦਰ ਹੈ ਅਤੇ ਚਰ ਅਚਰ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਵੀ ਉਹ ਹੀ ਹੈ,ਅਤੇ ਦੂਰੋਂ ਦੂਰ ਅਤੇ ਨਜਦੀਕ ਤੋਂ ਨਜਦੀਕ ਵੀ ਉਹ ਹੀ ਹੈ ।ਉਹ ਅਤੀ ਸੂਖਮ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਜਾਣਨ ਦਾ ਵਿਸ਼ਾ ਨਹੀਂ ਹੈ |13.16|

   He is without and within every being and is unmoving and moving too, he is farthest as well as nearest, due to His subtle nature, He is incomprehensible.|13.16|

।13.17।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥ १७ ॥

शब्दार्थ
अविभक्तं - अविभक्त
च भूतेषु - होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों में
विभक्तमिव - विभक्त प्रतीत होता है
च स्थितम् - प्रतीत होता है
भूतभर्तृ - प्राणियों का भरण पोषण करने वाले
च तज्ज्ञेयं - वे जानने योग्य परमात्मा ही
ग्रसिष्णु - संहार करने वाले
प्रभविष्णु च - उत्पन्न करने वाले

भावार्थ/Translation
   अविभक्त होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों में विभक्त प्रतीत होता है। वे जानने योग्य परमात्मा ही प्राणियों का भरण पोषण करने वाले, संहार करने वाले व उत्पन्न करने वाले हैं |13.17|

   ਅਣਵੰਡਿਆ ਹੁੰਦੇ ਹੋਏ ਵੀ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਵਿੱਚ ਵੰਡਿਆ ਪ੍ਰਤੀਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।ਉਹ ਜਾਣਨ ਲਾਇਕ ਈਸਵਰ ਹੀ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਦਾ ਪਾਲਣ ਪੋਸ਼ਣ ਕਰਣ ਵਾਲਾ,ਸੰਹਾਰ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਅਤੇ ਪੈਦਾ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਹੈ |13.17|

   And the Knowable, though undivided, appears to be existing as divided in all beings, and He is the sustainer of all beings as also the devourer and originator.|13.17|

।13.18।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥ १८ ॥

शब्दार्थ
ज्योतिषामपि - ज्योतियों का भी
तज्ज्योतिस्तमसः - ज्योति और अन्धकार से
परमुच्यते - अत्यन्त परे कहा गया है
ज्ञानं ज्ञेयं - ज्ञानस्वरूप, जानने योग्य
ज्ञानगम्यं - ज्ञान से प्राप्त करने योग्य
हृदि - हृदय में
सर्वस्य - सबके
विष्ठितम् - विराजमान है

भावार्थ/Translation
   वह ज्योतियों का भी ज्योति और अन्धकार से अत्यन्त परे कहा गया है। वह ज्ञानस्वरूप, जाननेयोग्य, ज्ञान से प्राप्त करनेयोग्य और सबके हृदय में विराजमान है |13.18|

   ਉਹ ਜੋਤੀਯਾਂ ਦੀ ਵੀ ਜੋਤੀ ਅਤੇ ਹਨੇਰੇ ਤੋਂ ਅਤਿਅੰਤ ਪਰੇ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ ।ਉਹ ਗਿਆਨਸਰੂਪ,ਜਾਨਨਯੋਗ,ਗਿਆਨ ਨਾਲ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨੇਯੋਗ ਅਤੇ ਸਭਦੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿੱਚ ਵਿਰਾਜਮਾਨ ਹੈ |13.18|

   The light of all lights, is said to be beyond darkness. He is known to be knowledge, first to be known and is to be attained by knowledge. He is present in the heart of all.|13.18|

।13.19।
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १९ ॥

शब्दार्थ
इति क्षेत्रं - इस प्रकार क्षेत्र
तथा ज्ञानं - ज्ञान और
ज्ञेयं चोक्तं - ज्ञेय को कहा गया
समासतः - संक्षेप से
मद्भक्त - मेरा भक्त
एतद्विज्ञाय - इस को तत्त्व से जानकर
मद्भावायोपपद्यते - मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है

भावार्थ/Translation
   इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेयको संक्षेप से कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्त्व से जानकर मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है |13.19|

   ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਖੇਤਰ,ਗਿਆਨ ਅਤੇ ਜਾਨਣ ਯੋਗ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਨੂੰ ਸੰਖੇਪ ਵਿੱਚ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ।ਮੇਰਾ ਭਗਤ ਇਸਨ੍ਹੂੰ ਤੱਤਵ ਨਾਲ ਜਾਨਕੇ ਮੇਰੇ ਭਾਵ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |13.19|

   Thus the field, as well as knowledge and the knowable have been briefly stated. My devotee, knowing this, attain My state of Being.|13.19|

।13.20।
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादि उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥ २० ॥

शब्दार्थ
प्रकृतिं - प्रकृति
पुरुषं - पुरुष
चैव -और
विद्धयनादि -अनादि जानो
उभावपि - दोनों को
विकारांश्च - विकार और
गुणांश्चैव - गुण
विद्धि - जानो
प्रकृतिसम्भवान् - प्रकृति से ही उत्पन्न

भावार्थ/Translation
   प्रकृति और पुरुष इन दोनों को ही तुम अनादि जानो, औरविकार और गुण प्रकृति से ही उत्पन्न जानो |13.20|

   ਕੁਦਰਤ ਅਤੇ ਪੁਰਖ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੋਨਾਂ ਨੂੰ ਹੀ ਤੂੰ ਅਨਾਦਿ ਜਾਣ,ਅਤੇਵਿਕਾਰ ਅਤੇ ਗੁਣ, ਕੁਦਰਤ ਵਲੋਂ ਹੀ ਪੈਦਾ ਜਾਣ |13.20|

   Know nature and the self to be beginningless. All transformations and the modes of matter are products of nature.|13.20|

।13.21।
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ २१ ॥

शब्दार्थ
कार्यकरणकर्तृत्वे - कार्य और कारण के उत्पन्न करने में
हेतु: प्रकृतिरुच्यते - हेतु प्रकृति कही जाती है
पुरुषः - पुरुष
सुखदुःखानां - सुख दुख के
भोक्तृत्वे - भोक्तापनमें
हेतुरुच्यते - हेतु कहा जाता है

भावार्थ/Translation
   कार्य और कारण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरुष सुख दुख के भोक्तापनमें हेतु कहा जाता है |13.21|

   ਕਾਰਜ ਅਤੇ ਕਾਰਨਦੇ ਪੈਦਾ ਕਰਣ ਵਿੱਚ ਹੇਤੁ ਕੁਦਰਤ ਕਹੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਪੁਰਖ ਸੁਖ ਦੁੱਖਦੇ ਭੋਕਤਾਪਨ ਦਾ ਕਾਰਣ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |13.21|

   Nature is said to be the basis of all material causes and effects, whereas the living entity is the basis of the experience of sufferings and enjoyments.|13.21|

।13.22।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुड़्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसड़्गोस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ २२ ॥

शब्दार्थ
पुरुषः - पुरुष
प्रकृतिस्थो - प्रकृति में स्थित
हि भुड़्क्ते - भोगता है
प्रकृतिजान्गुणान् - प्रकृति से उत्पन्न गुणों को
कारणं - कारण है
गुणसड़्गोस्य - इन गुणों का संग ही इस के
सदसद्योनिजन्मसु - शुभ और अशुभ योनियों में जन्म लेने का

भावार्थ/Translation
   प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न गुणों को भोगता है। इन गुणों का संग ही इस के शुभ और अशुभ योनियों में जन्म लेने का कारण है |13.22|

   ਕੁਦਰਤ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਪੁਰਖ ਕੁਦਰਤ ਤੋਂ ਪੈਦਾ ਗੁਣਾਂ ਨੂੰ ਭੋਗਦਾ ਹੈ ।ਇਨਾਂ ਗੁਣਾਂ ਦਾ ਸਾਥ ਹੀ ਇਸਦੇ ਚੰਗੀ ਅਤੇ ਬੁਰੀ ਯੋਨੀਆਂ ਵਿੱਚ ਜਨਮ ਲੈਣ ਦਾ ਕਾਰਣ ਹੈ |13.22|

   Soul is situated in Nature, experiences the qualities born of Nature. Contact with the qualities is the cause of its births in good and evil wombs.|13.22|

।13.23।
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥ २३ ॥

शब्दार्थ
उपद्रष्टानुमन्ता च - साक्षी,अनुमति देने वाला
भर्ता - पालक
भोक्ता - भोक्ता
महेश्वरः - महेश्वर
परमात्मेति - परमात्मा
चाप्युक्तो - कहा जाता है
देहेऽस्मिन्पुरुषः - देह में पुरुष
परः - परम

भावार्थ/Translation
   यह देह में परम पुरुष साक्षी,अनुमति देने वाला,पालक, भोक्ता,महेश्वर और परमात्मा कहा जाता है |13.23|

   ਇਹ ਦੇਹ ਵਿੱਚ ਪਰਮ ਪੁਰਖ, ਗਵਾਹ, ਇਜਾਜਤਦੇਣ ਵਾਲਾ, ਪਾਲਕ,ਭੋਕਤਾ, ਪਰਮੇਸ਼ਵਰ ਅਤੇ ਈਸਵਰ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |13.23|

   The Supreme Soul in this body is also called the spectator, the permitter, the supporter, the enjoyer, the great Lord and the Supreme Self.|13.23|

।13.24।
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ २४ ॥

शब्दार्थ
य एवं - इस प्रकार
वेत्ति - जानता है
पुरुषं - पुरुष
प्रकृतिं - प्रकृति
च गुणैः - और गुणों के
सह - सहित
सर्वथा - सब प्रकार से
वर्तमानोऽपि - बर्ताव करता हुआ भी
न स - वह नहीं
भूयोऽभिजायते - फिर जन्म लेता

भावार्थ/Translation
   इस प्रकार पुरुष और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य जानता है, वह सब प्रकार से बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता |13.24|

   ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਪੁਰਖ ਅਤੇ ਗੁਣਾਂਦੇ ਸਹਿਤ ਕੁਦਰਤ ਨੂੰ ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਜਾਣਦਾ ਹੈ,ਉਹ ਸਭ ਪ੍ਰਕਾਰ ਨਾਲ ਵਰਤਾਓ ਕਰਦਾ ਹੋਇਆ ਵੀ ਫਿਰ ਜਨਮ ਨਹੀਂ ਲੈਂਦਾ |13.24|

   So those, who know the nature along with its qualities and the super soul, does not take birth again, even if they live and behave like any other person.|13.24|

।13.25।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ २५ ॥

शब्दार्थ
ध्यानेनात्मनि - ध्यान से, अपने आप में
पश्यन्ति - अनुभव करते हैं
केचिदात्मानमात्मना - कई अपने आप से, परमात्मा का
अन्ये - कई
साङ्ख्येन - सांख्य
योगेन - योग के द्वारा
कर्मयोगेन - कर्मयोगके द्वारा
चापरे - और कई

भावार्थ/Translation
   कई मनुष्य ध्यान से, कई सांख्य योग के द्वारा और कई कर्मयोग के द्वारा अपने आप से अपने आप में परमात्मा का अनुभव करते हैं |13.25|

   ਕਈ ਮਨੁੱਖ ਧਿਆਨ ਨਾਲ,ਕਈ ਸਾਂਖਇ ਯੋਗਨਾਲ ਅਤੇ ਕਈ ਕਰਮਯੋਗਨਾਲ ਆਪਣੇ ਆਪ,ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿੱਚ ਈਸਵਰ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਕਰਦੇ ਹਣ |13.25|

   Some by meditation behold the Supreme in the self by the self, others by the Yoga of knowledge, and still others by the Yoga of action.|13.25|

।13.26।
अन्ये त्वेवमजान्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥ २६ ॥

शब्दार्थ
अन्ये - अन्य लोग
त्वेवमजान्तः - इस प्रकार न जानते हुए
श्रुत्वान्येभ्य - दूसरों से सुनकर ही
उपासते - उपासना करते हैं
तेऽपि - वे भी
चातितरन्त्येव - निसन्देह तर जाते हैं
मृत्युं - मृत्यु को
श्रुतिपरायणाः - सुनने के परायण

भावार्थ/Translation
   अन्य लोग जो इस प्रकार न जानते हुए, दूसरों से सुनकर ही उपासना करते हैं, वे सुनने के परायण लोग भी मृत्यु को निसन्देह तर जाते हैं |13.26|

   ਹੋਰ ਲੋਕ ਜੋ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਨਹੀਂ ਜਾਣਦੇ ਹੋਏ,ਦੂਸਰਿਆਂ ਤੋਂ ਸੁਣ ਕੇ ਹੀ ਉਪਾਸਨਾ ਕਰਦੇ ਹਨ,ਉਹ ਲੋਕ ਵੀ ਸੁਣਨਦੀ ਮਨੋਵਿਰਤੀ ਹੋਣ ਸਦਕਾਂ,ਮੌਤ ਤੋਂ ਨਿਸੰਦੇਹ ਤਰ ਜਾਂਦੇ ਹਣ |13.26|

   Others, who do not know this, and worship after listening from others, those devoted to hearing also overcome and pass beyond death.|13.26|

।13.27।
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥ २७ ॥

शब्दार्थ
यावत्सञ्जायते - जितने भी, पैदा होते हैं
किञ्चित्सत्त्वं - प्राणी
स्थावरजङ्गमम् - थलचर नभचर, जलचर
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि - क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए समझो
भरतर्षभ - हे अर्जुन

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, थलचर नभचर, जलचर जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, उनको क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए समझो |13.27|

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ,ਜਮੀਨ,ਪਾਣੀ ਅਤੇ ਆਕਾਸ਼ ਵਿੱਚ ਜਿੰਨੇ ਵੀ ਪ੍ਰਾਣੀ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੇ ਹਨ,ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਖੇਤਰ ਅਤੇ ਖੇਤਰਗਿਅਦੇ ਸੰਜੋਗ ਤੋਂ ਪੈਦਾ ਹੋਏ ਸਮੱਝ |13.27|

   O Arjuna, All the living beings that take birth on earth, water and sky, know that to be from the association of the field and the Knower of the field.|13.27|

।13.28।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २८ ॥

शब्दार्थ
समं - समरूप से
सर्वेषु - समस्त
भूतेषु - प्राणियों में
तिष्ठन्तं - स्थित
परमेश्वरम् - परमात्मा को
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं - नश्वर में अनश्वर
यः पश्यति - जो देखता है
स पश्यति - वही देखता है

भावार्थ/Translation
   जो समस्त नश्वर प्राणियों में परमात्मा को अनश्वर और समरूप से स्थित देखता है, वहीदेखता है |13.28|

   ਜੋ ਸਾਰੇ ਨਸ਼ਵਰ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਵਿੱਚ ਈਸਵਰ ਨੂੰ ਅਟਲ ਅਤੇ ਸਮਰੂਪਵੇਖਦਾ ਹੈ,ਉਹੀਵੇਖਦਾ ਹੈ |13.28|

   He sees: who sees the supreme Lord as existing equally in all beings, and as the Imperishable among the perishable.|13.28|

।13.29।
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २९ ॥

शब्दार्थ
समं - समरूप से
पश्यन्हि - देखने वाला
सर्वत्र -सब जगह
समवस्थितमीश्वरम् - समरूप से स्थित ईश्वरको
न हिनस्त्यात्मनात्मानं - अपने आपसे अपना बुरा नहीं करता
ततो याति - इसलिये वह
परां गतिम् - परमगति पाता है

भावार्थ/Translation
   सब जगह समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखने वाला मनुष्य अपने आप से अपना बुरा नहीं करता, इसलिये वह परमगति पाता है |13.29|

   ਸਭ ਜਗ੍ਹਾ ਸਮਰੂਪ ਸਥਿਤ ਈਸ਼ਵਰ ਨੂੰ ਸਮਰੂਪ ਦੇਖਣ ਵਾਲਾ ਮਨੁੱਖ ਆਪਣੇਆਪ, ਆਪਣਾ ਭੈੜਾ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ,ਇਸ ਲਈ ਉਹ ਪਰਮਗਤੀ ਪਾਉਂਦਾ ਹੈ |13.29|

   Whosoever, perceiving the Lord as abiding in all alike, does not harm the Self by the Self, he attains the Supreme Goal.|13.29|

।13.30।
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ ३० ॥

शब्दार्थ
प्रकृत्यैव - प्रकृति के द्वारा
च कर्माणि - सम्पूर्ण क्रियाओं को
क्रियमाणानि - की जाती हुई
सर्वशः - सब प्रकार से
यः पश्यति - देखता है
तथात्मानमकर्तारं - अपने आपको अकर्ता देखता
स पश्यति - वहीदेखता है

भावार्थ/Translation
   जो सम्पूर्ण क्रियाओं को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही की जाती हुई देखता है और अपने आपको अकर्ता देखताहै, वही यथार्थ देखता है |13.30|

   ਜੋ ਸੰਪੂਰਣ ਕਿਰਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਸਭ ਤਰਾਂ ਨਾਲ ਕੁਦਰਤ ਦੁਆਰਾ ਕੀਤਾ ਵੇਖਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਅਕਰਤਾ ਵੇਖਦਾਹੈ,ਉਹੀ ਅਸਲ ਵੇਖਦਾ ਹੈ |13.30|

   He sees: who sees that all actions are performed by Nature alone and that the Self is actionless.|13.30|

।13.31।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३१ ॥

शब्दार्थ
यदा - जब
भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति - प्राणियों के अलगअलग भावों को एक में ही स्थित देखता है
तत एव च - और उस से ही
विस्तारं - विस्तार देखता है
ब्रह्म - ब्रह्म को
सम्पद्यते - प्राप्त हो जाता है
तदा - तब

भावार्थ/Translation
   जब साधक प्राणियों के अलगअलग भावों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है और उस प्रकृति से ही उनका विस्तार देखता है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है |13.31|

   ਜਦੋਂ ਸਾਧਕ ਪ੍ਰਾਣੀਯਾਂ ਦੇ ਅਲੱਗ ਅਲੱਗ ਭਾਵਾਂ ਨੂਂ ਇੱਕ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਤੀ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਵੇਖਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਉਸ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਤੀ ਤੋਂ ਹੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਵਿਸਥਾਰ ਵੇਖਦਾ ਹੈ,ਤੱਦ ਉਹ ਬ੍ਰਹਮਾ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |13.31|

   When one realizes that the state of diversity of living things is rooted in the One, and that their manifestation is also from That, then one becomes identified with Brahman.|13.31|

।13.32।
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ ३२ ॥

शब्दार्थ
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः - अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा
शरीरस्थोऽपि - शरीर में स्थित होने पर भी
कौन्तेय - हे अर्जुन
न करोति - न कुछ करता है
न लिप्यते - न लिप्त होता है

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी, न कुछ करता है और न लिप्त होता है |13.32|

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ,ਬ੍ਰਹਮ ਹੋਣ ਨਾਲ ਅਤੇ ਨਿਰਗੁਣ ਹੋਣ ਨਾਲ ਇਹ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਈਸਵਰ ਸਰੀਰ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹੋਣ ਤੇ ਵੀ,ਨਾਂ ਕੁੱਝ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾਂ ਲਿਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ |13.32|

   O Arjuna, Being without beginning and devoid of qualities of nature, the Supreme Self, imperishable, though dwelling in the body, neither acts nor is tainted.|13.32|

।13.33।
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ ३३ ॥

शब्दार्थ
यथा - जैसे
सर्वगतं - सब जगह व्याप्त
सौक्ष्म्यादाकाशं - आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से
नोपलिप्यते - कहीं भी लिप्त नहीं होता
सर्वत्रावस्थितो - सब जगह परिपूर्ण
देहे - देह में
तथात्मा - ऐसे ही आत्मा
नोपलिप्यते - लिप्त नहीं होता

भावार्थ/Translation
   जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होता |13.33|

   ਜਿਵੇਂ ਸਭ ਜਗ੍ਹਾ ਫੈਲਿਆ ਅਕਾਸ਼, ਅਤਿਅੰਤ ਸੂਖਮ ਹੋਣ ਤੇ, ਕਿਤੇ ਵੀ ਲਿਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ,ਇੰਜ ਹੀ ਸਭ ਜਗ੍ਹਾ ਪਰਿਪੂਰਣ ਆਤਮਾ ਕਿਸੇ ਵੀ ਦੇਹ ਵਿੱਚ ਲਿਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ |13.33|

   The sky, due to its subtle nature, does not mix with anything, although it is all-pervading. Similarly, the soul being all-pervading does not mix with the body.|13.33|

।13.34।
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ ३४ ॥

शब्दार्थ
यथा - जैसे
प्रकाशयत्येकः - एक ही प्रकाशित करता है
कृत्स्नं - सम्पूर्ण
लोकमिमं - संसारको
रविः - सूर्य
क्षेत्रं - क्षेत्र को
क्षेत्री - क्षेत्रज्ञ
तथा - ऐसे ही
कृत्स्नं - सम्पूर्ण
प्रकाशयति -प्रकाशित करता है
भारत - हे अर्जुन

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, जैसे एक ही सूर्य सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता है, ऐसे ही क्षेत्रज्ञ सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है |13.34|

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ,ਜਿਵੇਂ ਇੱਕ ਹੀ ਸੂਰਜ ਸੰਪੂਰਣ ਸੰਸਾਰ ਨੂੰ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਕਰਦਾ ਹੈ,ਇੰਜ ਹੀ ਖੇਤਰਗਿਅ ਸੰਪੂਰਣ ਖੇਤਰ ਨੂੰ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਕਰਦਾ ਹੈ |13.34|

   O Arjuna, As the single sun illumines this whole world, similarly, the Knower of the field illumines the whole field.|13.34|

।13.35।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३५ ॥

शब्दार्थ
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं - क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके अन्तर को
ज्ञानचक्षुषा - ज्ञानरूपी नेत्र से
भूतप्रकृतिमोक्षं - प्रकृति के विकारों से स्वयं को अलग जानते हैं
च ये - जो
विदुर्यान्ति ते - जानते हैं, प्राप्त हो जाते हैं
परम् - परमात्माको

भावार्थ/Translation
   इस प्रकार जो ज्ञानरूपी नेत्र से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अन्तर को तथा प्रकृति के विकारों से स्वयं को अलग जानते हैं, वे परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं |13.35|

   ਇਸ ਤਰਾੰ ਜੋ ਗਿਆਨਰੂਪੀ ਨੇਤਰ ਨਾਲ ਖੇਤਰ ਅਤੇ ਖੇਤਰਗਿਅਦੇ ਫਰਕ ਨੂੰ ਅਤੇ ਕੁਦਰਤਦੇ ਵਿਕਾਰਾਂ ਤੋਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਵੱਖ ਜਾਣਦੇ ਹਨ,ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਣ|13.35|

   Those who see with eyes of knowledge the difference between the body and the knower of the body, and also know the liberation from bondage of nature, attain to the supreme goal.|13.35|


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥13.1-13.35॥

To be Completed by 1st March, 2016 (35 days)

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