अध्याय पन्हद्रह / Chapter Fifteen
।15.1।
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमध: शाखमश्वतथं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १
शब्दार्थ
श्री भगवानुवाच - श्री भगवान् बोले
ऊर्ध्वमूलमध: - ऊपर की ओर मूल तथा नीचे की ओर
शाखमश्वतथं - शाखा , पीपल वृक्ष
प्राहुरव्ययम् - अविनाशी कहते हैं
छन्दांसि - छन्द
यस्य - जिसके
पर्णानि - पत्ते हैं
यस्तं - उस को
वेद स - जानता है
वेदवित् - वह वेदों को जानता है
भावार्थ/Translation
श्री भगवान् बोले - ऊपर की ओर मूल तथा नीचे की ओर शाखा वाले जिस पीपल वृक्ष को अविनाशी कहते हैं और छन्द जिसके पत्ते हैं, उस वृक्ष को जो जानता है, वह वेदों को जानता है |15.1|
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨ ਬੋਲੇ - ਉੱਤੇਦੇ ਵੱਲ ਜੜ ਅਤੇ ਹੇਠਾਂਦੇ ਵੱਲ ਟਹਿਣੀਆਂ ਵਾਲੇ ਜਿਸ ਪਿੱਪਲ ਦੇ ਰੁੱਖ ਨੂੰ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਛੰਦ ਜਿਸਦੇ ਪੱਤੇ ਹਨ ,ਉਸ ਰੁੱਖ ਨੂੰ ਜੋ ਜਾਣਦਾ ਹੈ ,ਉਹ ਵੇਦਾਂ ਨੂੰ ਜਾਣਦਾ ਹੈ |15.1|
Krishna said, imperishable banyan tree having roots upward and branches downward and whose leaves are the hymns. One who knows this tree is the knower of the Vedas.|15.1|
।15.2।
अधश्चोध्वँ प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला: ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततान कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥ २ ॥
शब्दार्थ
अधश्चोध्वँ - नीचे और ऊपर
प्रसृतास्तस्य - फैली हुई हैं
शाखा - शाखाएँ
गुणप्रवृद्धा - गुणों के द्वारा बढ़ी हुई
विषयप्रवाला: - विषयरूप कोंपलों वाली
अधश्च - भी नीचे
मूलान्यनुसन्ततान - मूल भी नीचे व्याप्त हो रहे हैं
कर्मानुबन्धीनि - कर्मों के अनुसार बाँधने वाले
मनुष्यलोके- मनुष्यलोक में
भावार्थ/Translation
उस संसार वृक्ष की गुणों के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषयरूप कोंपलों वाली शाखाएँ नीचे और ऊपर फैली हुई हैं। मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाली जङेनीचे भी व्याप्त हो रही हैं |15.2|
ਉਸ ਸੰਸਾਰ ਰੁੱਖ ਦੀ ਗੁਣਾਂਦੇ ਨਾਲ ਵਧੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਅਤੇ ਵਿਸ਼ੇਰੂਪੀ ਨਵੇਂ ਪਤਿਂਆਂ ਵਾਲੀਆਂ ਸ਼ਾਖ਼ਾਵਾਂ ਹੇਠਾਂ ਅਤੇ ਉੱਤੇ ਫੈਲੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਹਨ ।ਮਨੁੱਖ ਲੋਕ ਵਿੱਚ ਕਰਮਾਂਦੇ ਅਨੁਸਾਰ ਬੰਨ੍ਹਣ ਵਾਲੀਆਂ ਜੜਾਂਹੇਠਾਂ ਵੀ ਵਿਆਪਤ ਹੋ ਰਹੀਆਂ ਹਨ |15.2|
The twigs of this tree in the form of sense objects extend downward and upward, nourished by the three modes of material nature. This tree has roots going down, bound to the fruitive actions of human society.|15.2|
।15.3।
न रुपमस्येह तथोपलभ्यतेनान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरुढमूल–मसङगशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ ३ ॥
शब्दार्थ
न रुपमस्येह - जैसा रूप है, नहीं
तथोपलभ्यते - वैसा यहाँमिलता
नान्तो न - न अन्त है, न
चादिर्न - तो आदि है, और न
च सम्प्रतिष्ठा - स्थिति ही है
अश्वत्थमेनं - इस पीपल वृक्ष
सुविरुढमूल - दृढ़ मूलों वाले
मसङगशस्त्रेण - असङ्गतारूप शस्त्रके द्वारा
दृढेन - दृढ़
छित्त्वा- काटकर
भावार्थ/Translation
इस का जैसा रूप है, वैसा यहाँमिलता नहीं क्योंकि इसका न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है। इसलिये इस दृढ़ मूलों वाले पीपल वृक्ष को दृढ़ असङ्गतारूप शस्त्रके द्वारा काटकर |15.3|
ਇਸ ਦਾ ਜੈਸਾ ਰੂਪ ਹੈ ,ਉਹੋ ਜਿਹਾ ਇੱਥੇਮਿਲਦਾ ਨਹੀਂ ਕਿਉਂਕਿ ਇਸਦਾ ਨਾਂ ਤਾਂ ਆਦਿ ਹੈ ,ਨਾਂ ਅੰਤ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾਂ ਆਧਾਰ ਹੀ ਹੈ ।ਇਸ ਲਈ ਇਸ ਪੱਕੀਆਂ ਜੜਾਂ ਵਾਲੇ ਪਿੱਪਲ ਰੁੱਖ ਨੂੰ ਪੱਕੀ ਵਿਰਕਤੀ ਦੇ ਸ਼ਸਤਰ ਨਾਲ ਕੱਟ ਕੇ |15.3|
Its form as such is not perceived here, nor its end, nor its beginning, nor its support. Having cut off this firm-rooted Banyan tree with the strong axe of detachment.|15.3|
।15.4।
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यत: प्रवृति: प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
तत: - उसके बाद
पदं - पद
तत्परिमार्गितव्यं - उस की खोज करनी चाहिये
यस्मिन्गता - जिसको पा कर
न निवर्तन्ति - लौटकर नहीं आते
भूयः - फिर
तमेव - उस के ही
चाद्यं - आदि
पुरुषं - पुरुष
प्रपद्ये - शरण हूँ
यत: प्रवृति: - यह सृष्टि
प्रसृता - विस्तारको
पुराणी- पुरातन
भावार्थ/Translation
उसके बाद उस पद की खोज करनी चाहिये जिसको पा कर मनुष्य फिर लौटकर नहीं आते और जिससे यह पुरातन सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है, मैं उस आदिपुरुष के ही शरण हूँ |15.4|
ਉਸਦੇ ਬਾਅਦ ਉਸ ਪਦ ਦੀ ਖੋਜ ਕਰਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ, ਜਿਸਨੂੰ ਪਾ ਕੇ ਮਨੁੱਖ ਫਿਰ ਪਰਤ ਕੇ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦਾ ਅਤੇ ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਇਹ ਪੁਰਾਤਨ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟਿ ਵਿਸਥਾਰ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਈ ਹੈ ,ਮੈਂ ਉਸ ਆਦਿਪੁਰਖਦੀਸ਼ਰਨ ਵਿੱਚ ਹਾਂ |15.4|
Then that Abode must be sought, having reached Which one would not return.I take refuge in that Primeval Person Himself, from whom has ensued the eternal Manifestation. |15.4|
।15.5।
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा: ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसञ्ज्ञै र्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत् ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
निर्मानमोहा - मान और मोह से रहित
जितसङ्गदोषा - आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है
अध्यात्मनित्या - नित्य परमात्मा में लीन
विनिवृत्तकामा: - सम्पूर्ण कामनाओं से रहित
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: -द्वन्द्वों से मुक्त
सुखदु:खसञ्ज्ञै - सुख दुःखरूप
र्गच्छन्त्यमूढा: - प्राप्त होते हैं, मोहरहित ज्ञानीजन
पदमव्ययं - परमपद, अविनाशी
तत्- उस
भावार्थ/Translation
जो मान और मोह से रहित, आसक्ति से होने वाले दोषों को जीतने वाले, नित्य परमात्मा में लीन, सम्पूर्ण कामनाओं से रहित, जो सुख दुःखरूप द्वन्द्वों से मुक्त,
ऐसे मोह रहित साधक उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं |15.5|
ਜੋ ਮਾਨਅਤੇ ਮੋਹ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ,ਆਸਕਤੀ ਤੋਂ ਹੋਣ ਵਾਲੇ ਦੋਸ਼ਾਂ ਨੂੰ ਜਿੱਤਣ ਵਾਲੇ ,ਨਿੱਤਈਸਵਰ ਵਿੱਚ ਲੀਨ ,ਸੰਪੂਰਣ ਕਾਮਨਾਵਾਂ ਵਲੋਂ ਰਹਿਤ ,ਸੁਖ ਦੁ:ਖ ਰੂਪ ਦਵੰਦ ਤੋਂ ਅਜ਼ਾਦ,ਅਜਿਹੇ ਮੋਹ ਰਹਿਤ ਸਾਧਕ ਉਸ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਪਰਮਪਦ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ |15.5|
Those who are rid of pride and delusion; have put down the evils of attachment; remain absorbed in the supreme; have their desires completely departed, fully liberated from the pairs of pleasures and pains-these undeluded men go to that changeless Abode. |15.5|
।15.6।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
न तद्भासयते - न प्रकाशित कर सकती है
सूर्यो न - न सूर्य
शशाङ्को न - न चन्द्र
पावक: - अग्नि
यद्गत्वा - जिसको प्राप्त कर
न निवर्तन्ते - लौटकर नहीं आते
तद्धाम - वही धाम
परमं - परम
मम- मेरा
भावार्थ/Translation
उस परमपद को न सूर्य, न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त कर जीव लौटकर नहीं आते, वही मेरा परमधाम है |15.6|
ਉਸ ਪਰਮਪਦ ਨੂੰ ਨਾਂ ਸੂਰਜ ,ਨਾਂ ਚੰਦਅਤੇ ਨਾਂ ਅੱਗ ਹੀ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਕਰ ਸਕਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਜਿਸਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਜੀਵ ਪਰਤ ਕੇ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦੇ ,ਉਹੀ ਮੇਰਾ ਪਰਮਧਾਮ ਹੈ |15.6|
Neither does the sun illumine there nor the moon, nor the fire; having gone there they return not; that is My supreme abode.|15.6|
।15.7।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: ।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ ७ ॥
शब्दार्थ
ममैवांशो - मेरा ही अंश है
जीवलोके - संसार में
जीवभूत: - जीवात्मा
सनातन: - सनातन
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि -पाँचों इन्द्रियों और छठे मन को
प्रकृतिस्थानि - प्रकृति में स्थित
कर्षति- प्रकृति में स्थित
भावार्थ/Translation
इस संसार में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वहीप्रकृति में स्थित पाँचों इन्द्रियों और छठे मन को आकर्षित करता है |15.7|
ਇਸ ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚ ਇਹ ਜੀਵਾਤਮਾ ਮੇਰਾ ਹੀ ਸਨਾਤਨ ਅੰਸ਼ ਹੈ ਅਤੇ ਉਹੀਕੁਦਰਤ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਪੰਜੋਂ ਇੰਦਰੀਆਂ ਅਤੇ ਛਠੇ ਮਨ ਨੂੰ ਖਿੱਚਦਾ ਹੈ |15.7|
Individual soul in this world is an eternal part of me and it attracts the senses of which mind is the sixth. These senses abide in nature.|15.7|
।15.8।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
शरीरं - शरीर को
यदवाप्नोति - जिस को प्राप्त होता है
यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: - शरीर को छोड़ता है, शरीर का स्वामी
गृहीत्वैतानि - (मनसहित इन्द्रियों को) ग्रहण करके
संयाति - चला जाता है
वायुर्गन्धानिवाशयात् - वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण करके ले जाती है
भावार्थ/Translation
जैसे वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण करके ले जाती है, ऐसे ही शरीर का स्वामी भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से (मनसहित इन्द्रियों को) ग्रहण करके जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें चला जाता है |15.8|
ਜਿਵੇਂ ਹਵਾ ਗੰਧਦੇ ਸਥਾਨ ਤੋਂ ਗੰਧ ਨੂੰ ਲੈ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ,ਇੰਜ ਹੀ ਸਰੀਰ ਦਾ ਸਵਾਮੀ ਵੀ ਜਿਸ ਸਰੀਰ ਨੂੰ ਛੱਡਦਾ ਹੈ ,ਉੱਥੇ ਤੋਂ ( ਮਨ ਸਹਿਤ ਇੰਦਰੀਆਂ ਨੂੰ ) ਕਬੂਲ ਕਰਕੇ ਜਿਸ ਸਰੀਰ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ,ਉਸ ਵਿੱਚ ਚਲਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |15.8|
The living entity carries (senses along with mind) from one body to another as the air carries aromas from different sources. Thus he takes one kind of body and again quits it to take another.|15.8|
।15.9।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं ध्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
श्रोत्रं - कान
चक्षुः - आंख
स्पर्शनं - त्वचा
च रसनं - जिव्हा
ध्राणमेव च - और नाक को
अधिष्ठाय - आश्रय लेकर
मनश्चायं - मन को
विषयानुपसेवते - विषयों का सेवन करता है
भावार्थ/Translation
यह जीवात्मा कान, आंख, त्वचा, जिव्हा , नाक और मन को आश्रय करके विषयों का सेवन करता है |15.9|
ਇਹ ਜੀਵਾਤਮਾ ਕੰਨ ,ਅੱਖ ,ਤਵਚਾ ,ਜੀਭ,ਨੱਕ ਅਤੇ ਮਨ ਦਾ ਸਹਾਰਾ ਲੈ ਕੇ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਦਾ ਸੇਵਨ ਕਰਦਾ ਹੈ |15.9|
Presiding over ear, eye, skin, tounge, nose and the mind, He enjoys the sense objects.|15.9|
।15.10।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुष: ॥ १० ॥
शब्दार्थ
उत्क्रामन्तं - शरीरको छोड़ते हुए
स्थितं - स्थित हुए
वापि - अथवा
भुञ्जानं - भोगते हुए
वा गुणान्वितम् -भी गुणों से युक्त
विमूढा - मूढ़
नानुपश्यन्ति - नहीं जानते
पश्यन्ति - जानते हैं
ज्ञानचक्षुष:- ज्ञानरूपी नेत्रोंवाले
भावार्थ/Translation
शरीर को छोड़ते हुए,स्थित हुए अथवा भोगते हुए भी गुणों से युक्त जीवात्मा को मूढ़ नहीं जानते, ज्ञानरूपी नेत्रों वाले जानते हैं |15.10|
ਸਰੀਰ ਨੂੰ ਛੱਡਦੇ ਹੋਏ , ਸਥਿਤ ਹੋਏ ਅਤੇ ਭੋਗਦੇ ਹੋਏ ਵੀ ਗੁਣਾਂ ਨਾਲ ਯੁਕਤ ਜੀਵਾਤਮਾ ਨੂੰ ਮੂਰਖ ਨਹੀਂ ਜਾਣਦੇ ,ਗਿਆਨਰੂਪੀ ਨੇਤਰਾਂ ਵਾਲੇ ਜਾਣਦੇ ਹਨ |15.10|
The deluded do not see Him Who departs, stays and enjoys; but they who possess the eye of knowledge behold Him with the qualities. |15.10|
।15.11।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस: ॥ ११ ॥
शब्दार्थ
यतन्तो - यत्न करने वाले
योगिनश्चैनं - योगी इस का
पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् - अपनेआप में स्थित, अनुभव करते हैं
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो - यत्न करने पर भी
नैनं पश्यन्त्यचेतस: - अविवेकी इस का अनुभव नहीं करते
भावार्थ/Translation
यत्न करने वाले योगी अपने आप में स्थित इस का अनुभव करते हैं, परन्तु अशुद्धचित्त, अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस का अनुभव नहीं करते |15.11|
ਜਤਨ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਯੋਗੀਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਇਸ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਕਰਦੇ ਹਨ ,ਪਰ ਅਸ਼ੁੱਧਚਿੱਤ ,ਮੂਰਖ ਮਨੁੱਖ ਜਤਨ ਕਰਣ ਤੇ ਵੀ ਇਸ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ |15.11|
The striving Yogis see It established in themselves, but those of unrefined minds, devoid of intelligence, perceive It not even after striving. |15.11|
।15.12।
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासायतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
यदादित्यगतं - जो सूर्य का
तेजो - तेज
जगद्भासायतेऽखिलम् - सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है
यच्चन्द्रमसि - जो चन्द्रमा में
यच्चाग्नौ - अग्नि में
तत्तेजो - उस तेज को
विद्धि - जानो
मामकम्- मेरा ही
भावार्थ/Translation
जो सूर्य का तेजसम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो चन्द्रमा और अग्नि में है, उस तेज को तुम मेरा ही जानो |15.12|
ਜੋ ਸੂਰਜ ਦਾ ਤੇਜਸੰਪੂਰਣ ਜਗਤ ਨੂੰ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜੋ ਚੰਦਰਮਾ ਅਤੇ ਅੱਗ ਵਿੱਚ ਹੈ ,ਉਸ ਤੇਜ ਨੂੰ ਤੂੰ ਮੇਰਾ ਹੀ ਜਾਣ |15.12|
That brilliance in the sun which illumines the whole universe, that in the moon and fire, know that brilliance as Mine. |15.12|
।15.13।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक: ॥ १३ ॥
शब्दार्थ
गामाविश्य - पृथ्वी में प्रविष्ट
च भूतानि - प्राणियों को
धारयाम्यहमोजसा - अपनी शक्ति से धारण करता हूँ
पुष्णामि - पुष्ट करता हूँ
चौषधी: - ओषधियों को
सर्वा: - समस्त
सोमो - चन्द्रमा के
भूत्वा - होकर
रसात्मक:- रसमय
भावार्थ/Translation
मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ औरचन्द्रमा के रूप में समस्त ओषधियों को रसों से पुष्ट करता हूँ |15.13|
ਮੈਂ ਹੀ ਧਰਤੀ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਵੇਸ਼ ਹੋ ਕੇ ਆਪਣੀ ਸ਼ਕਤੀ ਨਾਲ ਸਾਰੇ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਨੂੰ ਧਾਰਨ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ਅਤੇਚੰਦਰਮਾ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਸਾਰੀਆਂ ਬਨਸਪਤੀਆਂ ਨੂੰ ਰਸਾਂ ਨਾਲ ਪੁਸ਼ਟ ਕਰਦਾ ਹਾਂ |15.13|
Permeating the earth I support all beings by My energy; and having become the moon I nourish all herbs with juices. |15.13|
।15.14।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: ।
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ १४ ॥
शब्दार्थ
अहं - मैं
वैश्वानरो - जठराग्नि
भूत्वा - होकर
प्राणिनां - प्राणियों के
देहमाश्रित: - देह में स्थित
प्राणापानसमायुक्त: - प्राण और अपान से युक्त
पचाम्यन्नं - अन्न को पचाता हूँ
चतुर्विधम्- चार प्रकार के
भावार्थ/Translation
मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित जठराग्नि होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ |15.14|
ਮੈਂ ਹੀਸਾਰੇ ਜੀਵਾਂ ਦੀ ਦੇਹ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਪਾਚਕ ਅੱਗ ਹੋ ਕੇ ਪ੍ਰਾਣ ਅਤੇ ਅਪਾਨ ਨਾਲ ਚਾਰ ਪ੍ਰਕਾਰਦੇ ਅਨਾਜ ਪਚਾਉਂਦਾ ਹਾਂ |15.14|
Being the digestive fire dwelling within the body of living creatures, and with the inward and outward breath, I digest the four kinds of food. |15.14|
।15.15।
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो-वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
सर्वस्य - सब के
चाहं - मैंहूँ
हृदि - हृदय में
सन्निविष्टो- स्थित
मत्त: - मेरे से ही
स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं - स्मृति, ज्ञान, संशय का नाश
च - और
वेदैश्च - वेदों के द्वारा
सर्वैरहमेव - सम्पूर्ण मैं ही
वेद्यो- जाननेयोग्य
वेदान्तकृद्वेदविदेव - वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला
चाहम् - मैं ही हूँ
भावार्थ/Translation
मैं सब के हृदय में स्थित हूँ। मेरे से ही स्मृति तथा ज्ञान होता है और संशय का नाश होता है। सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जाननेयोग्य हूँ। वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ
|15.16|
ਮੈਂ ਸਭਦੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹਾਂ ।ਮੇਰੇ ਵਲੋਂ ਹੀ ਯਾਦਾਸ਼ਤ ਅਤੇ ਗਿਆਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਭਰਮ ਦਾ ਨਾਸ਼ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।ਸੰਪੂਰਣ ਵੇਦਾਂ ਨਾਲ ਮੈਂ ਹੀ ਜਾਨਣ ਯੋਗ ਹਾਂ ।ਵੇਦਾਂਤ ਦਾ ਕਰਤਾ ਅਤੇ ਵੇਦਾਂ ਨੂੰ ਜਾਣਨ ਵਾਲਾ ਵੀ ਮੈਂ ਹੀ ਹਾਂ |15.16|
And I am seated in the hearts of all. From Me are memory and knowledge as well as the power to differentiate . I alone am the object to be known through all the Vedas; I am the originator of the Vedanta, and I am the knower of the Veda. |15.16|
।15.16।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १६ ॥
शब्दार्थ
द्वाविमौ - दो प्रकार के
पुरुषौ - पुरुष
लोके - संसार में
क्षरश्चाक्षर - नाशवान् और अविनाशी
एव च - ये हैं
क्षर: - नाशवान्
सर्वाणि - सम्पूर्ण
भूतानि - प्राणियों के
कूटस्थोऽक्षर - जीवात्मा, अविनाशी
उच्यते- कहा जाता है
भावार्थ/Translation
इस संसार मेंनाशवान् और अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है |15.16|
ਇਸ ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚਨਾਸ਼ਵਾਂਨ ਅਤੇ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ,ਇਹ ਦੋ ਪ੍ਰਕਾਰਦੇ ਪੁਰਖ ਹਨ ।ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂਦੇ ਸਰੀਰ ਨਾਸ਼ਵਾਨ ਅਤੇ ਜੀਵਾਤਮਾ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |15.16|
There are two types of persons in this world; perishable and imperishable. Bodies of all beings are perishable and soul is called imperishable. |15.16|
।15.17।
उतम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
उतम: - उत्तम
पुरुषस्त्वन्य: - पुरुष अलग ही है
परमात्मेत्युदाहृतः - परमात्मा कहलाता है
यो लोकत्रयमाविश्य - तीनों लोकों में प्रवेश करके
बिभर्त्यव्यय - धारण करने वाला, अविनाशी
ईश्वरः - ईश्वर है
भावार्थ/Translation
उत्तम पुरुष अलग ही है, जो परमात्मा कहलाता है और तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण करने वाला अविनाशी ईश्वर है |15.17|
ਉੱਤਮ ਪੁਰਖ ਵੱਖ ਹੀ ਹੈ ,ਜੋ ਪਰਮਾਤਮਾ ਕਹਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਤਿੰਨਾਂ ਲੋਕਾਂ ਵਿੱਚ ਪਰਵੇਸ਼ਕਰਕੇ ਸਬ ਦਾ ਧਾਰਨ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਰੱਬ ਹੈ |15.17|
There is the separate entity, the Supreme Soul. Who has entered the three worlds and is maintaining all is the imperishable Lord. |15.17|
।15.18।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम ॥ १८ ॥
शब्दार्थ
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि - मैं नाशवान से अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा
चोत्तम: - से भी उत्तम हूँ
अतोऽस्मि - इसलिए मैं
लोके - लोक में
वेदे - वेद में
च - भी
प्रथित: - प्रसिद्ध हूँ
पुरुषोत्तम- पुरुषोत्तम
भावार्थ/Translation
मैं नाशवान से अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ |15.18|
ਮੈਂ ਨਾਸ਼ਵਾਨ ਤੋਂ ਅਤੀਤ ਹਾਂ ਅਤੇ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਜੀਵਾਤਮਾ ਨਾਲੋਂ ਵੀ ਉੱਤਮ ਹਾਂ ,ਇਸ ਲਈ ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਵੇਦ ਵਿੱਚ ਵੀ ਪੁਰਸ਼ੋਤਮ ਨਾਮ ਨਾਲ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਹਾਂ |15.18|
Because I transcend the perishable Person and am higher than the imperishable person, therefore I am known in the world and the Veda as the Supreme Person. |15.18|
।15.19।
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
यो - जो
मामेवमसम्मूढो - इस प्रकार मोहरहित मुझे
जानाति - जानता है
पुरुषोत्तमम् - पुरुषोत्तम
स - वह
सर्वविद्भजति - सर्वज्ञ, सर्वज्ञ
मां - मेरा
सर्वभावेन - सम्पूर्ण भाव से
भारत - हे अर्जुन
भावार्थ/Translation
हे अर्जुन, इस प्रकार जो मोहरहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सम्पूर्ण भाव से मेरा ही भजन करता है |15.19|
ਹੇ ਅਰਜੁਨ ,ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਜੋ ਮੋਹਰਹਿਤ ਮਨੁੱਖ ਮੈਨੂੰ ਪੁਰਸ਼ੋਤਮ ਜਾਣਦਾ ਹੈ ,ਉਹ ਸਭ ਕੁਝ ਜਾਨਣ ਵਾਲਾ, ਸੰਪੂਰਣ ਭਾਵ ਨਾਲ ਮੇਰਾ ਹੀ ਭਜਨ ਕਰਦਾ ਹੈ |15.19|
O Arjuna,He who, without delusion, knows Me as the Supreme Self,and worships Me in every way, knows all.|15.19|
।15.20।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्धवा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥ २० ॥
शब्दार्थ
इति - इस प्रकार
गुह्यतमं - अत्यन्त गोपनीय
शास्त्रमिदमुक्तं - शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया
मयानघ - निष्पाप
एतद्बुद्धवा - इसको जानकर
बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च - बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है
भारत - हे अर्जुन
भावार्थ/Translation
हे निष्पाप अर्जुन, इस प्रकार यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको जानकर मनुष्य बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है |15.20|
ਹੇ ਨਿਸ਼ਪਾਪ ਅਰਜੁਨ ,ਇਸ ਤਰਾੰ ਇਹ ਅਤਿਅੰਤ ਗੁਪਤ ਸ਼ਾਸਤਰ ਮੇਰੇ ਦੁਆਰਾ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ,ਇਸਨ੍ਹੂੰ ਜਾਨਕੇ ਮਨੁੱਖ ਸੂਝਵਾਨ ਅਤੇ ਸਫ਼ਲ-ਮਨੋਰਥ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |15.20|
O Arjuna, this most secret science has been taught by Me, O sinless one; on knowing this, a man becomes wise, and all his duties are accomplished. |15.20|
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥15.1-15.20॥
To be Completed by 17th April, 2016 (20 days)
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