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अध्याय सत्रह / Chapter Seventeen

।17.1।
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यज्न्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १ ॥

शब्दार्थ
अर्जुन उवाच - अर्जुन ने कहा
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य - जो शास्त्रविधिका त्याग करके
यज्न्ते - पूजन करते हैं
श्रद्धयान्विताः - श्रद्धापूर्वक
तेषां - उनकी
निष्ठा - निष्ठा
तु का - कौन सी है
कृष्ण - हे कृष्ण
सत्त्वमाहो - सत्त्व अथवा
रजस्तमः - रज, तम

भावार्थ/Translation
   अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण, जो शास्त्रविधि का त्याग करके श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं, उनकी निष्ठा कौन सी है - सत्त्व, रज, अथवा तम |17.1|

   ਅਰਜੁਨ ਨੇ ਕਿਹਾ - ਹੇ ਕ੍ਰਿਸ਼ਣ, ਜੋ ਸ਼ਾਸਤਰ ਵਿਧੀ ਦਾ ਤਿਆਗ ਕਰਕੇ ਸ਼ਰੱਧਾ ਨਾਲ ਪੂਜਨ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਨਿਸ਼ਠਾ ਕਿਹੜੀ ਹੈ - ਸਤ, ਰਜ, ਅਤੇ ਤਮ |17.1|

   Arjuna said, O Krishna, What is the type of faith of those who worship with reverence, Are they in goodness, passion or ignorance? |17.1|

।17.2।
श्री भगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ॥ २ ॥

शब्दार्थ
श्री भगवानुवाच - श्री भगवान् बोले
त्रिविधा - तीन तरह की
भवति - होती है
श्रद्धा - श्रद्धा
देहिनां - मनुष्यों की
सा - वह
स्वभावजा - स्वभाव से उत्पन्न
सात्त्विकी - सात्त्विकी
राजसी - राजसी
चैव - और
तामसी - तामसी
चेति -उसको
तां - तुम
श्रृणु - सुनो

भावार्थ/Translation
   श्री भगवान् बोले - मनुष्यों की वह स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्त्विकी तथा राजसी और तामसी -तीन तरह की होती है, उसको तुम सुनो |17.2|

   ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨ ਬੋਲੇ - ਮਨੁੱਖਾਂ ਦੀ ਉਹ ਸੁਭਾਅ ਤੋਂ ਪੈਦਾ ਹੋਈ ਸ਼ਰਧਾ ਸਾਤਵਿਕੀ, ਰਾਜਸੀ ਅਤੇ ਤਾਮਸੀ - ਤਿੰਨ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ, ਉਸ ਨੂੰ ਤੂੰ ਸੁਣ |17.2|

   Krishna said, Humans have three kinds of faith based on their nature; These are Goodness, Passion and ignorance; Hear about these from me. |17.2|

।17.3।
सत्त्वानुरुपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ ३ ॥

शब्दार्थ
सत्त्वानुरुपा - अन्तःकरण के अनुरूप
सर्वस्य - सभी की
श्रद्धा - श्रद्धा
भवति - होती है
भारत - हे अर्जुन
श्रद्धामयोऽयं - श्रद्धामय है
पुरुषो - मनुष्य
यो - जो
यच्छ्रद्धः - जैसी श्रद्धावाला है
स एव सः - वह वैसा ही है

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, सभी की श्रद्धा अन्तःकरण के अनुरूप होती है। सब मनुष्य श्रद्धामय है। इसलिये जो जैसी श्रद्धावाला है, वह वैसा ही है |17.3|

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਸਾਰਿਆਂ ਦੀ ਸ਼ਰਧਾ ਮਨ ਦੇ ਭਾਵਾਂ ਦੇ ਅਨੁਸਾਰ ਹੁੰਦੀ ਹੈ । ਸਬ ਮਨੁੱਖ ਸ਼ਰੱਧਾਮਈ ਹੈ । ਇਸਲਈ ਜੋ ਜਿਸ ਸ਼ਰੱਧਾ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਉਹ ਉਹੋ ਜਿਹਾ ਹੀ ਹੈ |17.3|

   The faith of every man conforms to his nature. By nature every human is full of faith. He is in fact what his faith makes him. |17.3|

।17.4।
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ ४ ॥

शब्दार्थ
यजन्ते - पूजते हैं
सात्त्विका - सात्त्विक
देवान्यक्षरक्षांसि - देवताओं का, यक्षों और राक्षसोंका
राजसाः - राजस
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये - प्रेतों और भूतगणों का
यजन्ते - पूजते हैं
तामसा - तामस
जनाः - मनुष्य

भावार्थ/Translation
   सात्त्विक मनुष्य देवताओं को पूजते हैं, राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसों को और तामस मनुष्य प्रेतों और भूतगणों को पूजते हैं |17.4|

   ਸਾਤਵਿਕ ਮਨੁੱਖ ਦੇਵਤਿਆਂ ਨੂੰ ਪੂਜਦੇ ਹਨ, ਰਾਜਸ ਮਨੁੱਖ ਯਕਸ਼ਾਂ ਅਤੇ ਰਾਕਸ਼ਸਾਂ ਨੂੰ ਅਤੇ ਤਾਮਸ ਮਨੁੱਖ ਪ੍ਰੇਤਾਂ ਅਤੇ ਭੂਤਗਣਾਂ ਨੂੰ ਪੂਜਦੇ ਹਨ |17.4|

   Men in the mode of goodness worship demigods, those in the mode of passion worship the demons and those in the mode of passion worship spirits and ghosts. |17.4|

।17.5।
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः ।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ ५ ॥

शब्दार्थ
अशास्त्रविहितं - शास्त्रविधि से रहित
घोरं -घोर
तप्यन्ते - करते हैं
ये तपो - जो तप
जनाः - लोग
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः - दम्भ, अहंकार से भी युक्त
कामरागबलान्विताः - काम, राग और बल

भावार्थ/Translation
   जो लोग शास्त्रविधि से रहित घोर तप करते हैं तथा दम्भ, अहंकार, काम, राग और बल से भी युक्त होते हैं |17.5|

   ਜੋ ਲੋਕ ਸ਼ਾਸਤਰਵਿਧੀ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਘੋਰ ਤਪ ਕਰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਦੰਭ, ਹੈਂਕੜ, ਕਾਮ, ਰਾਗ ਅਤੇ ਜੋਰ ਨਾਲ ਭਰੇ ਹਨ |17.5|

   Those who practise austerities not commanded by scriptures, who are possessed of hypocrisy, egotism, lust, attachment and strength. |17.5|

।17.6।
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥ ६ ॥

शब्दार्थ
कर्शयन्तः - कष्ट पहुँचाने वाले
शरीरस्थं - शरीर में स्थित
भूतग्राममचेतसः - इन्द्रिय समुदाय, अविवेकी
मां चैवान्तःशरीरस्थं - अविवेकी, अन्तःकरण में स्थित मुझ को
तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् - उन्हें तुम आसुरी स्वभाव वाले जानो

भावार्थ/Translation
   और इन्द्रिय समुदाय को तथा अन्तःकरण में स्थित मुझ को भी कष्ट पहुँचाने वाले जो अविवेकी लोग हैं, उन्हें तुम आसुरी स्वभाव वाले जानो |17.6|

   ਅਤੇ ਇੰਦਰੀਆਂ ਨੂੰ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਅੰਦਰ ਸਥਿਤ ਮੈਨੂੰ ਵੀ ਕਸ਼ਟ ਪਹੁੰਚਾਣ ਵਾਲੇ ਜੋ ਮੂਰਖ ਲੋਕ ਹਨ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਤੂੰ ਰਾਖ਼ਸ਼ੀ ਸੁਭਾਅ ਵਾਲੇ ਜਾਣ |17.6|

   Torturing all the elements in the body and Me also, Who dwell in the body, know these Senseless people to be of demonical resolves. |17.6|

।17.7।
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रुणु ॥ ७ ॥

शब्दार्थ
आहारस्त्वपि - भोजन भी
सर्वस्य - सब का
त्रिविधो - तीन प्रकार का
भवति - होता है
प्रियः - प्रिय
यज्ञस्तपस्तथा - यज्ञ, तप और
दानं - दान
तेषां - तुम
भेदमिमं - उनके भेद को
श्रुणु - सुनो

भावार्थ/Translation
   भोजन भी सब को (अपनी प्रकृति के अनुसार) तीन प्रकार का प्रिय है, उसी प्रकार यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के हैं, उनके भेद को तुम मुझसे सुनो |17.7|

   ਭੋਜਨ ਵੀ ਸਭ ਨੂੰ ( ਆਪਣੀ ਕੁਦਰਤ ਦੇ ਅਨੁਸਾਰ ) ਤਿੰਨ ਤਰਾੰ ਦਾ ਪਿਆਰਾ ਹੈ, ਉਸੀ ਤਰਾੰ ਯੱਗ, ਤਪ ਅਤੇ ਦਾਨ ਵੀ ਤਿੰਨ ਤਰਾੰ ਦੇ ਹਨ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਭੇਦ ਤੂੰ ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਸੁਣ |17.7|

   All have their different liking for Food, is of three kinds; and so also are sacrifices, austerity and charity. Listen to this distinction of them. |17.7|

।17.8।
आयुः सत्त्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ ८ ॥

शब्दार्थ
आयुः - आयु
सत्त्वबलारोग्य - सत्त्व, बल, आरोग्य
सुखप्रीतिविवर्धनाः - सुख और प्रीति को
रस्याः - रसयुक्त
स्निग्धाः - चिकने
स्थिरा - स्थिर
हृद्या - मन को प्रसन्न करने वाले
आहाराः - आहार
सात्त्विकप्रियाः - सात्त्विक पुरुषों को प्रिय है

भावार्थ/Translation
   आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले एवं रसयुक्त, चिकने, स्थिर तथा मन को प्रसन्न करने वाले आहार सात्त्विक पुरुषों को प्रिय है |17.8|

   ਉਮਰ, ਸੱਤਵ, ਜੋਰ, ਤੰਦਰੁਸਤੀ, ਸੁਖ ਅਤੇ ਪ੍ਰੀਤੀ ਨੂੰ ਵਧਾਉਣ ਵਾਲੇ ਅਤੇ ਰਸ ਭਰੇ, ਚਿਕਨੇ, ਸਥਿਰ ਅਤੇ ਮਨ ਨੂੰ ਖੁਸ਼ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਖਾਣਾ ਸਾਤਵਿਕ ਪੁਰਸ਼ਾਂ ਨੂੰ ਪਿਆਰਾ ਹੈ |17.8|

   Foods dear to those in the mode of goodness increase the duration of life, purify one’s existence and give strength, health, happiness and satisfaction. Such foods are juicy, fatty, wholesome, and pleasing to the heart. |17.8|

।17.9।
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ ९ ॥

शब्दार्थ
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः - कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, अति उष्ण, तीखे, रूखे, दाहकारक
आहारा - भोज्य पदार्थ
राजसस्येष्टा - राजस पुरुष को प्रिय होते हैं
दुःखशोकामयप्रदाः - दुख, शोक और रोग उत्पन्न कारक

भावार्थ/Translation
   कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, अति उष्ण, तीखे, रूखे, दाहकारक, दुख, शोक और रोग उत्पन्न कारक भोज्य पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं |17.9|

   ਕੌੜੇ, ਖੱਟੇ, ਲੂਣ ਨਾਲ ਭਰੇ, ਬਹੁਤ ਗਰਮ, ਤਿੱਖੇ, ਰੁੱਖੇ, ਦਾਹਕਾਰਕ, ਦੁੱਖ, ਸੋਗ ਅਤੇ ਰੋਗ ਪੈਦਾ ਕਰਣ ਵਾਲੇ, ਖਾਣ ਯੋਗ ਪਦਾਰਥ ਰਾਜਸ ਪੁਰਖ ਨੂੰ ਪਿਆਰੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ |17.9|

   Foods that are bitter, sour, salty, very hot, pungent, dry and burning, and which produce pain, sorrow and disease, are dear to those in mode of passion. |17.9|

।17.10।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ १० ॥

शब्दार्थ
यातयामं - अधपका
गतरसं - रसरहित
पूति - दुर्गन्धित
पर्युषितं - बासी
च यत् - और
उच्छिष्टमपि - उच्छिष्ट है
चामेध्यं - तथा अपवित्र
भोजनं - जो भोजन
तामसप्रियम् - वह तामस को प्रिय है

भावार्थ/Translation
   जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धित, बासी, उच्छिष्ट तथा अपवित्र है, वह तामस को प्रिय है |17.10|

   ਜੋ ਭੋਜਨ ਅੱਧ ਪੱਕਿਆ, ਰਸਰਹਿਤ, ਦੁਰਗੰਧਿਤ, ਬਾਸੀ, ਕਿਸੇ ਦਾ ਛੱਡਿਆ ਹੋਇਆ ਅਤੇ ਅਪਵਿਤ੍ਰ ਹੈ, ਉਹ ਤਾਮਸ ਨੂੰ ਪਿਆਰਾ ਹੈ |17.10|

   That which is stale, tasteless, putrid, rotten, refuse and impure, is the food liked by those in the mode of ignorance. |17.10|

।17.11।
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ ११ ॥

शब्दार्थ
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो - फलेच्छारहित यज्ञ
विधिदृष्टो - शास्त्रविधिसे नियत
य इज्यते - किया जाता है
यष्टव्यमेवेति - यज्ञ करना कर्तव्य है
मनः - मन को
समाधाय - समाधान करके
स सात्त्विकः - वह सात्त्विक है

भावार्थ/Translation
   यज्ञ करना कर्तव्य है - इस तरह मन को समाधान करके फलेच्छारहित, जो शास्त्र विधि से नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक है |17.11|

   ਯੱਗ ਕਰਣਾ ਕਰਤੱਵ ਹੈ - ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਮਨ ਨੂੰ ਸਮਝਾ ਕੇ ਫਲ ਦੀ ਇੱਛਾ ਰਹਿਤ, ਜੋ ਸ਼ਾਸਤਰ ਢੰਗ ਨਾਲ ਨਿਅਤ ਯੱਗ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਸਾਤਵਿਕ ਹੈ |17.11|

   Of sacrifices, the sacrifice performed according to the directions of scripture, as a matter of duty, by those who desire no reward, is of the nature of goodness. |17.11|

।17.12।
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥ १२ ॥

शब्दार्थ
अभिसन्धाय - आकांक्षा रख कर
तु फलं - फल की
दम्भार्थमपि - दम्भ के लिए
चैव यत् - जो तथा
इज्यते - किया जाता है
भरतश्रेष्ठ - अर्जुन
तं यज्ञं - उस यज्ञ को
विद्धि - समझो
राजसम् - राजस

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, जो यज्ञ दम्भ के लिए तथा फल की आकांक्षा रख कर किया जाता है, उस यज्ञ को तुम राजस समझो |17.12|

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜੋ ਯੱਗ ਦੰਭ ਲਈ ਅਤੇ ਫਲ ਦੀ ਆਕਾਂਕਸ਼ਾ ਰੱਖ ਕੇ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਯੱਗ ਨੂੰ ਤੂੰ ਰਾਜਸ ਸਮੱਝ |17.12|

   O Arjuna, Sacrifice which is performed for the sake of material benefits, or for pride is considered in the category of passion mode.|17.12|

।17.13।
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ १३ ॥

शब्दार्थ
विधिहीनमसृष्टान्नं - शास्त्रविधि, अन्नदान से रहित
मन्त्रहीनमदक्षिणम् - बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के
श्रद्धाविरहितं - बिना श्रद्धा के
यज्ञं - यज्ञ को
तामसं - तामस
परिचक्षते - कहते हैं

भावार्थ/Translation
   शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं |17.13|

   ਸ਼ਾਸਤਰ ਵਿਧੀ ਤੋਂ ਹੀਨ, ਅੰਨਦਾਨ ਤੋਂ ਰਹਿਤ, ਬਿਨਾਂ ਮੰਤਰਾਂ ਦੇ, ਬਿਨਾਂ ਦਕਸ਼ਿਣਾ ਦੇ ਅਤੇ ਬਿਨਾਂ ਸ਼ਰਧਾ ਦੇ ਕੀਤੇ ਜਾਣ ਵਾਲੇ ਯੱਗ ਨੂੰ ਤਾਮਸ ਯੱਗ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ |17.13|

   That sacrifice is Tamasic which is contrary to the ordinances of the scriptures, which is devoid of food-distribution, Mantras, gifts and faith. |17.13|

।17.14।
देवद्बिजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४ ॥

शब्दार्थ
देवद्बिजगुरुप्राज्ञपूजनं - देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन
शौचमार्जवम् - शुद्धि, सरलता
ब्रह्मचर्यमहिंसा - ब्रह्मचर्य और अहिंसा
च शारीरं - यह शरीर सम्बन्धी
तप - तप
उच्यते - कहा जाता है

भावार्थ/Translation
   देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, शुद्धि, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है |17.14|

   ਦੇਵਤਾ, ਬਾਹਮਣ, ਗੁਰੂ ਅਤੇ ਗਿਆਨੀ ਜਨਾਂ ਦਾ ਪੂਜਨ, ਸ਼ੁੱਧੀ, ਸਰਲਤਾ, ਬ੍ਰਹਮਚਰਿਅ ਅਤੇ ਅਹਿੰਸਾ - ਇਹ ਸਰੀਰ ਸੰਬੰਧੀ ਤਪ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |17.14|

   Worship of the gods, the Brahmanas, the teachers and the wise, cleanliness, simplicity, celibacy and nonviolence are called the austerities of the body. |17.14|

।17.15।
अनुद्बेगकरं वाकयं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ् मयं तप उच्यते ॥ १५ ॥

शब्दार्थ
अनुद्बेगकरं - उद्वेग न करने वाला
वाकयं - भाषण
सत्यं - सत्य
प्रियहितं - प्रिय, हितकारक
च यत् - तथा
स्वाध्यायाभ्यसनं - स्वाध्याय और अभ्यास करना
चैव - यह
वाङ् मयं - वाणीसम्बन्धी
तप - तप
उच्यते - कहा जाता है

भावार्थ/Translation
   उद्वेग न करने वाला, सत्य, प्रिय, हितकारक भाषण तथा स्वाध्याय और अभ्यास करना, यह वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है |17.15|

   ਉਤੇਜਿਤ ਨਾਂ ਕਰਣ ਵਾਲਾ, ਸੱਚ, ਪਿਆਰਾ, ਹਿਤਕਾਰਕ ਭਾਸ਼ਣ, ਸਵਾਧਿਆਏ ਅਤੇ ਅਭਿਆਸ ਕਰਣਾ, ਇਹ ਵਾਣੀ ਸੰਬੰਧੀ ਤਪ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |17.15|

   The unoffending speech which is true, pleasant and beneficial; and self-study and regular practice - all this is said to be an austerity by the speech-sense. |17.15|

।17.16।
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्घिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥

शब्दार्थ
मनःप्रसादः - मन की प्रसन्नता
सौम्यत्वं - शान्तभाव
मौनमात्मविनिग्रहः - मौन आत्मसंयम
भावसंशुद्घिरित्येतत्तपो - अन्तकरण की शुद्धि, इस प्रकार यह तप
मानसमुच्यते - मन सम्बन्धी, कहा जाता है

भावार्थ/Translation
   मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, मौन आत्मसंयम और अन्तकरण की शुद्धि, इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है |17.16|

   ਮਨ ਦੀ ਪ੍ਰਸੰਨਤਾ, ਸ਼ਾਂਤ ਭਾਵ, ਚੁੱਪ ਰਹਿ ਕੇ ਆਤਮਸੰਜਮ ਅਤੇ ਅੰਤਕਰਣ ਦੀ ਸ਼ੁੱਧੀ, ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਇਹ ਮਨ ਸੰਬੰਧੀ ਤਪ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |17.16|

   And happiness of mind, simplicity, quiet self-control and inner purity are the austerities of the mind. |17.16|

।17.17।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः ।
अफलकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्विकं परिचक्षते ॥ १७ ॥

शब्दार्थ
श्रद्धया - श्रद्धा से किये
परया - परम
तप्तं - किया जाता
तपस्तत्त्रिविधं - त्रिविध तप को
नरैः - पुरुषों के द्वारा
अफलकाङ्क्षिभिर्युक्तैः - फल की आकांक्षा न रखने वाले
सात्विकं - सात्त्विक
परिचक्षते - कहते हैं

भावार्थ/Translation
   फल की आकांक्षा न रखने वाले पुरुषों के द्वारा परम श्रद्धा से त्रिविध तप किया जाता है, उस को सात्त्विक कहते हैं |17.17|

   ਫਲ ਦੀ ਇੱਛਾ ਨਾਂ ਰੱਖਣ ਵਾਲੇ ਪੁਰਸ਼ਾਂ ਦੇ ਦੁਆਰਾ ਪਰਮ ਸ਼ਰਧਾ ਨਾਲ ਉੱਪਰ ਦੱਸਿਆ ਤਿੰਨ ਤਰਾੰ ਦਾ ਤਪ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਨੂੰ ਸਾਤਵਿਕ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ |17.17|

   When that threefold austerity is undertaken with supreme faith by people who do not hanker after results, is born of sattva.|17.17|

।17.18।
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥ १८ ॥

शब्दार्थ
सत्कारमानपूजार्थं - सत्कार, मान और पूजा के लिए
तपो - तप
दम्भेन - पाखण्ड
चैव - अथवा
यत् - जो
क्रियते - किया जाता है
तदिह - वह
प्रोक्तं - कहा गया है
राजसं - राजस
चलमध्रुवम् - अनिश्चित और क्षणिक

भावार्थ/Translation
   जो तप अपने सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखण्ड से ही किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक तप, राजस कहा गया है |17.18|

   ਜੋ ਤਪ ਆਪਣੇ ਆਦਰ, ਮਾਨ ਅਤੇ ਪੂਜਾ ਲਈ ਅਤੇ ਕੇਵਲ ਪਾਖੰਡ ਨਾਲ ਹੀ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਅਨਿਸ਼ਚਿਤ ਅਤੇ ਅਸਥਾਈ ਤਪ, ਰਾਜਸ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ |17.18|

   The austerity that is practised for gaining respect, honour and reverence and with sheer showing-that unstable and impermanent austerity is called Rajas. |17.18|

।17.19।
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ १९ ॥

शब्दार्थ
मूढग्राहेणात्मनो - मूढ़तापूर्वक हठ से, अपने को
यत्पीडया - जो पीड़ा देकर
क्रियते - किया जाता है
तपः - तप
परस्योत्सादनार्थं - दूसरों को कष्ट देने के लिये
वा - अथवा
तत्तामसमुदाहृतम् - किया जाता है

भावार्थ/Translation
   जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से अपने को पीड़ा देकर अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिये किया जाता है, वह तामस कहा गया है |17.19|

   ਜੋ ਤਪ ਮੂਰਖਤਾ ਅਤੇ ਹਠ ਨਾਲ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਪੀਡ਼ਾ ਦੇ ਕੇ ਅਤੇ ਦੂਸਰਿਆਂ ਨੂੰ ਕਸ਼ਟ ਦੇਣ ਲਈ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਤਾਮਸ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ |17.19|

   Penance performed out of foolishness, with self-torture or to injure others, is said to be in the mode of ignorance. |17.19|

।17.20।
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं स्मृतम् ॥ २० ॥

शब्दार्थ
दातव्यमिति - दान देना कर्तव्य है
यद्दानं - जो दान
दीयतेऽनुपकारिणे - प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं
देशे - देश
काले - काल
च पात्रे - योग्य पात्र
च तद्दानं - वह दान
सात्विकं - सात्त्विक
स्मृतम् - माना गया है

भावार्थ/Translation
   कर्तव्य भाव से जो दान योग्य देश, काल में, योग्य पात्र को बिना प्रत्युपकार की अपेक्षा दिया जाता है, वह दान सात्त्विक माना गया है |17.20|

   ਕਰਤੱਵ ਭਾਵ ਨਾਲ ਜੋ ਦਾਨ ਯੋਗ ਦੇਸ਼, ਠੀਕ ਸਮੇਂ, ਲਾਇਕ ਪਾਤਰ ਨੂੰ ਬਿਨਾਂ ਪ੍ਰਤਿਉਪਕਾਰ ਦੀ ਆਸ਼ਾ ਨਾਲ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਦਾਨ ਸਾਤਵਿਕ ਮੰਨਿਆ ਗਿਆ ਹੈ |17.20|

   Charity given out of duty, without expectation of return, at the proper time and place, and to a worthy person is considered to be in the mode of goodness. |17.20|

।17.21।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ २१ ॥

शब्दार्थ
यत्तु - और जो
प्रत्युपकारार्थं - प्रत्युपकार के उद्देश्य से
फलमुद्दिश्य - फल की कामना रखकर
वा पुनः - और जो
दीयते च - दिया जाता हैं
परिक्लिष्टं - क्लेशपूर्वक
तद्दानं - वह दान
राजसं - राजस
स्मृतम् - माना गया है

भावार्थ/Translation
   और जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के उद्देश्य से अथवा फल की कामना रखकर दिया जाता हैं, वह दान राजस माना गया है |17.21|

   ਅਤੇ ਜੋ ਦਾਨ ਕਲੇਸ਼ ਨਾਲ ਅਤੇ ਪ੍ਰਤਿਉਪਕਾਰ ਦੇ ਉਦੇਸ਼ ਨਾਲ ਅਤੇ ਫਲ ਦੀ ਕਾਮਨਾ ਰੱਖ ਕੇ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹਨ, ਉਹ ਦਾਨ ਰਾਜਸ ਮੰਨਿਆ ਗਿਆ ਹੈ |17.21|

   But charity performed with the expectation of some return, or with a desire for fruits, or in a grudging mood, is in the mode of passion.|17.21|

।17.22।
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥

शब्दार्थ
अदेशकाले - अयोग्य देश और काल में
यद्दानमपात्रेभ्यश्च - जो दान कुपात्र को
दीयते - दिया जाता है
असत्कृतमवज्ञातं - बिना सत्कारके तथा तिरस्कारपूर्वक
तत्तामसमुदाहृतम् - तामस कहा गया है

भावार्थ/Translation
   जो दान बिना सत्कार के तथा तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है |17.22|

   ਜੋ ਦਾਨ ਬਿਨਾਂ ਆਦਰ ਅਤੇ ਇੱਜਤ ਨਾਲ, ਗਲਤ ਦੇਸ਼ ਅਤੇ ਕਾਲ ਵਿੱਚ ਕੁਪਾਤਰ ਨੂੰ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਦਾਨ ਤਾਮਸ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ |17.22|

   And charity performed at an impure place, at an improper time, to unworthy persons in an insulting maner and without proper respect is said to be in the mode of ignorance. |17.22|

।17.23।
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥ २३ ॥

शब्दार्थ
ॐ तत्सदिति - ॐ, तत्‌, सत्‌, ऐसे यह
निर्देशो - निर्देश
ब्रह्मणस्त्रिविधः - तीन प्रकार का ब्रह्म का नाम
स्मृतः - किया गया है
ब्राह्मणास्तेन - ब्राह्मण और
वेदाश्च - वेद तथा
यज्ञाश्च - यज्ञादि
विहिताः - रचे गए
पुरा - आदिकाल में

भावार्थ/Translation
   ॐ, तत्‌, सत्‌-ऐसे यह तीन प्रकार का ब्रह्म का नाम निर्देश किया गया है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गए |17.23|

   ਓਮ, ਤਤ‌, ਸਤ‌ - ਇਹ ਤਿੰਨ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦਾ ਬ੍ਰਹਮ ਦਾ ਨਾਮ ਨਿਰਦੇਸ਼ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਹੈ, ਉਸੀ ਤੋਂ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟਿ ਦੇ ਮੁੱਢਲੇ ਵਕਤ ਵਿੱਚ ਬਾਹਮਣ, ਵੇਦ ਅਤੇ ਯਗੱ ਆਦਿ ਰਚੇ ਗਏ |17.23|

   The three words om tat sat are used to indicate the Supreme Truth, which also created brahmanas, scriptures and sacrifices at the start of the existence. |17.23|

।17.24।
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥ २४ ॥

शब्दार्थ
तस्मादोमित्युदाहृत्य - इसलिए ओंकार के उच्चारण के साथ
यज्ञदानतपःक्रियाः - यज्ञ, दान और तप की क्रियायें
प्रवर्तन्ते - प्रारम्भ होती हैं
विधानोक्ताः - शास्त्र प्रतिपादित
सततं - सदैव
ब्रह्मवादिनाम् - वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले

भावार्थ/Translation
   इसलिए वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले की शास्त्र प्रतिपादित यज्ञ दान और तप की क्रियायें सदैव ओंकार के उच्चारण के साथ प्रारम्भ होती हैं |17.24|

   ਇਸ ਲਈ ਵੈਦਿਕ ਸਿੱਧਾਂਤਾਂ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਵਾਲੇ ਦੀ ਸ਼ਾਸਤਰ ਵਿੱਚ ਦੱਸੀਆਂ, ਯੱਗ ਦਾਨ ਅਤੇ ਤਪ ਦੀਆਂ ਕਿਰਿਆਵਾਂ ਹਮੇਸ਼ਾਂ ਓਂਕਾਰ ਦੇ ਉਚਾਰਣ ਦੇ ਨਾਲ ਸ਼ੁਰੂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ |17.24|

   Therefore, transcendentalists undertaking performances of sacrifice, charity and penance in accordance with scriptural regulations begin always with om. |17.24|

।17.25।
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥ २५ ॥

शब्दार्थ
तदित्यनभिसन्धाय - तत् शब्द का उच्चारण कर, मुक्ति चाहनेवाले
फलं - फल की
यज्ञतपःक्रियाः - यज्ञ, तप
दानक्रियाश्च - दान
विविधाः - विविध
क्रियन्ते - करते हैं
मोक्षकाङ्क्षिभिः - मुक्ति चाहनेवाले

भावार्थ/Translation
   तत् शब्द का उच्चारण कर, फल की इच्छा नहीं रखते हुए, मुक्ति चाहने वाले यज्ञ, तप, दान आदि विविध कर्म करते हैं |17.25|

   ਤਤ ਸ਼ਬਦ ਦਾ ਉਚਾਰਣ ਕਰ, ਫਲ ਦੀ ਇੱਛਾ ਨਾਂ ਰੱਖਦੇ ਹੋਏ, ਮੁਕਤੀ ਲੋਚਣ ਵਾਲੇ ਯੱਗ, ਤਪ, ਦਾਨ ਆਦਿ ਵਿਵਿਧ ਕਰਮ ਕਰਦੇ ਹਨ |17.25|

   Those who desire deliverance begin their acts of sacrifice, austerity or gift with the word Tat (Yours), without thought of reward. |17.25|

।17.26।
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ २६ ॥

शब्दार्थ
सद्भावे - सत्य भाव
साधुभावे - साधुभाव में
च सदित्येतत्प्रयुज्यते - में सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है
प्रशस्ते - श्रेष्ठ शुभ
कर्मणि - कर्म में
तथा - और
सच्छब्दः - सत् शब्द
पार्थ - हे अर्जुन
युज्यते - प्रयुक्त होता है

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, सत्य भाव व साधुभाव में सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है, और श्रेष्ठ शुभ कर्म में सत् शब्द प्रयुक्त होता है |17.26|

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਸੱਚ ਭਾਵ ਅਤੇ ਸਾਧੁ ਭਾਵ ਵਿੱਚ ਸਤ ਸ਼ਬਦ ਦਾ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਅਤੇ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਸ਼ੁਭ ਕਰਮ ਵਿੱਚ ਸਤ ਸ਼ਬਦ ਪ੍ਰਯੋਗ ਹੁੰਦਾ ਹੈ |17.26|

   O Arjuna, Sat Word is used for truth and goodness and it is also used in all pure, good and auspicious acts. |17.26|

।17.27।
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥ २७ ॥

शब्दार्थ
यज्ञे तपसि - यज्ञ, तप और
दाने च - दान में
स्थितिः - जो स्थिति है
सदिति - सत्, ऐसे
चोच्यते - वह, कही जाती है
कर्म चैव - और कर्म भी
तदर्थीयं - उस के निमित्त किया जाने वाला
सदित्येवाभिधीयते - सत् कहा जाता है

भावार्थ/Translation
   यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी सत्, ऐसे कही जाती है और उस के निमित्त किया जाने वाला कर्म भी सत् कहा जाता है |17.27|

   ਯੱਗ, ਤਪ ਅਤੇ ਦਾਨ ਵਿੱਚ ਜੋ ਸਥਿਤੀ ਹੈ, ਉਹ ਵੀ ਸਤ ਕਹੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਉਸ ਦੇ ਨਮਿਤ ਕੀਤਾ ਜਾਣ ਵਾਲਾ ਕਰਮ ਵੀ ਸਤ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ |17.27|

   Steadfastness in sacrifice, austerity and gift, is also called 'Sat' and also action in connection with these for the sake of the Supreme is called 'Sat'. |17.27|

।17.28।
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ २८ ॥

शब्दार्थ
अश्रद्धया - अश्रद्धापूर्वक
हुतं दत्तं - यज्ञ, दान
तपस्तप्तं - तप किया जाता है
कृतं च यत् - और अन्य कर्म
असदित्युच्यते - वह असत् कहा जाता है
पार्थ - हे अर्जुन
न च तत्प्रेत्य - और न मरण के पश्चात्
नो इह - न इस लोक में

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, जो यज्ञ, दान, तप और अन्य कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाता है, वह असत् कहा जाता है वह न इस लोक में और न मरण के पश्चात् फलता है |17.28|

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜੋ ਯੱਗ, ਦਾਨ, ਤਪ ਅਤੇ ਹੋਰ ਕਰਮ ਅਸ਼ਰੱਧਾ ਪੂਰਵਕ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਅਸਤ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਉਹ ਨਾਂ ਇਸ ਲੋਕ ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਨਾਂ ਮਰਨ ਦੇ ਬਾਅਦ ਫਲਦਾ ਹੈ |17.28|

   O Arjuna, Anything done as sacrifice, charity or penance without faith in the Supreme is impermanent. It is called unreal and is useless both in this life and the next.|17.28|


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय : ॥17.1-17.28॥

To be Completed by 8th June, 2016 (28 days)

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