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अध्याय चार / Chapter Four

।4.1।
श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ १ ॥

शब्दार्थ
श्रीभगवानुवाच - श्री भगवान ने कहा
इमं विवस्वते - इस, सूर्य से
योगं - योग
प्रोक्तवानहमव्ययम् - मैंने कहा, अविनाशी
विवस्वान्मनवे - सूर्य ने मनु से कहा
प्राह - कहा
मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् - मनु ने इक्ष्वाकु से कहा
भावार्थ/Translation
   श्री भगवान् ने कहा - मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा; सूर्य ने मनु से कहा; मनु ने इक्ष्वाकु से कहा ।4.1।

   ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਂਨ ਨੇ ਕਿਹਾ - ਮੈਂਨੇ ਇਸ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਯੋਗ ਨੂੰ ਸੂਰਜ ਨੂੰ ਕਿਹਾ ; ਸੂਰਜ ਨੇ ਮਨੂੰ ਨੂੰ ਕਿਹਾ; ਮਨੂੰ ਨੇ ਇਕਸ਼ਵਾਕੁ ਨੂੰ ਕਿਹਾ ।4.1।

   Shri Krishna Said - I imparted this timeless Yoga to Sun-Lord, He imparted to Manu, and Manu imparted it to Ikshvaku. ।4.1।

।4.2।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ २ ॥

शब्दार्थ
एवं परम्पराप्राप्तमिमं - इस प्रकार परम्परा से प्राप्त
राजर्षयो - राजर्षियों ने
विदुः - जाना
स कालेनेह - वह समय से
महता - बहुत
योगो - योग
नष्टः - लुप्त
परन्तप - हे अर्जुन

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु यह योग बहुत समय बीतने से लुप्त हो गया ।4.2।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ! ਇਸ ਤਰਾਂ ਪਰੰਪਰਾ ਤੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਇਸ ਯੋਗ ਨੂੰ ਰਾਜਰਿਸ਼ੀਆਂ ਨੇ ਜਾਣਿਆ, ਪਰ ਇਹ ਯੋਗ ਬਹੁਤ ਸਮਾਂ ਗੁਜ਼ਰਨ ਨਾਲ ਲੁਪਤ ਹੋ ਗਿਆ ।4.2।

   O Arjuna! This Yoga has been known to royal sages throguh succession, but knowledge of this Yoga has been lost due to long lapse of time.।4.2।

।4.3।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥ ३ ॥

शब्दार्थ
स एवायं - वही
मया - मैंने
तेऽद्य - तुझे आज
योगः - योग
प्रोक्तः - कहा
पुरातनः - पुरातन
भक्तोऽसि - भक्त है
मे सखा - और सखा
चेति - इसलिए
रहस्यं - गोपणीय
ह्येतदुत्तमम् - यह बड़ा ही उत्तम

भावार्थ/Translation
   तू मेरा भक्त और सखा है, इसलिए वही पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा, क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है ।4.3।

   ਤੂੰ ਮੇਰਾ ਭਗਤ ਅਤੇ ਮਿੱਤਰ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ ਉਹੀ ਪੁਰਾਤਨ ਯੋਗ ਅੱਜ ਮੈਂ ਤੈਨੂੰ ਕਿਹਾ, ਕਿਉਂਕਿ ਇਹ ਬਹੁਤ ਹੀ ਉੱਤਮ ਰਹੱਸ ਹੈ ।4.3।

   You are my friend and devotee, therefore, I am imparting you, the same ancient Yoga, which is a profound mystery. ।4.3।

।4.4।
अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ ४ ॥

शब्दार्थ
अर्जुन उवाच - अर्जुन ने कहा
अपरं - अभी का है
भवतो - आपका
जन्म - जन्म
परं जन्म - जन्म पुराना है
विवस्वतः - सूर्य का
कथमेतद्विजानीयां - यह बात मैं कैसे समझूँ
त्वमादौ - आपने ही आदिकाल में
प्रोक्तवानिति - कहा था

भावार्थ/Translation
   अर्जुन बोले - आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है; आपने ही आदिकाल में यह योग कहा था, यह बात मैं कैसे समझूँ? ।4.4।

   ਅਰਜੁਨ ਬੋਲੇ - ਤੁਹਾਡਾ ਜਨਮ ਤਾਂ ਹੁਣੇ ਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸੂਰਜ ਦਾ ਜਨਮ ਬਹੁਤ ਪੁਰਾਨਾ ਹੈ; ਤੁਸੀਂ ਹੀ ਆਦਿਕਾਲ ਵਿੱਚ ਇਹ ਯੋਗ ਕਿਹਾ ਸੀ, ਇਹ ਗੱਲ ਮੈਂ ਕਿਵੇਂ ਸਮਝਾਂ? ।4.4।

   Arjuna Said - Your birth may be some years back but the birth of the Sun is too many years back. How I can understand that you imparted this Yoga to Sun-lord. ।4.4।

।4.5।
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ५ ॥

शब्दार्थ
श्रीभगवानुवाच - श्री भगवान् ने कहा
बहूनि - अनेक
मे व्यतीतानि - मेरे हो चुके हैं
जन्मानि - जन्म
तव चार्जुन - तेरे भी अर्जुन
तान्यहं वेद - उनको मैं जानता हूँ
सर्वाणि - सबको
न त्वं वेत्थ - तू नहीं जानता
परन्तप - अर्जुन

भावार्थ/Translation
   श्री भगवान बोले- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता ।4.5।

   ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨ ਬੋਲੇ - ਹੇ ਅਰਜੁਨ! ਮੇਰੇ ਅਤੇ ਤੇਰੇ ਅਨੇਕ ਜਨਮ ਹੋ ਚੁੱਕੇ ਹਨ; ਉਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰਿਆ ਨੂੰ ਮੈਂ ਜਾਣਦਾ ਹਾਂ, ਤੂੰ ਨਹੀਂ ਜਾਣਦਾ ।4.5।

   Sri Krishna said - O Arjuna, many births of Mine, as well as of yours have passed. I know all of them, but you do not know. ।4.5।

।4.6।
अजोऽपिसन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ६ ॥

शब्दार्थ
अजोऽपिसन्नव्ययात्मा - अजन्मा और अविनाशी होते हुए भी
भूतानामीश्वरोऽपि - समस्त प्राणियों का ईश्वर भी
सन् - होते हुए
प्रकृतिं - प्रकृति को
स्वामधिष्ठाय - अपनी, अवलम्ब
सम्भवाम्यात्ममायया - अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ

भावार्थ/Translation
   मैं अजन्मा और अविनाशी होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति में स्थित, अपनी माया से प्रकट होता हूँ ।4.6।

   ਮੈਂ ਅਜਨਮਾ ਅਤੇ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਹੁੰਦੇ ਹੋਏ ਵੀ ਅਤੇ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਦਾ ਰੱਬ ਹੁੰਦੇ ਹੋਏ ਵੀ ਆਪਣੀ ਕੁਦਰਤ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ, ਆਪਣੀ ਮਾਇਆ ਨਾਲ ਪਰਕਟ ਹੁੰਦਾ ਹਾਂ ।4.6।

   Though I am birthless and imperishable, and the God of all beings, (still) I take birth using my transcendental energy by presiding over my nature. ।4.6।

।4.7।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ७ ॥

शब्दार्थ
यदा यदा - जब-जब
हि - धर्म की
धर्मस्य -
ग्लानिर्भवति - हानि होती है
भारत - अर्जुन
अभ्युत्थानमधर्मस्य - अधर्म की वृद्धि
तदात्मानं - तब अपने आपको
सृजाम्यहम् - मैं रचता हूँ

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ ।4.7।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ! ਜਦੋਂ-ਜਦੋਂ ਧਰਮ ਦਾ ਨੁਕਸਾਨ ਅਤੇ ਅਧਰਮ ਦਾ ਵਾਧਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ , ਤੱਦ-ਤੱਦ ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਜ਼ਾਹਰ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ।4.7।

   O Arjuna, whenever there is a decline in virtue and increase of vice, then I do manifest Myself. ।4.7।

।4.8।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ८ ॥

शब्दार्थ
परित्राणाय - रक्षा करनेके लिये
साधूनां - साधुओं (अच्छे लोगों) की
विनाशाय - विनाश करने के लिये
च दुष्कृताम् - पाप कर्म करने वालों का
धर्मसंस्थापनार्थाय - धर्म स्थापना के लिये
सम्भवामि - प्रकट होता हूँ
युगे युगे - युग-युग में

भावार्थ/Translation
   साधुओं (अच्छे लोगों) की रक्षा करने के लिये, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की स्थापना के लिये मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ ।4.8।

   ਸਾਧੁਆਂ (ਚੰਗੇ ਲੋਕਾਂ) ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਕਰਣ ਲਈ, ਪਾਪ ਕਰਮ ਕਰਣ ਵਾਲਿਆਂ ਦਾ ਨਾਸ਼ ਕਰਣ ਲਈ ਅਤੇ ਧਰਮ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਲਈ ਮੈਂ ਯੁੱਗ-ਯੁੱਗ ਵਿੱਚ ਅਵਤਾਰ ਲੈਂਦਾ ਹਾਂ ।4.8।

   For protection of the pious, the destruction of the wicked, and establishing virtue, I manifest Myself in every age. ।4.8।

।4.9।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ९ ॥

शब्दार्थ
जन्म कर्म - जन्म और कर्म
च मे - मेरा
दिव्यमेवं - दिव्य है
यो वेत्ति - जो जानता है
तत्त्वतः - यथार्थ (तत्त्व से)
त्यक्त्वा - त्याग कर
देहं पुनर्जन्म - शरीर को, फिर जन्म
नैति मामेति - नहीं प्राप्त होता, मुझे प्राप्त होता
सोऽर्जुन - वह अर्जुन

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है, इस प्रकार जो पुरुष तत्त्व से जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता; वह मुझे प्राप्त होता है ।4.9।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ! ਮੇਰਾ ਜਨਮ ਅਤੇ ਕਰਮ ਅਲੋਕਿਕ ਹਨ, ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਜੋ ਪੁਰਖ ਇਸ ਦਾ ਤੱਤ ਸਮਝਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਸਰੀਰ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕੇ ਫਿਰ ਜਨਮ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਲੈਂਦਾ; ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।4.9।

   O Arjuna, My birth and actions are transcendental, who knows this truth for sure, he is not born again. once he leaves the body, he comes to Me. ।4.9।

।4.10।
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ १० ॥

शब्दार्थ
वीतरागभयक्रोधा - राग, भय और र्कोध रहित
मन्मया - मेरे में तल्लीन
मामुपाश्रिताः - मेरे ही आश्रित
बहवो - बहुत-से
ज्ञानतपसा - ज्ञान, तप से
पूता - पवित्र होकर
मद्भावमागताः - मेरे भाव को प्राप्त हैं

भावार्थ/Translation
   जिनके राग, भय और र्कोध नष्ट हो गये हैं और मुझ में स्थित हैं, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत, ज्ञान और तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए हैं ।4.10।

   ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਰਾਗ, ਡਰ ਅਤੇ ਕਰੋਧ ਨਸ਼ਟ ਹੋ ਗਏ ਹਨ ਅਤੇ ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹਨ, ਅਜਿਹੇ ਮੇਰੇ ਸਹਾਰੇ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਬਹੁਤ, ਗਿਆਨ ਅਤੇ ਤਪ ਨਾਲ ਪਵਿਤਰ ਹੋ ਕੇ ਮੇਰੇ ਸਰੂਪ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਏ ਹਨ ।4.10।

   Many who are devoid of attachment, fear and anger, who are absorbed in Me and had taken refuge in Me, and are purified by the austerity and knowledge, have attained My state. ।4.10।

।4.11।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ ११ ॥

शब्दार्थ
ये यथा - जो जिस प्रकार
मां - मेरी
प्रपद्यन्ते - शरण लेते हैं
तांस्तथैव - उनको उसी प्रकार
भजाम्यहम् - मैं भजता हूँ
मम - मेरे
वर्त्मानुवर्तन्ते - मार्ग का अनुसरण करते हैं
मनुष्याः - मनुष्य
पार्थ - हे अर्जुन
सर्वशः - सभी

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन! जो जिस भाव से मेरी और आते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ।4.11।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ! ਜੋ ਜਿਸ ਭਾਵਨਾ ਨਾਲ ਮੇਰੇ ਵੱਲ ਆਉਂਦੇ ਹਨ, ਮੈਂ ਵੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਉਸੀ ਤਰਾਂ ਭਜਦਾ ਹਾਂ, ਕਿਉਂਕਿ ਮਨੁੱਖ ਸਭ ਪ੍ਰਕਾਰ ਨਾਲ ਮੇਰੇ ਹੀ ਰਸਤੇ ਤੇ ਚਲਦੇ ਹਨ ।4.11।

   O Arjuna, people approach me in different ways with different feelings, I favor them and think of them in same manner, becasue all are following my path only in every way. ।4.11।

।4.12।
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ १२ ॥

शब्दार्थ
काङ्क्षन्तः - अभिलाषा रखने वाले
कर्मणां - कर्मों का
सिद्धिं - फल
यजन्त - पूजते हैं
इह देवताः - देवताओं को
क्षिप्रं हि - जल्दी
मानुषे - मनुष्य
लोके - लोक
सिद्धिर्भवति - सिद्धि मिल जाती है
कर्मजा - कर्मों की

भावार्थ/Translation
   कर्मों की सिद्धि (फल) चाहने वाले देवताओं को पूजते हैं, क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है ।4.12।

   ਕਰਮਾਂ ਦੀ ਸਿੱਧੀ (ਫਲ) ਲੋਚਣ ਵਾਲੇ ਦੇਵਤਿਆਂ ਨੂੰ ਪੂਜਦੇ ਹਨ, ਕਿਉਂਕਿ ਇਸ ਮਨੁੱਖ ਲੋਕ ਵਿੱਚ ਕਰਮਾਂ ਨਾਲ ਪੈਦਾ ਹੋਣ ਵਾਲੀ ਸਿੱਧੀ ਜਲਦੀ ਮਿਲ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ।4.12।

   Longing for the fruition of actions, they worship the gods here. For, in the human world, success from action comes quickly. ।4.12।

।4.13।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ १३ ॥

शब्दार्थ
चातुर्वर्ण्यं - चारों वर्णों की
मया - मेरे द्वारा
सृष्टं - रचना की गयी है
गुणकर्मविभागशः - गुण और कर्मों के विभाग से
तस्य कर्तारमपि मां - उसका कर्ता होने पर भी
विद्ध्यकर्तारमव्ययम् - अकर्ता और अविनाशी जानो

भावार्थ/Translation
   गुण और कर्मों के विभाग से चारों वर्णों की रचना मेरे द्वारा की गयी है। उसका कर्ता होने पर भी, मुझे अकर्ता और अविनाशी जानो ।4.13।

   ਗੁਣ ਅਤੇ ਕਰਮਾਂ ਦੇ ਵਿਭਾਗ ਅਨੁਸਾਰ ਚਾਰਾਂ ਵਰਣਾਂ ਦੀ ਰਚਨਾ ਮੇਰੇ ਦੁਆਰਾ ਕੀਤੀ ਗਈ ਹੈ। ਉਸਦਾ ਕਰਤਾ ਹੋਣ ਤੇ ਵੀ, ਮੈਨੂੰ ਅਕਰਤਾ ਅਤੇ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਜਾਨ ।4.13।

   The four castes have been created by Me through a classification of the qualities and duties. Even though I have done that, still know Me to be a non-agent (non-doer) and changeless. ।4.13।

।4.14।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ १४ ॥

शब्दार्थ
न मां कर्माणि - मुझे कर्म नहीं
लिम्पन्ति - लिप्त करते
न मे कर्मफले - कर्मफल में मेरी नहीं है
स्पृहा - आशा, ईच्छा
इति मां - इस प्रकार, मुझे
योऽभिजानाति - जो जान लेता है
कर्मभिर्न - कर्मों से नहीं
स बध्यते - वह, बँधता

भावार्थ/Translation
   मुझे कर्म लिप्त नहीं करते, कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इस प्रकार जो मुझे ठीक से जान लेता है, वह कर्मों से नहीं बँधता ।4.14।

   ਮੈਨੂੰ ਕਰਮ ਲਿਪਤ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ, ਕਰਮਫਲ ਵਿੱਚ ਮੇਰੀ ਇੱਛਾ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਜੋ ਮੈਨੂੰ ਠੀਕ ਤਰਾਂ ਜਾਨ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਕਰਮਾਂ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਬੰਨਦਾ ।4.14।

   There is no work that affects Me; nor do I aspire for the fruits of action.One who understands this truth about Me also does not become entangled in the fruits of work ।4.14।

।4.15।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥ १५ ॥

शब्दार्थ
एवं ज्ञात्वा - इस प्रकार जानकर
कृतं कर्म - कर्म किए
पूर्वैरपि - पूर्वकाल में
मुमुक्षुभिः - मोक्ष चाहने वाले
कुरु - कर
कर्मैव - कर्मों को
तस्मात्त्वं - इसलिए तू
पूर्वैः - पूर्वजों
पूर्वतरं - सदा से
कृतम् - किए जाने वाले

भावार्थ/Translation
   पूर्वकाल में मोक्ष चाहने वालों ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर ।4.15।

   ਪੁਰਾਣੇ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ ਮੁਕਤੀ ਲੋਚਣ ਵਾਲਿਆਂ ਨੇ ਵੀ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਜਾਨੂੰ ਹੋ ਕੇ ਹੀ ਕਰਮ ਕੀਤੇ ਹਨ, ਇਸ ਲਈ ਤੂੰ ਵੀ ਪੂਰਵਜਾਂ ਦੁਆਰਾ ਹਮੇਸ਼ਾ ਤੋਂ ਕੀਤੇ ਜਾਣ ਵਾਲੇ ਕਰਮਾਂ ਨੂੰ ਹੀ ਕਰ ।4.15।

   Action has been done in similar fashion by the seekers of salvation, Therefore, do your work in similat way, as done by your liberation-seeking elders. ।4.15।

।4.16।
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १६ ॥

शब्दार्थ
किं कर्म - कर्म क्या है
किमकर्मेति - अकर्म क्या है
कवयोऽप्यत्र - इस में, बुद्धिमान पुरुष भी
मोहिताः - भ्रमित
तत्ते - वह
कर्म - कर्म
प्रवक्ष्यामि - कहूँगा
यज्ज्ञात्वा - जिसको जानकर
मोक्ष्यसेऽशुभात् - अशुभ से मुक्त हो जाओगे

भावार्थ/Translation
   कर्म क्या है और अकर्म क्या है ? इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी भ्रमित हो जाते हैं। इसलिये मैं तुम्हें कर्म समझाऊँगा जिसको जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे ।4.16।

   ਕਰਮ ਕੀ ਹੈ ਅਤੇ ਅਕਰਮ ਕੀ ਹੈ? ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਵਿੱਚ ਸੂਝਵਾਨ ਪੁਰਖ ਵੀ ਭਰਮਿਤ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਮੈਂ ਤੈਨੂੰ ਕਰਮ ਸਮਝਾਵਾਂਗਾ ਜਿਸਨੂੰ ਜਾਨ ਕੇ ਤੂੰ ਕੁਝ ਵੀ ਅਸ਼ੁਭ ਹੋਣ ਤੇ ਕਰਨ ਤੋਂ ਬਚ ਜਾਏਂਗਾ ।4.16।

   What is action? What is non-action? Even the wise are puzzled in respect of these. I shall declare to you that kind of action by knowing which you will be freed from evil. ।4.16।

।4.17।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ १७ ॥

शब्दार्थ
कर्मणो - कर्म
ह्यपि - भी
बोद्धव्यं - जानना चाहिये
बोद्धव्यं - जानना चाहिये
च विकर्मणः - तथा विकर्म भी
अकर्मणश्च - अकर्म भी
बोद्धव्यं - जानना चाहिये
गहना - गहन
कर्मणो - कर्म की
गतिः - गति

भावार्थ/Translation
   कर्म भी जानना चाहिये, अकर्म भी जानना चाहिये तथा विकर्म भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है ।4.17।

   ਕਰਮ ਵੀ ਜਾਨਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ, ਅਕਰਮ ਵੀ ਜਾਨਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਵਿਕਰਮ ਵੀ ਜਾਨਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ; ਕਿਉਂਕਿ ਕਰਮ ਦੀ ਰਫ਼ਤਾਰ ਬੜੀ ਡੂੰਘੀ ਹੈ ।4.17।

   You should know, what is action, what is inaction and what is prohibited action. True nature of action is very deep to understand. ।4.17।

।4.18।
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥ १८ ॥

शब्दार्थ
कर्मण्यकर्म यः - जो कर्म में अकर्म
पश्येदकर्मणि - देखता है, अकर्म
च - और
कर्म यः - में कर्म
स बुद्धिमान्मनुष्येषु - वह मनुष्यों में बुद्धिमान है
स युक्तः - वह योगी
कृत्स्नकर्मकृत् - सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है

भावार्थ/Translation
   जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है ।4.18।

   ਜੋ ਪੁਰਖ ਕਰਮ ਵਿੱਚ ਅਕਰਮ ਅਤੇ ਅਕਰਮ ਵਿੱਚ ਕਰਮ ਵੇਖਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਮਨੁੱਖਾਂ ਵਿੱਚ ਸੂਝਵਾਨ ਹੈ, ਉਹ ਯੋਗੀ ਸੰਪੂਰਣ ਕਰਮਾਂ ਨੂੰ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਹੈ ।4.18।

   He who sees non-action in action and also action in non-action is wise among men. That Yogi is a performer of all actions. ।4.18।

।4.19।
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः ।
ज्ञानग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पणिडतं बुधाः ॥ १९ ॥

शब्दार्थ
यस्य - जिसके
सर्वे - समस्त
समारम्भाः - कार्य
कामसङ्कल्पवर्जिताः - कामना और संकल्प से रहित
ज्ञानग्निदग्धकर्माणं - ज्ञान अग्नि से भस्म हुये कर्मों वाले
तमाहुः - उसे कहते हैं
पंडितं - पण्डित
बुधाः - ज्ञानी

भावार्थ/Translation
   जिसके समस्त कार्य, कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञान-अग्नि से भस्म हुये कर्मों वाले को ज्ञानीजन, पण्डित कहते हैं ।4.19।

   ਜਿਸਦੇ ਕੁਲ ਕਾਰਜ, ਕਾਮਨਾ ਅਤੇ ਸੰਕਲਪ ਤੋ ਰਹਿਤ ਹਨ, ਅਜਿਹੇ ਉਸ ਗਿਆਨ-ਅਗਨੀ ਨਾਲ ਭਸਮ ਹੋਏ ਕਰਮਾਂ ਵਾਲੇ ਨੂੰ, ਗਿਆਨੀ ਲੋਕ, ਪੰਡਤ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ।4.19।

   He whose undertakings are all devoid of desires and (selfish) volitions and whose actions have been burnt by the fire of knowledge, the wise call him a sage. ।4.19।

।4.20।
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥ २० ॥

शब्दार्थ
त्यक्त्वा - त्यागकर
कर्मफलासङ्गं - कर्मफल की आसक्ति का त्याग
नित्यतृप्तो - सदा तृप्त है
निराश्रयः - समस्त आश्रयों से रहित
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि - कर्म में लगे हुए भी
नैव - भी नहीं
किञ्चित्करोति सः - वह कुछ करता

भावार्थ/Translation
   जो कर्मफल की आसक्ति को त्यागकर, नित्य तृप्त और सब आश्रयों से रहित है वह कर्म में लगे हुए भी, कुछ नहीं करता है ।4.20।

   ਜੋ ਕਰਮ ਫਲ ਦੀ ਆਸਕਤੀ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕੇ, ਸਦਾ ਰੱਜਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਅਤੇ ਕਿਸੇ ਦੁਨਿਆਵੀ ਆਸਰੇ ਦੀ ਆਸ ਨਹੀ ਕਰਦਾ, ਉਹ ਕਰਮਾਂ ਵਿੱਚ ਲੱਗੇ ਹੋਏ ਵੀ, ਕੁੱਝ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ।4.20।

   Having abandoned attachment to the fruits of the action, ever content, depending on nothing; though engaged in activity, he does not do anything . ।4.20।

।4.21।
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ २१ ॥

शब्दार्थ
निराशीर्यतचित्तात्मा - आशारहित, मन व बुद्धि का संयमन
त्यक्तसर्वपरिग्रहः - सब प्रकार के संग्रह का परित्याग
शारीरं - शरीर-सम्बन्धी
केवलं - केवल
कर्म - कर्म
कुर्वन्नाप्नोति - करता हुआ, प्राप्त नहीं होता
किल्बिषम् - पाप को

भावार्थ/Translation
   जिसका मन व बुद्धि पर संयम है, जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित, केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता ।4.21।

   ਜਿਸਦਾ ਮਨ ਅਤੇ ਬੁੱਧੀ ਉੱਤੇ ਸੰਜਮ ਹੈ, ਜਿਨ੍ਹੇ ਸਭ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੇ ਸੰਗ੍ਰਿਹ ਦਾ ਤਿਯਾਗ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ, ਅਜਿਹਾ ਆਸ਼ਾਰਹਿਤ, ਕੇਵਲ ਸਰੀਰ-ਸੰਬੰਧੀ ਕਰਮ ਕਰਦਾ ਹੋਇਆ ਵੀ ਪਾਪ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ।4.21।

   Without hope and with the mind and the self controlled, abandoning all sense of possession, doing mere bodily action, he incurs no sin. ।4.21।

।4.22।
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ २२ ॥

शब्दार्थ
यदृच्छालाभसन्तुष्टो - अपने-आप जो मिले, उसमें सन्तुष्ट रहता है
द्वन्द्वातीतो - सुख दुःख आदि द्वन्द्व से परे
विमत्सरः - ईर्ष्या से रहित
समः - सम है
सिद्धावसिद्धौ - सिद्धि और असिद्धि (लाभ एवं हानि) में
च कृत्वापि - वह करते हुए भी
न निबध्यते - नहीं बँधता

भावार्थ/Translation
   जो अपने-आप जो मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहता है और जो ईर्ष्या से रहित, (सुख दुःख आदि) द्वन्द्वों से अतीत तथा सिद्धि और असिद्धि (लाभ एवं हानि) में सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता ।4.22।

   ਜੋ ਆਪਣੇ-ਆਪ ਮਿਲ ਜਾਵੇ, ਉਸ ਵਿੱਚ ਸੰਤੁਸ਼ਟ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜੋ ਈਰਖਾ ਰਹਿਤ, (ਸੁਖ ਦੁੱਖ ਆਦਿ) ਦਵੰਦ ਤੋਂ ਪਰੇ ਅਤੇ ਸਿੱਧੀ ਅਤੇ ਅਸਿੱਧੀ (ਮੁਨਾਫ਼ਾ ਅਤੇ ਨੁਕਸਾਨ) ਵਿੱਚ ਬਰਾਬਰ ਹੈ, ਉਹ ਕਰਮ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਵੀ ਉਸ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਬੰਣਿਆ ਜਾਂਦਾ ।4.22।

   Remaining contended with whatever comes on its own, transcending the dualities (pairs of opposites), entertaining no jealously, and remaning equal in success and in failure, he does not get bound, even when he acts. ।4.22।

।4.23।
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥ २३ ॥

शब्दार्थ
गतसङ्गस्य - आसक्ति रहित
मुक्तस्य - मुक्त है
ज्ञानावस्थितचेतसः - चित्त ज्ञान में स्थित है
यज्ञायाचरतः - यज्ञ (सृष्टि-चक्र संचालन व प्राणी मात्र के हित) के लिये आचरण करने वाले
कर्म - कर्म
समग्रं - समस्त
प्रविलीयते - लीन हो जाते हैं

भावार्थ/Translation
   जो आसक्ति रहित और मुक्त है, जिसका चित्त ज्ञान में स्थित है, यज्ञ (सृष्टि-चक्र संचालन व प्राणी मात्र के हित) के लिये आचरण करने वाले ऐसे पुरुष के समस्त कर्म लीन हो जाते हैं ।4.23।

   ਜੋ ਆਸਕਤੀ ਰਹਿਤ ਅਤੇ ਮੁਕਤ ਹੈ, ਜਿਸਦਾ ਚਿੱਤ ਗਿਆਨ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹੈ, ਯੱਗ (ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ-ਚੱਕਰ ਸੰਚਾਲਨ ਅਤੇ ਸਬ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਦੇ ਹਿੱਤ) ਲਈ ਆਚਰਣ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਅਜਿਹੇ ਪੁਰਖ ਦੇ ਸਾਰੇ ਕਰਮ ਲੀਨ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ।4.23।

   Who has got rid of attachment and is liberated, whose mind is always aware of supreme knowledge, Who works for the ultimate benefit of mankind, such person's actions are fully dissolved. ।4.23।

।4.24।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ २४ ॥

शब्दार्थ
ब्रह्मार्पणं - अर्पण (अर्पण करने का साधन) भी ब्रह्म है
ब्रह्म - ब्रह्म है
हविर्ब्रह्माग्नौ - हवि भी ब्रह्म है, अग्नि में
ब्रह्मणा - करने वाला भी ब्रह्म है
हुतम् - आहुति देना
ब्रह्मैव - भी ब्रह्म है
तेन - उससे
गन्तव्यं - प्राप्त
ब्रह्मकर्मसमाधिना - ब्रह्म कर्म करने में समाधि ( प्रवीणता हो गयी है)

भावार्थ/Translation
   जिस यज्ञ में अर्पण करने का साधन भी ब्रह्म है, अर्पण करने की हवि भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देना भी ब्रह्म है, जिस मनुष्य की ब्रह्म कर्म करने में प्रवीणता हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है ।4.24।

   ਜਿਸ ਯੱਗ ਵਿੱਚ ਅਰਪਣ ਕਰਣ ਦਾ ਸਾਧਨ ਵੀ ਬ੍ਰਹਮ ਹੈ, ਅਰਪਣ ਕਰਣ ਦਾ ਸਮਾਨ ਵੀ ਬ੍ਰਹਮ ਹੈ ਅਤੇ ਬਰਹਮਰੂਪ ਕਰਤਾ ਦਾ ਬ੍ਰਹਮਰੂਪ ਅਗਨਿ ਵਿੱਚ ਆਹੁਤੀ ਦੇਣਾ ਵੀ ਬ੍ਰਹਮ ਹੈ, ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਬ੍ਰਹਮ ਕਰਮ ਕਰਣ ਵਿੱਚ ਨਿਪੁੰਨਤਾ ਹੋ ਗਈ ਹੈ, ਉਸਦੇ ਦੁਆਰਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਣ ਲਾਇਕ ਫਲ ਵੀ ਬ੍ਰਹਮ ਹੀ ਹੈ ।4.24।

   The tools used to do the work are also of supreme nature, materials used to to do the work are also of supreme nature, Worker himself doing the work is also of supreme nature. The act of doing the work is also of supreme nature. The person who has become perfect in doing the works in the state of meditation with spreme knowledge, is also likely to receive the fruits of his action which are also of supreme nature. ।4.24।

।4.25।
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ २५ ॥

शब्दार्थ
दैवमेवापरे - देवताओं का ही, दूसरे
यज्ञं - यज्ञ
योगिनः - योगीजन
पर्युपासते - करते हैं
ब्रह्माग्नावपरे - ब्रह्म अग्नि, दूसरे
यज्ञं - यज्ञ
यज्ञेनैवोपजुह्वति - यज्ञ का ही हवन किया करते

भावार्थ/Translation
   कुछ देवताओं के पूजन निमित्त यज्ञ करते हैं और अन्य योगीजन भाव-जप-समाधि यज्ञ द्वारा परमात्मारूप अग्नि में हवन किया करते हैं (या भागवत कर्मों को यज्ञ स्वरूप मानकर यज्ञ स्वरूप भगवान को अर्पण करते हैं) ।4.25।

   ਕੁੱਝ ਦੇਵਤਿਆਂ ਦੀ ਪੂਜਾ ਲਈ ਯੱਗ ਕਰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਹੋਰ ਯੋਗੀਜਨ ਭਾਵ-ਜਪ-ਸਮਾਧੀ ਯੱਗ ਦੁਆਰਾ ਪਰਮਾਤਮਾਰੂਪ ਅੱਗ ਵਿੱਚ ਹਵਨ ਕਰਦੇ ਹਨ (ਜਾਂ ਭਾਗਵਤ ਕਰਮਾਂ ਨੂੰ ਯੱਗ ਸਰੂਪ ਮੰਨ ਕੇ ਯੱਗ ਸਰੂਪ ਭਗਵਾਨ ਨੂੰ ਅਰਪਣ ਕਰਦੇ ਹਨ ) ।4.25।

   Some do the offereing cermony to please the gods and others do the meditation-chanting as offering to the almighty (or consider their just and self-less tasks as offering to the almighty God). ।4.25।

।4.26।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ २६ ॥

शब्दार्थ
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये - श्रोत्र तथा अन्य इन्द्रियों का
संयमाग्निषु - संयम रूप अग्नियों में
जुह्वति - हवन करते हैं
शब्दादीन्विषयानन्य - शब्द आदि विषयों का
इन्द्रियाग्निषु - इन्द्रिय आदि अग्नियों में हवन करते हैं
जुह्वति - हवन करते हैं

भावार्थ/Translation
   अन्य योगीजन संयम रूप अग्नियों में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन करते हैं (अर्थात् इन्द्रियोंका संयम करते हैं)। अन्य इन्द्रिय रूप अग्नियों में शब्द आदि विषयों का हवन करते हैं (अर्थात् इन्द्रियों द्वारा शास्त्रसम्मत विषयों के ग्रहण करने को ही होम मानते हैं) ।4.26।

   ਕੁਝ ਯੋਗੀਜਨ ਸੰਜਮ ਰੂਪ ਅਗਨੀਆਂ ਵਿੱਚ ਸ਼ਰੋਤਰਾਦਿ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦਾ ਹਵਨ ਕਰਦੇ ਹਨ (ਅਰਥਾਤ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦਾ ਸੰਜਮ ਕਰਦੇ ਹਨ)। ਕੁਝ ਇੰਦਰੀਆਂ ਰੂਪ ਅਗਨੀਆਂ ਵਿੱਚ ਸ਼ਬਦ ਆਦਿ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਦਾ ਹਵਨ ਕਰਦੇ ਹਨ (ਅਰਥਾਤ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੁਆਰਾ ਸ਼ਾਸਤਰਾਂ ਵਿੱਚ ਕਹੇ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਦੇ ਕਬੂਲ ਕਰਣ ਨੂੰ ਹੀ ਹੋਮ ਮੰਣਦੇ ਹਨ) ।4.26।

   Others offer as oblations of hearing and other senses in the fires of restraint. Some others offer as oblations the objects of the senses (as per the guidelines of great books and personalities), into the fires of their senses. ।4.26।

।4.27।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ २७ ॥

शब्दार्थ
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि - सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी क्रियाओं को
प्राणकर्माणि - प्राणों की क्रियाओं को
चापरे - अन्य
आत्मसंयमयोगाग्नौ - आत्म संयम योग रूप अग्नि में
जुह्वति - हवन किया करते हैं
ज्ञानदीपिते - ज्ञानसे प्रकाशित

भावार्थ/Translation
   अन्य सम्पूर्ण इन्द्रियों की क्रियाओं को और प्राणों (सांसों) की क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं ।4.27।

   ਕੁਝ ਸੰਪੂਰਣ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੀਆਂ ਕਿਰਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਅਤੇ ਪ੍ਰਾਣਾਂ (ਸਾਹਾਂ) ਦੀਆਂ ਕਿਰਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਗਿਆਨ ਨਾਲ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਆਤਮ ਸੰਜਮ ਯੋਗਰੂਪ ਅੱਗ ਵਿੱਚ ਹਵਨ ਕਰਦੇ ਹਨ ।4.27।

   Others again sacrifice all the activities of the senses and those of the breath (vital energy) in the fire of the Yoga of self-restraint kindled by knowledge. ।4.27।

।4.28।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ २८ ॥

शब्दार्थ
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा - द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ
योगयज्ञास्तथापरे - और कुछ योग यज्ञ
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च - स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ करने वाले
यतयः - साधक
संशितव्रताः - कठिन व्रत करने

भावार्थ/Translation
   कुछ द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ और योग यज्ञ करने वाले होते हैं; और दूसरे कठिन व्रत करने वाले स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ करने वाले साधक होते हैं ।4.28।

   ਕੁੱਝ ਪਦਾਰਥ ਯੱਗ, ਤਪ ਯੱਗ ਅਤੇ ਯੋਗ ਯੱਗ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ; ਅਤੇ ਦੂੱਜੇ ਔਖਾ ਵਰਤ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਸਵਾਧਿਆਏ ਅਤੇ ਗਿਆਨ ਯੱਗ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਸਾਧਕ ਹੁੰਦੇ ਹਨ ।4.28।

   Others perform the sacrifice of material objects or austerities or Yoga; while others who can keep difficult vows, offer their scriptural study and knowledge as sacrifice. ।4.28।

।4.29।
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥ २९ ॥

शब्दार्थ
अपाने - दूसरे
जुह्वति - हवन करते हैं
प्राणं - प्राण का
प्राणेऽपानं - अपान में प्राण का
तथापरे - अन्य कितने
प्राणापानगती - प्राण और अपान की गति
रुद्ध्वा - रोककर
प्राणायामपरायणाः - प्राणायाम के परायण (अवलम्बित) हुए

भावार्थ/Translation
   दूसरे प्राणायाम के परायण हुए, अपान में प्राण का, प्राण और अपान की गति रोककर फिर प्राण में अपान का हवन करते हैं ।4.29।

   ਦੂੱਜੇ ਪ੍ਰਾਣਾਯਾਮ ਦੇ ਪਰਾਇਣ ਹੋਏ, ਅਪਾਨ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਾਣ ਦਾ, ਪ੍ਰਾਣ ਅਤੇ ਅਪਾਨ ਦੀ ਰਫ਼ਤਾਰ ਰੋਕ ਕੇ ਫਿਰ ਪ੍ਰਾਣ ਵਿੱਚ ਅਪਾਨ ਦਾ ਹਵਨ ਕਰਦੇ ਹਨ ।4.29।

   Others absorbed in the breath-control offer the following action as sacrifice- the outgoing breath in the incoming, restraining the outgoing and incoming breaths, and then incoming in the outgoing. ।4.29।

।4.30।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥ ३० ॥

शब्दार्थ
अपरे - अन्य
नियताहाराः - नियमित आहार
प्राणान्प्राणेषु - प्राणों का प्राणों में
जुह्वति - हवन किया करते हैं
सर्वेऽप्येते - सभी साधक
यज्ञविदो - यज्ञों को जानने वाले हैं
यज्ञक्षपितकल्मषाः - यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले

भावार्थ/Translation
   अन्य नियमित आहार करने वाले प्राणों का प्राणों में हवन किया करते हैं। ये सभी यज्ञों को जानने वाले और यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले हैं ।4.30।

   ਕੁਝ ਨਿਯਤ ਖਾਣਾ ਖਾਉਣ ਵਾਲੇ ਪ੍ਰਾਣਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਾਣਾਂ ਵਿੱਚ ਹਵਨ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਇਹ ਸਾਰੇ ਯੱਗਾਂ ਨੂੰ ਜਾਣਨ ਵਾਲੇ ਅਤੇ ਯੱਗਾਂ ਨਾਲ ਪਾਪਾਂ ਦਾ ਨਾਸ਼ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਹਨ ।4.30।

   Some who have regulated eating habits, offer the pranas into pranas. All these persons know what are the actions to be done and have their sins destroyed by such actions. ।4.30।

।4.31।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ ३१ ॥

शब्दार्थ
यज्ञशिष्टामृतभुजो - यज्ञ के अवशिष्ट अमृत को भोगने वाले
यान्ति - प्राप्त होते हैं
ब्रह्म - ब्रह्म को
सनातनम् - सनातन
नायं - भी नहीं
लोकोऽस्त्ययज्ञस्य - यज्ञ रहित को यह लोक नहीं
कुतोऽन्यः - अन्य कैसे मिलेगा
कुरुसत्तम - हे कुरुश्रेष्ठ

भावार्थ/Translation
   हे कुरुश्रेष्ठ ! यज्ञ के अवशिष्ट अमृत को भोगने वाले, सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञ रहित को यह लोक भी नहीं मिलता, फिर परलोक कैसे मिलेगा? ।4.31।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ! ਯੱਗ ਦੀ ਰਹਿੰਦ-ਖੂੰਦ ਰੂਪੀ ਅਮ੍ਰਿਤ ਨੂੰ ਭੋਗਣ ਵਾਲੇ, ਸਨਾਤਨ ਬ੍ਰਹਮ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਯੱਗ ਰਹਿਤ ਨੂੰ ਇਹ ਲੋਕ ਵੀ ਨਹੀਂ ਮਿਲਦਾ, ਫਿਰ ਪਰਲੋਕ ਕਿਵੇਂ ਮਿਲੇਗਾ? ।4.31।

   O Arjuna! Those who eat the remnants of the sacrifice, which are like nectar, go to the eternal Brahman. This world is not for the man who does not perform sacrifice; how then can he have the other world. ।4.31।

।4.32।
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्षयसे ॥ ३२ ॥

शब्दार्थ
एवं - इसी प्रकार
बहुविधा - बहुत तरह के
यज्ञा - यज्ञ
वितता - विस्तार से कहे गए
ब्रह्मणो - ज्ञानियों
मुखे - मुख से
कर्मजान्विद्धि - जान
तान्सर्वानेवं - उन सबको तू
ज्ञात्वा - जानकर
विमोक्षयसे - मुक्त हो जाएगा

भावार्थ/Translation
   इसी प्रकार बहुत तरह के यज्ञ ज्ञानियों ने विस्तार से कहे हैं। उन सबको कर्मजन्य (करने योग्य) जान जिनके करने से मुक्त हो जाएगा ।4.32।

   ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਬਹੁਤ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਯੱਗ ਗਿਆਨੀਆਂ ਨੇ ਵਿਸਥਾਰ ਨਾਲ ਕਹੇ ਹਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰਿਆ ਨੂੰ ਕਰਣ ਲਾਇਕ ਜਾਨ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਕਰਣ ਨਾਲ ਤੂੰ ਮੁਕਤ ਹੋ ਜਾਵੇਂਗਾ ।4.32।

   Thus many forms of sacrifices have been given in the holy books. Know all these born of actions and worthy to perform. Knowing thus, you shall be free. ।4.32।

।4.33।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्याज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥

शब्दार्थ
श्रेयान्द्रव्यमयाद्याज्ञाज्ज्ञानयज्ञः - द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है
परन्तप - शत्रुनाशक
सर्वं - सम्पूर्ण
कर्माखिलं - सम्पूर्ण कर्म
पार्थ - हे अर्जुन
ज्ञाने - ज्ञान में
परिसमाप्यते - समाप्त हो जाते हैं

भावार्थ/Translation
   हे शत्रुनाशक अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में विलीन हो जाते हैं ।4.33।

   ਹੇ ਸ਼ਤਰੁਨਾਸ਼ਕ ਅਰਜੁਨ ! ਪਦਾਰਥ ਯੱਗ ਦੇ ਨਾਲੋਂ ਗਿਆਨ ਯੱਗ ਅਤਿਅੰਤ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਹੈ ਅਤੇ ਸੰਪੂਰਣ ਕਰਮ ਗਿਆਨ ਵਿੱਚ ਵਿਲੀਨ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ।4.33।

   O killer of foes, Arjuna! The offereing of knowledge is superior to materials sacrifice. All actions and everything else culminate in knowledge. ।4.33।

।4.34।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४ ॥

शब्दार्थ
तद्विद्धि - उस को जानो
प्रणिपातेन - साष्टांग प्रणाम
परिप्रश्नेन - प्रश्न करके
सेवया - सेवा करके
उपदेक्ष्यन्ति - उपदेश करेंगे
ते ज्ञानं - ज्ञान का
ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः - ये तत्त्व को देखने-समझने वाले ज्ञानी

भावार्थ/Translation
   उस (ज्ञान) को साष्टांग प्रणाम, प्रश्न तथा सेवा करके जानो ; ये तत्त्व देखने-समझने वाले ज्ञानी पुरुष तुम्हें ज्ञान का उपदेश करेंगे ।4.34।

   ਉਸ (ਗਿਆਨ) ਨੂੰ ਸਾਸ਼ਟਾਂਗ ਪਰਨਾਮ, ਪ੍ਰਸ਼ਨ ਅਤੇ ਸੇਵਾ ਕਰਕੇ ਜਾਨ; ਇਹ ਤੱਤਵ ਦੇਖਣ-ਸੱਮਝਣ ਵਾਲੇ ਗਿਆਨੀ ਪੁਰਖ ਤੈਨੂੰ ਗਿਆਨ ਦਾ ਉਪਦੇਸ਼ ਕਰਣਗੇ ।4.34।

   You should learn this from those, endowed with knowledge, by prostration, by inquiry and by offering service to them; those who are capable of showing the truth will give you the ultimate knowledge. ।4.34।

।4.35।
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ ३५ ॥

शब्दार्थ
यज्ज्ञात्वा - जिसको जानकर
न पुनर्मोहमेवं - तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं
यास्यसि - प्राप्त होगा
पाण्डव - हे अर्जुन
येन - जिस से
भूतान्यशेषेण - सम्पूर्ण प्राणियों को
द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो - अपने में देखेगा
मयि - मुझ में

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन! जिसको जानकर तू फिर मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा सम्पूर्ण प्राणियों को पहले अपने में और फिर मुझ में देखेगा ।4.35।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ ! ਜਿਸ ਨੂੰ ਜਾਨ ਕੇ ਤੂੰ ਫਿਰ ਮੋਹ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਵੇਂਗਾ ਅਤੇ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਨੂੰ ਪਹਿਲਾਂ ਆਪਣੇ ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਫਿਰ ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਵੇਖੇਂਗਾ ।4.35।

   O Arjuna, Knowing that you will not fall again into delusion and you will see all beings in your-self and then in Me. ।4.35।

।4.36।
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥ ३६ ॥

शब्दार्थ
अपि - भी
चेदसि - यदि
पापेभ्यः - पापियों से
सर्वेभ्यः - सब, निःसंदेह
पापकृत्तमः - पाप करने वाला है
सर्वं - सम्पूर्ण
ज्ञानप्लवेनैव - ज्ञान रूप नौका द्वारा
वृजिनं - पाप-समुद्र से
सन्तरिष्यसि - अच्छी तरह तर जाएगा

भावार्थ/Translation
   यदि तू अन्य पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा ।4.36।

   ਜੇਕਰ ਤੂੰ ਹੋਰ ਪਾਪੀਆਂ ਨਾਲੋਂ ਵੀ ਜਿਆਦਾ ਪਾਪ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਵੀ ਤੂੰ ਗਿਆਨ ਰੂਪ ਕਿਸ਼ਤੀ ਨਾਲ ਨਿ:ਸੰਦੇਹ ਸੰਪੂਰਣ ਪਾਪ-ਸਮੁੰਦਰ ਤੋਂ ਭਲੀਭਾਂਤ ਤਰ ਜਾਵੇਂਗਾ ।4.36।

   Even if you be the most sinful of all sinners, you will undoubtedly cross over all sins by the boat of knowledge alone. ।4.36।

।4.37।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ ३७ ॥

शब्दार्थ
यथैधांसि - जैसे ईंधन को
समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन - हे अर्जुन, प्रज्वलित अग्नि सर्वथा भस्म कर देती है
ज्ञानाग्निः - ज्ञानरूपी अग्नि
सर्वकर्माणि - सम्पूर्ण कर्मों को
भस्मसात्कुरुते तथा - सर्वथा भस्म कर देती है

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को सर्वथा भस्म कर देती है ।4.37।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ ! ਜਿਵੇਂ ਭੜਕਦੀ ਅੱਗ ਬਾਲਣ ਨੂੰ ਭਸਮ ਕਰ ਦਿੰਦੀ ਹੈ, ਇੰਜ ਹੀ ਗਿਆਨਰੂਪੀ ਅੱਗ ਸੰਪੂਰਣ ਕਰਮਾਂ ਨੂੰ ਭਸਮ ਕਰ ਦਿੰਦੀ ਹੈ ।4.37।

   O Arjuna, as a blazing fire reduces fuels to ashes, similarly the fire of Knowledge reduces all actions to ashes. ।4.37।

।4.38।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ३८ ॥

शब्दार्थ
न हि - नहीं, नि:संदेह
ज्ञानेन - ज्ञान के
सदृशं - समान
पवित्रमिह - पवित्र करने वाला
विद्यते - है
तत्स्वयं - उसे, स्वयं
योगसंसिद्धः - योग में सिद्ध
कालेनात्मनि - समय से अपने अंतकरण में
विन्दति - पाता है

भावार्थ/Translation
   ज्ञान के समान पवित्र करने वाला, नि:संदेह, कुछ भी नहीं है। योग में निपुण पुरुष स्वयं ही उसे समय से अपने अंतकरण में पाता है ।4.38।

   ਗਿਆਨ ਦੇ ਸਮਾਨ ਪਵਿੱਤਰ ਕਰਣ ਵਾਲਾ, ਕੁੱਝ ਵੀ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਯੋਗ ਵਿੱਚ ਨਿਪੁਣ ਪੁਰਖ ਆਪ ਹੀ ਉਸਨੂੰ ਸਮੇਂ ਨਾਲ ਆਪਣੇ ਅੰਤਕਰਣ ਵਿੱਚ ਪਾਉਂਦਾ ਹੈ ।4.38।

   Indeed, there is nothing purifying here comparable to Knowledge. One who has become perfected through yoga, realizes that by himself in his own heart at right time. ।4.38।

।4.39।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति ॥ ३९ ॥

शब्दार्थ
श्रद्धावाँल्लभते - श्रद्धावान, प्राप्त होता है
ज्ञानं तत्परः ज्ञान को, तत्पर
संयतेन्द्रियः - जितेन्द्रिय
ज्ञानं - ज्ञान
लब्ध्वा - प्राप्त होकर
परां - परम
शांतिमचिरेणाधिगच्छति - तत्काल शान्ति को प्राप्त हो जाता है

भावार्थ/Translation
   जितेन्द्रिय, तत्पर और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल ही परम शान्ति को प्राप्त होता है ।4.39।

   ਇੰਦਰੀਆਂ ਨੂੰ ਜਿੱਤਣ ਵਾਲਾ ਅਤੇ ਸ਼ਰਧਾਵਾਨ ਮਨੁੱਖ ਗਿਆਨ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਗਿਆਨ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਕੇ ਉਹ ਤੱਤਕਾਲ ਹੀ ਪਰਮ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।4.39।

   The man who is full of faith, devoted, and subdued the senses obtains (this) knowledge; and having obtained the knowledge he attains at once to the supreme peace. ।4.39।

।4.40।
अज्ञश्चाश्रद्द्धानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ४० ॥

शब्दार्थ
अज्ञश्चाश्रद्द्धानश्च - अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और
संशयात्मा - संशययुक्त
विनश्यति - नष्ट हो जाता है
नायं - न यह
लोकोऽस्ति - लोक है
न परो - न परलोक
न सुखं - और न सुख
संशयात्मनः - संशयी पुरुष के लिये

भावार्थ/Translation
   अज्ञानी, श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है, संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है, न परलोक और न सुख ।4.40।

   ਅਗਿਆਨੀ, ਸ਼ਰੱਧਾਰਹਿਤ ਅਤੇ ਸ਼ੱਕੀ ਪੁਰਖ ਨਸ਼ਟ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਸ਼ੱਕੀ ਪੁਰਖ ਲਈ ਨਾਂ ਇਹ ਲੋਕ ਹੈ, ਨਾਂ ਪਰਲੋਕ ਅਤੇ ਨਾਂ ਸੁਖ ।4.40।

   One who is ignorant and faithless, and has a doubting mind perishes. Neither this world nor the next nor happiness exists for one who has a doubting mind. ।4.40।

।4.41।
योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबन्धन्ति धनञ्जय ॥ ४१॥

शब्दार्थ
योगसन्न्यस्तकर्माणं - योग द्वारा कर्मों का त्याग किया है
ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् - ज्ञान से जिसके संशय नष्ट हो गये हैं
आत्मवन्तं - आत्मवान्
न कर्माणि - कर्म नहीं
निबन्धन्ति - बांधते
धनञ्जय - हे धनंजय

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, जिसने योग द्वारा कर्मों का त्याग किया है, ज्ञान से संशय नष्ट हो गये हैं, ऐसे आत्मवान् को, कर्म नहीं बांधते ।4.41।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜਿਨ੍ਹੇ ਯੋਗ ਨਾਲ ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਤਿਆਗ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਗਿਆਨ ਨਾਲ ਸ਼ੱਕ ਨਸ਼ਟ ਹੋ ਗਏ ਹਨ, ਅਜਿਹੇ ਆਤਮਵਾਂਨ ਨੂੰ, ਕਰਮ ਨਹੀਂ ਬੰਨਦੇ ।4.41।

   O Arjuna, He who has renounced actions by Yoga, whose doubts have been absorbed by knowledge, and who is self-possessed - actions do not bind him. ।4.41।

।4.42।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ ४२ ॥

शब्दार्थ
तस्मादज्ञानसम्भूतं - इस अज्ञानसे उत्पन्न
हृत्स्थं - हृदयमें स्थित
ज्ञानासिनात्मनः - ज्ञानरूप तलवार से
छित्त्वैनं - छेदन करके
संशयं - संशयका
योगमातिष्ठोत्तिष्ठ - योग में स्थित हो जा और खड़ा हो जा
भारत - हे भरतवंशी अर्जुन

भावार्थ/Translation
   हे भरतवंशी अर्जुन! हृदयमें स्थित इस अज्ञानसे उत्पन्न अपने संशयका ज्ञान रूप तलवार से छेदन करके समता में स्थित हो जा, और खड़ा हो जा ।4.42।

   ਹੇ ਭਰਤਵੰਸ਼ੀ ਅਰਜੁਨ ! ਹਿਰਦੇ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਇਸ ਅਗਿਆਨ ਤੋਂ ਪੈਦਾ ਆਪਣੇ ਸ਼ੱਕ ਨੂੰ ਗਿਆਨ ਰੂਪ ਤਲਵਾਰ ਨਾਲ ਚੀਰ ਕੇ ਸਮਤਾ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹੋ ਜਾ ਅਤੇ ਖੜਾ ਹੋ ਜਾ ।4.42।

   O Arjuna ! The doubt has sprung from ignornace and exists in your heart, cut these by means of knowledge-sword, practise the Yoga and stand up. ।4.42।


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥4.1-4.42॥

To be Completed by 16th April, 2015 ( 42 Days)

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