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अध्याय पांच / Chapter Five

।5.1।
अर्जुन उवाच
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥ १ ॥

शब्दार्थ
अर्जुन उवाच - अर्जुन बोले
सन्न्यासं - संन्यास की
कर्मणां - कर्मों के
कृष्ण - हे कृष्ण
पुनर्योगं - फिर योग की
च शंससि - प्रशंसा करते हैं
यच्छ्रेय - श्रेयस्कर
एतयोरेकं - दोनों में से जो एक
तन्मे - उसे
ब्रूहि - कहिए
सुनिश्चितम् - निश्चितरुप से

भावार्थ/Translation
   अर्जुन बोले - हे कृष्ण! आप कर्मों के त्याग की और फिर कर्म योग की प्रशंसा करते हैं। दोनों में से जो एक मेरे लिए श्रेयस्कर हो, उसे निश्चित रुप से कहिए ।5.1।

   ਅਰਜੁਨ ਬੋਲੇ - ਹੇ ਕ੍ਰਿਸ਼ਣ! ਤੁਸੀ ਕਰਮਾਂ ਦੇ ਤਿਆਗ ਦੀ ਅਤੇ ਫਿਰ ਕਰਮ ਯੋਗ ਦੀ ਪ੍ਰਸ਼ੰਸਾ ਕਰਦੇ ਹੋ। ਦੋਨਾਂ ਵਿੱਚੋਂ ਜੋ ਇੱਕ ਮੇਰੇ ਲਈ ਚੰਗਾ ਹੋਵੇ, ਉਸ ਨੂੰ ਨਿਸ਼ਚਿਤ ਰੁਪ ਨਾਲ ਕਹੋ ।5.1।

   Arjuna said - O Krishna! you praise renunciating the work and then praise the actions and doing dutiful work. Please tell convincingly, which one of these two is better. ।5.1।

।5.2।
श्रीभगवानुवाच
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ २ ॥

शब्दार्थ
श्री भगवानुवाच - श्री भगवान बोले
सन्न्यासः - संन्यास
कर्मयोगश्च - कर्म योग
निःश्रेयसकरावुभौ - दोनों ही परम कल्याण करने वाले हैं
तयोस्तु - दोनों में
कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो - कर्म संन्यास से कर्म योग
विशिष्यते - श्रेष्ठ है

भावार्थ/Translation
   श्री भगवान बोले - संन्यास और कर्म योग - ये दोनों ही परम कल्याण करने वाले हैं, परंतु उन दोनों में भी कर्म संन्यास से कर्म योग श्रेष्ठ है ।5.2।

   ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨ ਬੋਲੇ - ਸੰਨਿਆਸ ਅਤੇ ਕਰਮ ਯੋਗ - ਇਹ ਦੋਨੋਂ ਹੀ ਪਰਮ ਕਲਿਆਣ ਕਰਣ ਵਾਲੇ ਹਨ, ਪਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੋਨਾਂ ਵਿੱਚ ਵੀ ਕਰਮ ਸੰਨਿਆਸ ਨਾਲੋਂ ਕਰਮ ਯੋਗ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਹੈ ।5.2।

   Lord Krishna said - The renunciation of work and work in devotion are both good for liberation. But, of the two, work in devotional service is better than renunciation of work. ।5.2।

।5.3।
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ ३ ॥

शब्दार्थ
ज्ञेयः - समझो
स नित्यसन्न्यासी - उसे नित्य संन्यासी
यो न द्वेष्टि - न द्वेष करता है
न काङ्क्षति - न इच्छा करता है
निर्द्वन्द्वो हि -द्वन्द्वों से रहित
महाबाहो - हे अर्जुन!
सुखं - सुख पूर्वक
बन्धात्प्रमुच्यते - बन्धन से मुक्त हो जाता है

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन! जो न द्वेष करता है और न इच्छा करता है, उसे नित्य संन्यासी ही समझो; क्योंकि (राग-द्वेषादि) द्वन्द्वों से रहित इन्सान सुख पूर्वक बन्धन से मुक्त हो जाता है ।5.3।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ! ਜੋ ਨਾਂ ਈਰਖਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾਂ ਇੱਛਾ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਨੂੰ ਨਿੱਤ ਸੰਨਿਆਸੀ ਹੀ ਸਮਝ; ਕਿਉਂਕਿ ਦਵੰਦ ਰਹਿਤ ਇਨਸਾਨ ਸੁਖ ਨਾਲ, ਬੰਧਨ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।5.3।

   O Arjuna! One who is neither jealous nor desirous, consider him as renounced. Such a person, free from all dualities, easily overcomes material bondage. ।5.3।

।5.4।
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥ ४ ॥

शब्दार्थ
साङ्ख्ययोगौ - साङ्ख्य योग
पृथग्बालाः - मूर्ख लोग ही पृथक्
प्रवदन्ति - समझते हैं
न पण्डिताः - न कि पण्डितजन
एकमप्यास्थितः - एक में भी स्थित
सम्यगुभयोर्विन्दते - सम्यक् प्रकार से, दोनों के प्राप्त है
फलम् - फल को

भावार्थ/Translation
   संन्यास और कर्म योग को मूर्ख लोग ही पृथक् समझते हैं, न कि पण्डित जन; क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक् प्रकार से स्थित इन्सान दोनों के फल को प्राप्त होता है ।5.4।

   ਸੰਨਿਆਸ ਅਤੇ ਕਰਮ ਯੋਗ ਨੂੰ ਮੂਰਖ ਲੋਕ ਹੀ ਪ੍ਰਿਥਕ ਸਮਝਦੇ ਹਨ, ਨਾ ਕਿ ਗਿਆਨੀ ਲੋਕ; ਕਿਉਂਕਿ​ ਦੋਨਾਂ ਵਿਚੌਂ ਇੱਕ ਉੱਤੇ ਵੀ ਠੀਕ ਤਰਾਂ ਚੱਲਣ ਨਾਲ, ਮਨੁੱਖ ਦੋਨਾਂ ਦਾ ਫਲ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦਾ ਹੈ ।5.4।

   Only the ignorant consider the two philosophies (based on actions and based on analytical study or renunciation) as different, not the learned ones. He who properly adopts one of the two paths, achieves the results of both. ।5.4।

।5.5।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ ५ ॥

शब्दार्थ
यत्साङ्ख्यैः - जो सांङ्ख्य योगियों द्वारा
प्राप्यते - प्राप्त किया जाता है
स्थानं - स्थान
तद्योगैरपि - कर्म योगियों द्वारा भी वही
गम्यते - प्राप्त किया जाता है
एकं - एक
साङ्ख्यं - सांङ्ख्य योग
च योगं च - और कर्म योग
यः पश्यति - एक देखता है
स पश्यति - वही देखता है

भावार्थ/Translation
   ज्ञान योगियों द्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है; कर्म योगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो ज्ञान योग और कर्म योग को एक देखता है, वही देखता है ।5.5।

   ਗਿਆਨ ਯੋਗੀ ਜੋ ਸਥਾਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦਾ ਹੈਂ ; ਕਰਮ ਯੋਗੀ ਵੀ ਉਹੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਲਈ ਜੋ ਗਿਆਨ ਯੋਗ ਅਤੇ ਕਰਮ ਯੋਗ ਨੂੰ ਇੱਕ ਦੇਖਦਾ ਹੈ, ਉਹੀ ਦੇਖਦਾ ਹੈ ।5.5।

   That place which is reached by the Sankhya Yogi is also reached by the Karma Yogi. He sees, who sees Sankhya Yoga and Karma-Yoga as one. ।5.5।

।5.6।
सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ ६ ॥

शब्दार्थ
सन्न्यासस्तु - संन्यास
महाबाहो - हे अर्जुन
दुःखमाप्तुमयोगतः - कर्मयोग के बिना, प्राप्त होना कठिन है
योगयुक्तो - कर्मयोगी
मुनिर्ब्रह्म - मनन करने वाला, परमात्मा को
नचिरेणाधिगच्छति - शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास प्राप्त होना कठिन है और मनन करने वाला कर्म योगी परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ।5.6।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ ! ਕਰਮ ਯੋਗ ਦੇ ਬਿਨਾਂ ਸੰਨਿਆਸ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਣਾ ਔਖਾ ਹੈਂ ਅਤੇ ਚਿੰਤਨ ਕਰਨ ਵਾਲ਼ਾ ਕਰਮ ਯੋਗੀ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੂੰ ਜਲਦੀ ਹੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।5.6।

   O Arjuna! renunciation is hard to attain without following Karma-Yoga. The contemplating sage who follows action-yoga, quickly reaches the supreme personality of Godhead. ।5.6।

।5.7।
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ ७ ॥

शब्दार्थ
योगयुक्तो - कर्मयोगी
विशुद्धात्मा - विशुद्ध अन्तःकरण वाला
विजितात्मा - जिसका मन अपने वश में है
जितेन्द्रियः - जिसकी ईन्द्रियां अपने वश में है
सर्वभूतात्मभूतात्मा - सब प्राणियों से आत्मभाव रखता है
कुर्वन्नपि - कर्म करता हुआ भी
न लिप्यते - लिप्त नहीं होता

भावार्थ/Translation
   जिसका मन, ईन्द्रियां अपने वश में है, एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सब प्राणियों से आत्मभाव रखता है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता ।5.7।

   ਜਿਸਦਾ ਮਨ, ਈਂਦਰੀਆਂ ਆਪਣੇ ਵਸ ਵਿੱਚ ਹਨ, ਅਤੇ ਖਾਲਸ ਅੰਤਕਰਣ ਵਾਲਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸਭ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਨਾਲ ਆਤਮਭਾਵ ਰੱਖਦਾ ਹੈ, ਅਜਿਹਾ ਕਰਮਯੋਗੀ ਕਰਮ ਕਰਦਾ ਹੋਇਆ ਵੀ ਲਿਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ।5.7।

   An action-yogi, whose self is very pure and is fully subdued, the sense-organs controlled, and who realises his Self as the Self in all beings-he is not stained, eventhough he is a performer (of actions). ।5.7।

।5.8 , 5.9।
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥ ८ ॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ ९ ॥

शब्दार्थ
नैव - भी नहीं
किञ्चित्करोमीति - करता हूँ, ऐसा कुछ
युक्तो - सांख्ययोगी
मन्येत - मानें
तत्त्ववित् - तत्व को जानने वाला
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् - देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते, सोते, श्वास लेते
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि - बोलते, (मल-मूत्र) त्यागते, ग्रहण करते, आँखों खोलते और मूँदते भी
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु - इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में
वर्तन्त - बरत रही हैं
इति - इस प्रकार
धारयन् - समझकर

भावार्थ/Translation
   तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते, सोते, श्वास लेते, बोलते, (मल-मूत्र) त्यागते, ग्रहण करते, आँखे खोलते और मूँदते भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में बरत रही हैं- इस प्रकार मानें और सोचे कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ ।5.8,5.9।

   ਤੱਤ ਨੂੰ ਜਾਣਨ ਵਾਲਾ ਸਾਂਖਅ ਯੋਗੀ ਤਾਂ ਵੇਖਦੇ, ਸੁਣਦੇ, ਛੁਹੰਦੇ, ਸੁੰਘਦੇ, ਖਾਂਦੇ, ਚਲਦੇ, ਸੋਂਦੇ, ਸਾਂਹ ਲੈਂਦੇ, ਬੋਲਦੇ, (ਮਲ-ਮੂਤਰ) ਤਿਆਗਦੇ, ਕਬੂਲ ਕਰਦੇ, ਅੱਖਾਂ ਖੋਲ੍ਹਦੇ ਅਤੇ ਬੰਦ ਕਰਦੇ ਵੀ, ਸਭ ਇੰਦਰੀਆਂ ਆਪਣੇ-ਆਪਣੇ ਮਜ਼ਮੂਨਾਂ ਵਿੱਚ ਵਿਚਰ ਰਹੀਆਂ ਹਨ- ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਮੰਨੇ ਅਤੇ ਸੋਚੇ ਕਿ ਮੈਂ ਕੁੱਝ ਵੀ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ।5.8,5.9।

   Remaining absorbed in the Self, even while seeing, hearing, touching, smelling, eating, moving, sleeping, breathing, speaking, releasing, holding, opening and closing the eyes-remembering that the organs function in relation to the objects of the organs; the knower of Reality should think, 'I certainly do not do anything'. ।5.8,5.9।

।5.10।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ १० ॥

शब्दार्थ
ब्रह्मण्याधाय - परमात्मा में अर्पण करके
कर्माणि - कर्मों को
सङ्गं - आसक्ति को
त्यक्त्वा - त्यागकर
करोति - करता है
यः - जो
लिप्यते न - लिप्त नहीं होता
स पापेन - पाप से
पद्मपत्रमिवाम्भसा - जल में कमल के पत्ते की भाँति

भावार्थ/Translation
   जो कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके, आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह जल में कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।5.10।

   ਜੋ ਕਰਮਾਂ ਨੂੰ ਈਸ਼ਵਰ ਵਿੱਚ ਅਰਪਣ ਕਰਕੇ, ਆਸਕਤੀ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕੇ ਕਰਮ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਪਾਣੀ ਵਿੱਚ ਕਮਲ ਦੇ ਪੱਤੇ ਦੀ ਭਾਂਤੀ ਪਾਪ ਵਿੱਚ ਲਿਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ।5.10।

   He who does actions as an offering to almighty, and abandoning attachment, is not tainted by sin, just as a lotus-leaf is not tainted by water. ।5.10।

।5.11।
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ ११ ॥

शब्दार्थ
कायेन - काया से
मनसा - मन से
बुद्ध्या - बुद्धि से
केवलैरिन्द्रियैरपि - केवल इंद्रियों द्वारा भी
योगिनः - योगी
कर्म - कर्म
कुर्वन्ति - करते हैं
सङ्गं - आसक्ति को
त्यक्त्वात्मशुद्धये - त्यागकर, अंतःकरण की शुद्धि के लिये

भावार्थ/Translation
   शरीर, मन, बुद्धि और केवल इंद्रियों द्वारा भी आसक्ति को त्यागकर, योगी अंतःकरण की शुद्धि के लिये कर्म करते हैं ।5.11।

   ਸ਼ਰੀਰ, ਮਨ, ਬੁੱਧੀ ਅਤੇ ਕੇਵਲ ਇੰਦਰੀਆਂ ਨਾਲ ਵੀ ਆਸਕਤੀ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕੇ, ਯੋਗੀ ਹਿਰਦੇ ਦੀ ਸ਼ੁੱਧੀ ਲਈ ਕਰਮ ਕਰਦੇ ਹਨ ।5.11।

   Giving up attachment, the yogis undertake work merely through the body, mind, intellect and even the organs, for the purification of themselves. ।5.11।

।5.12।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ १२ ॥

शब्दार्थ
युक्तः - योगी
कर्मफलं - कर्मों के फल का
त्यक्त्वा - त्याग करके
शान्तिमाप्नोति - शान्ति को प्राप्त होता है
नैष्ठिकीम् - स्वभाविक
अयुक्तः - सकाम पुरुष
कामकारेण - कामना की प्रेरणा से
फले सक्तो - फल में आसक्त होकर
निबध्यते - बँधता है

भावार्थ/Translation
   योगी कर्मों के फल का त्याग करके स्वभाविक शान्ति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बँधता है ।5.12।

   ਯੋਗੀ ਕਰਮਾਂ ਦੇ ਫਲ ਦਾ ਤਿਆਗ ਕਰਕੇ ਅਸਲੀ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸਕਾਮ ਪੁਰਖ ਕਾਮਨਾ ਦੀ ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਨਾਲ ਫਲ ਵਿੱਚ ਮੋਹਿਤ ਹੋ ਕੇ ਬੰਨ ਜਾੰਦਾ ਹੈ ।5.12।

   A yogi, renouncing the fruits of his actions, attains lasting peace; but the unsteady man who is attached to fruits of actions, being impelled by desire, is bound. ।5.12।

।5.13।
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥ १३ ॥

शब्दार्थ
सर्वकर्माणि - सब कर्मों का
मनसा - मन से
सन्न्यस्यास्ते - संन्यास करके
सुखं - सुख से
वशी - संयमी
नवद्वारे - नवद्वार वाली
पुरे - नगरी में
देही - शरीर रूप
नैव - न
कुर्वन्न - करता है
कारयन् - करवाता है

भावार्थ/Translation
   सब कर्मों का मन से संन्यास करके संयमी पुरुष नवद्वार वाली शरीर रूप नगरी में सुख से रहता हुआ न कर्म करता है और न करवाता है ।5.13।

   ਸਭ ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਮਨੋਂ ਸੰਨਿਆਸ ਕਰਕੇ ਸੰਜਮੀ ਪੁਰਖ ਨੋਂ ਦਵਾਰ ਵਾਲੀ ਸ਼ਰੀਰ ਰੂਪ ਨਗਰੀ ਵਿੱਚ ਸੁਖ ਨਾਲ ਰਹਿੰਦਾ ਹੋਇਆ; ਨਾਂ ਕਰਮ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾਂ ਕਰਵਾਉਂਦਾ ਹੈ ।5.13।

   Having renounced all actions by mind, a man of self-control, dwells happily in his body, a nine-windowed mansion, neither performing, nor causing others to perform. ।5.13।

।5.14।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४ ॥

शब्दार्थ
न कर्तृत्वं - न कर्तापन की
न कर्माणि - न कर्म
लोकस्य - लोगों के लिए
सृजति - रचता है
प्रभुः - ईश्वर
न कर्मफलसंयोगं - न कर्मफल के संयोग को
स्वभावस्तु - परन्तु स्वभाव ही
प्रवर्तते - बरत रहा है

भावार्थ/Translation
   लोगों के लिए ईश्वर न कर्तापन, न कर्म और न कर्मफल के संयोग को रचता है; परन्तु स्वभाव ही बरत रहा है ।5.14।

   ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਰੱਬ ਨਾਂ ਹੀ ਕਰਤਾਪਨ, ਨਾਂ ਹੀਂ ਕਰਮ ਅਤੇ ਨਾਂ ਹੀ ਕਰਮਫਲ ਦੇ ਸੰਜੋਗ ਨੂੰ ਰਚਦਾ ਹੈ; ਪਰ ਸੁਭਾਅ ਹੀ ਬਰਤ ਰਿਹਾ ਹੈ ।5.14।

   The lord does not create agency, nor actions, nor union with the fruits of actions in relation to the people. It is only the inherent tendencies that function. ।5.14।

।5.15।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५ ॥

शब्दार्थ
नादत्ते - न ग्रहण करता है
कस्यचित्पापं न - न किसी के पाप कर्म को
चैव - और ही
सुकृतं - शुभ कर्म को
विभुः - सर्वव्यापी परमात्मा
अज्ञानेनावृतं - अज्ञान से ढका हुआ
ज्ञानं तेन - ज्ञान, उसी से
मुह्यन्ति - मोहित हो रहे हैं
जन्तवः - सब जीव

भावार्थ/Translation
   सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न शुभकर्म को ही ग्रहण करता है किन्तु अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है उसी से सब जीव मोहित हो रहे हैं ।5.15।

   ਸਰਵਵਿਆਪੀ ਈਸਵਰ ਨਾਂ ਹੀ ਕਿਸੇ ਦੇ ਭੈੜੇ ਕੰਮ ਨੂੰ ਅਤੇ ਨਾਂ ਹੀ ਸ਼ੁਭ ਕਰਮ ਨੂੰ ਹੀ ਕਬੂਲ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਅਗਿਆਨ ਨਾਲ ਗਿਆਨ ਢਕਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ, ਉਸ ਕਰਕੇ ਸਭ ਜੀਵ ਮੋਹਿਤ ਹੋ ਰਹੇ ਹਨ ।5.15।

   The all-pervading One takes away neither the sin nor the merit of any one. Knowledge is enveloped by ignorance by which creatures are deluded. ।5.15।

।5.16।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥ १६ ॥

शब्दार्थ
ज्ञानेन तु - ज्ञान से
तदज्ञानं - वह अज्ञान
येषां - जिनका
नाशितमात्मनः - आत्म, नष्ट हो जाता है
तेषामादित्यवज्ज्ञानं - वह ज्ञान सूर्य के सदृश
प्रकाशयति - प्रकाशित करता है
तत्परम् - परमात्मा को

भावार्थ/Translation
   परन्तु जिनका वह अज्ञान आत्मज्ञान से नष्ट हो जाता है, उनके लिए वह ज्ञान सूर्य के सदृश परमात्मा को प्रकाशित करता है ।5.16।

   ਪਰ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਉਹ ਅਗਿਆਨ ਆਤਮਗਿਆਨ ਨਾਲ ਨਸ਼ਟ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਲਈ ਉਹ ਗਿਆਨ ਸੂਰਜ ਦੀ ਤਰਾਂ ਈਸ਼ਵਰ ਨੂੰ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਕਰਦਾ ਹੈ ।5.16।

   For those in whom this ignorance is destroyed by the knowledge of the self, that knowledge, in their case, is supreme and shines like the sun. ।5.16।

।5.17।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ १७ ॥

शब्दार्थ
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः - जिनकी बुद्धि परमात्मा में स्थित है जिनका मन तद्रूप हुआ है उसमें ही जिनकी निष्ठा है वह परमात्मपरायण साधक
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं - अपुनरावृत्ति (पुनर्जन्म नहीं होता) को प्राप्त होते हैं
ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः - ज्ञान के द्वारा पापरहित पुरुष

भावार्थ/Translation
   जिसकी बुद्धि परमात्मा में स्थित है, जिसका मन तद्रूप हुआ है, जिसकी निष्ठा उसमें ही है, उस परमात्म परायण तथा ज्ञान के द्वारा पापरहित हुए साधक का पुनर्जन्म नहीं होता ।5.17।

   ਜਿਸ ਦੀ ਬੁੱਧੀ ਈਸ਼ਵਰ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹੈ, ਜਿਸ ਦਾ ਮਨ ਤਦਰੂਪ ਹੋਇਆ ਹੈ, ਜਿਸ ਦੀ ਨਿਸ਼ਠਾ ਉਸ ਵਿੱਚ ਹੀ ਹੈ, ਉਸ ਪਰਮਾਤਮ ਪਰਾਇਣ ਅਤੇ ਗਿਆਨ ਨਾਲ ਪਾਪਰਹਿਤ ਹੋਏ ਸਾਧਕ ਦਾ ਦੁਬਾਰਾ ਜਨਮ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ।5.17।

   Whose intellect is absorbed in That, whose self has become one with That, who is totally devoted to Him, Who totally rely on Him, his sins dipelled by His knowledge, do not get rebirth again (get over from the cycle of birth and death). ।5.17।

।5.18।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ १८ ॥

शब्दार्थ
विद्याविनयसम्पन्ने - विद्या और विनय से सम्पन्न
ब्राह्मणे - ब्राह्मण
गवि - गाय
हस्तिनि - हाथी
शुनि - कुत्ते
चैव - में भी
श्वपाके च - चाण्डाल
पण्डिताः - ज्ञानीजन
समदर्शिनः - सम तत्त्व को देखते हैं

भावार्थ/Translation
   ज्ञानीजन विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण तथा गाय, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी सम तत्त्व को देखते हैं ।5.18।

   ਗਿਆਨੀਜਨ ਵਿਦਿਆ ਅਤੇ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾ ਨਾਲ ਸੰਪੰਨ ਬ੍ਰਾਹਮਣ, ਗਾਂ, ਹਾਥੀ, ਕੁੱਤੇ ਅਤੇ ਚਾਂਡਾਲ ਨੂੰ ਬਰਾਬਰੀ ਨਾਲ ਵੇਖਦੇ ਹਨ ।5.18।

   The sages look with an equal eye on one endowed with learning and humility, a Brahmana, a cow, an elephant, a dog and a dog-eater. ।5.18।

।5.19।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ १९ ॥

शब्दार्थ
इहैव - उन्होंने यहीं पर
तैर्जितः - जीत लिया है
सर्गो - संसार को
येषां - जिनका
साम्ये - समदर्शी
स्थितं - है
मनः - मन
निर्दोषं हि - निर्दोष
समं ब्रह्म - ब्रह्म सम है
तस्माद् - इससे
ब्रह्मणि - वे ब्रह्म में
ते स्थिताः - ही स्थित है

भावार्थ/Translation
   जिनका मन समदर्शी है, उन्होंने संसार को जीत लिया है; क्योंकि वे परमात्मा को निर्दोष और सम देखते हैं, इसलिए वे ब्रह्म में ही स्थित है ।5.19।

   ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਮਨ ਸਮਦਰਸ਼ੀ ਹੈ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਸੰਸਾਰ ਨੂੰ ਜਿੱਤ ਲਿਆ ਹੈ; ਉਹ ਈਸ਼ਵਰ ਨੂੰ ਨਿਰਦੋਸ਼ ਅਤੇ ਸਭ ਜਗਾ਼ ਬਰਾਬਰ ਦੇਖਦੇ ਹਨ, ਇਸ ਲਈ ਉਹ ਵੀ ਬ੍ਰਹਮਾ ਵਿੱਚ ਹੀ ਸਥਿਤ ਹਨ ।5.19।

   Those whose minds are established in sameness and equanimity have already conquered the world. They see the almighty as same and flawless everywhere,and thus they are already situated in Brahman. ।5.19।

।5.20।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ २० ॥

शब्दार्थ
न प्रहृष्येत्प्रियं - प्रिय को, हर्षित न हो
प्राप्य - प्राप्त होकर
नोद्विजेत्प्राप्य - प्राप्त होकर उद्विग्न न हो
चाप्रियम् - अप्रिय को
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो - वह स्थिर बुद्धिवाला मूढ़ता रहित
ब्रह्मविद् - ब्रह्म को जानने वाला
ब्रह्मणि - ब्रह्म में
स्थितः - स्थित है

भावार्थ/Translation
   जो प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धिवाला मूढ़तारहित तथा ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है ।5.20।

   ਜੋ ਮਨ-ਭਾਉਦੀਂ ਚੀਜ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਕੇ ਹਰਸ਼ਿਤ ਨਾਂ ਹੋਵੇ ਅਤੇ ਨਾਪਸੰਦ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਕੇ ਬੇਚੈਨ ਨਾਂ ਹੋਵੇ ਉਹ ਸਥਿਰ ਬੁੱਧੀਵਾਲਾ, ਮੂੜਤਾਰਹਿਤ ਅਤੇ ਬ੍ਰਹਮ ਨੂੰ ਜਾਣਨ ਵਾਲਾ, ਬ੍ਰਹਮ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹੈ ।5.20।

   Who neither rejoices at gaining what is pleasant, nor grieves on obtaining what is unpleasant, that person with steady and undeluded mind is situated in Brahman and rests in ultimate state. ।5.20।

।5.21।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ २१ ॥

शब्दार्थ
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा - बाह्य विषयों में आसक्ति रहित पुरुष
विन्दत्यात्मनि - आत्मा में प्राप्त करता है
यत्सुखम् - ही सुख
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा - ध्यान में समाहित चित्त वाला पुरुष
सुखमक्षयमश्नुते - अक्षय सुख प्राप्त करता है

भावार्थ/Translation
   बाह्य विषयों में आसक्तिरहित अन्तकरण वाला, आत्मा में ही सुख प्राप्त करता है; ब्रह्म के ध्यान में समाहित चित्त वाला पुरुष अक्षय सुख प्राप्त करता है ।5.21।

   ਬਾਹਰਲੇ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਵਿੱਚ ਆਸਕਤੀਰਹਿਤ ਅੰਤਕਰਣ ਵਾਲਾ, ਆਤਮਾ ਵਿੱਚ ਹੀ ਸੁਖ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦਾ ਹੈ; ਬ੍ਰਹਮ ਦੇ ਧਿਆਨ ਵਿੱਚ ਸਮਾਹਿਤ ਚਿੱਤ ਵਾਲਾ ਪੁਰਖ, ਕਦੇ ਵੀ ਨਾਂ ਘਟਣ ਵਾਲਾ ਸੁਖ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦਾ ਹੈ ।5.21।

   With his heart unattached to external objects, he gets the bliss in the Self. With his heart absorbed in meditation, he acquires undecaying bliss. ।5.21।

।5.22।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ २२ ॥

शब्दार्थ
ये हि संस्पर्शजा - संयोग (स्पर्श) से उत्पन्न होने वाले
भोगा - जो भोग
दुःखयोनय - दुख के ही हेतु
एव ते - वे हैं
आद्यन्तवन्तः - आदिअन्त वाले हैं
कौन्तेय - हे अर्जुन
न तेषु - उनमें नहीं
रमते - रमता
बुधः - बुद्धिमान्

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन! (विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं, वे दुख के ही हेतु हैं क्योंकि वे आदि अन्त वाले हैं। बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता ।5.22।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ! (ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਦੇ) ਸੰਜੋਗ ਨਾਲ ਪੈਦਾ ਹੋਣ ਵਾਲੇ ਜੋ ਭੋਗ ਹਨ, ਉਹ ਦੁੱਖ ਦੇ ਹੀ ਹੇਤੁ ਹਨ ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਆਦਿ ਅੰਤ ਵਾਲੇ ਹਨ। ਬੁੱਧੀਮਾਨ ਪੁਰਖ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚ ਨਹੀਂ ਰਮਦਾ ।5.22।

   O Arjuna! enjoyments that result from contact (with objects) are verily the sources of sorrow and have a beginning and an end; the wise does not delight in them. ।5.22।

।5.23।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥ २३ ॥

शब्दार्थ
शक्नोतीहैव - समर्थ होता है
यः सोढुं - सहन करनेमें
प्राक्शरीरविमोक्षणात् - शरीर छूटनेसे पहले ही
कामक्रोधोद्भवं - काम क्रोध से उत्पन्न
वेगं स - होने वाले वेग को
युक्तः स - योगी है
सुखी - सुखी है
नरः - वह नर

भावार्थ/Translation
   जो कोई शरीर छूटने से पहले ही काम क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ होता है वह नर योगी है और वही सुखी है ।5.23।

   ਜੋ ਕੋਈ ਸਰੀਰ ਛੁੱਟਣ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ, ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਨਾਲ ਪੈਦਾ ਹੋਣ ਵਾਲੇ ਵੇਗ ਨੂੰ ਸਹਨ ਕਰਨ ਵਿੱਚ ਸਮਰਥ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਯੋਗੀ ਹੈ ਅਤੇ ਉਹੀ ਸੁਖੀ ਹੈ ।5.23।

   He who is able to withstand the impulse born out of desire and anger, before the liberation from the body, he is a Yogi, he is a happy man. ।5.23।

।5.24।
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ २४ ॥

शब्दार्थ
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः - जो अंतरात्मा में ही सुखी है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा आत्मा में ही प्रकाशमान है
स योगी - वह योगी
ब्रह्मनिर्वाणं - ब्रह्मनिर्वाण को
ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति - ब्रह्मरुप हुआ, प्राप्त होता है

भावार्थ/Translation
   जो अंतरात्मा में ही सुखी है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा आत्मा में ही प्रकाशमान है, वह ब्रह्मरुप हुआ योगी, ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होता है ।5.24।

   ਜੋ ਅੰਤਰ-ਆਤਮਾ ਵਿੱਚ ਹੀ ਸੁਖੀ ਹੈ, ਆਤਮਾ ਵਿੱਚ ਹੀ ਰਮਣ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਹੈ ਅਤੇ ਆਤਮਾ ਵਿੱਚ ਹੀ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਮਾਨ ਹੈ, ਉਹ ਬ੍ਰਹਮਰੁਪ ਯੋਗੀ, ਬ੍ਰਹਮਨਿਰਵਾਣ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।5.24।

   One whose happiness is within, who is active and rejoices within, and who is illuminated within; he is liberated in the Supreme, and ultimately he attains the Supreme. ।5.24।

।5.25।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ २५ ॥

शब्दार्थ
लभन्ते - प्राप्त होते हैं
ब्रह्मनिर्वाणमृषयः - ऋषि ब्रह्मनिर्वाण को
क्षीणकल्मषाः - पाप नष्ट हो गये हैं
छिन्नद्वैधा - संशय निवृत्त हो गये हैं
यतात्मानः - जिनके चित्त वश हुए हैं
सर्वभूतहिते - सब प्राणियोंके हितमें
रताः - रत हैं

भावार्थ/Translation
   जिनके पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके संशय निवृत्त हो गये हैं, जो प्राणियों के हित में रत हैं और जिनके चित्त वश हुए हैं, वे ऋषि ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होते हैं ।5.25।

   ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪਾਪ ਨਸ਼ਟ ਹੋ ਗਏ ਹਨ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸ਼ੱਕ ਦੂਰ ਹੋ ਗਏ ਹਨ, ਜੋ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਦੇ ਹਿੱਤ ਵਿੱਚ ਰਤ ਹਨ ਅਤੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਚਿੱਤ ਵਸ ਹੋਏ ਹਨ, ਉਹ ਰਿਸ਼ੀ ਬ੍ਰਹਮਨਿਰਵਾਣ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ ।5.25।

   The sages who are free from the pairs of opposites, whose minds are well subdued and who are devoted to the welfare of all beings, become cleansed of all impurities and attain the bliss of the Brahman. ।5.25।

।5.26।
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥ २६ ॥

शब्दार्थ
कामक्रोधवियुक्तानां - काम और क्रोध से रहित
यतीनां - अच्छे (साधु)
यतचेतसाम् - संयतचित्त वाले
अभितो - विद्यमान रहता है
ब्रह्मनिर्वाणं - आत्मा को जानने वाले
वर्तते - विद्यमान रहता है
विदितात्मनाम् - आत्मा को जानने वाले

भावार्थ/Translation
   काम और क्रोध से रहित संयत चित्त वाले तथा आत्मा को जानने वाले साधु के लिए सब ओर मोक्ष विद्यमान रहता है ।5.26।

   ਕੰਮ ਅਤੇ ਕ੍ਰੋਧ ਵਲੋਂ ਰਹਿਤ, ਸੰਜਮੀ ਚਿੱਤ ਵਾਲੇ ਅਤੇ ਆਤਮਾ ਨੂੰ ਜਾਣਨ ਵਾਲੇ ਸਾਧੁ ਲਈ, ਸਭ ਪਾਸੇ ਮੁਕਤੀ ਮੌਜੂਦ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ ।5.26।

   Those who are free from anger and all material desires, who are self-realized, self-disciplined; are assured of liberation in the Supreme. ।5.26।

।5.27 , 5.28।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ २७ ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ २८ ॥

शब्दार्थ
स्पर्शान्कृत्वा - पदार्थोंको छोड़कर
बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे - बाहर के बाहर ही, नेत्रों की दृष्टि को बीच में स्थित करके
भ्रुवोः - भौंहोंके
प्राणापानौ - प्राण और अपान
समौ कृत्वा - सम करके
नासाभ्यन्तरचारिणौ - नासिका में विचरने वाले
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः - जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि अपने वश में हैं, मुनि
विगतेच्छाभयक्रोधो - जो इच्छा भय और क्रोध से सर्वथा रहित है
यः सदा - वह सदा
मुक्त - मुक्त
एव सः - ही है

भावार्थ/Translation
   बाहर के पदार्थों को बाहर ही छोड़कर और नेत्रों की दृष्टि को भौंहों के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि अपने वश में हैं जो मोक्षपरायण है तथा जो इच्छा भय और क्रोध से सर्वथा रहित है वह मुनि सदा मुक्त ही है ।5.27,5.28।

   ਬਾਹਰ ਦੇ ਪਦਾਰਥਾਂ ਨੂੰ ਬਾਹਰ ਹੀ ਛੱਡ ਕੇ ਅਤੇ ਨੇਤਰਾਂ ਦੀ ਨਜ਼ਰ ਨੂੰ ਭੌਂਹਾਂ ਦੇ ਵਿੱਚ ਕਰਕੇ ਅਤੇ ਨਾਸਿਕਾ ਵਿੱਚ ਵਿਚਰਨ ਵਾਲੇ ਪ੍ਰਾਣ ਅਤੇ ਅਪਾਣ ਵਾਯੂ ਨੂੰ ਬਰਾਬਰ ਕਰਕੇ, ਜਿਸ ਦੀਆਂ ਇੰਦਰੀਆਂ ਮਨ ਅਤੇ ਬੁੱਧੀ ਆਪਣੇ ਵਸ ਵਿੱਚ ਹਨ ਜੋ ਮੋਕਸ਼ ਪਰਾਇਣ ਹੈ ਅਤੇ ਜੋ ਇੱਛਾ, ਡਰ ਅਤੇ ਕਰੋਧ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਹੈ ਉਹ ਮੁਨੀ ਹਮੇਸ਼ਾ ਅਜ਼ਾਦ ਹੀ ਹੈ ।5.27,5.28।

   That contemplative saint is completely free who, keeping the external objects outside, eyes at the juncture of the eye-brows, making equal the outgoing and incoming breaths that move through the nostrils, has control over his organs, mind and intellect and is free from desire, fear and anger. ।5.27,5.28।

।5.29।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ २९ ॥

शब्दार्थ
भोक्तारं - भोक्ता
यज्ञतपसां - यज्ञों और तपों का
सर्वलोकमहेश्वरम् - सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर
सुहृदं - स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी
सर्वभूतानां - सम्पूर्ण प्राणियों का
ज्ञात्वा मां - मुझे जानकर
शान्तिमृच्छति - शान्ति को प्राप्त होता है

भावार्थ/Translation
   वह मुझे सब यज्ञों और तपों का भोक्ता, सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर तथा सम्पूर्ण प्राणियों का स्वार्थरहित प्रेमी जानकर शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।5.29।

   ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਸਭ ਯੱਗ ਅਤੇ ਤਪਾਂ ਦਾ ਭੋਕਤਾ, ਸੰਪੂਰਣ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਮਹਾਨ ਰੱਬ ਅਤੇ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਦਾ ਸਵਾਰਥਰਹਿਤ ਪ੍ਰੇਮੀ ਜਾਨ ਕੇ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।5.29।

   Knowing Me as the enjoyer of all sacrifices and austerities, as the Supreme Lord of all the worlds, as the Friend of every being, he attains peace. ।5.29।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः ॥5.1-5.29॥

To be Completed by 15th May, 2015 (29 days)

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