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अध्याय छठा / Chapter Six

।6.1।
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ १ ॥

शब्दार्थ
श्री भगवानुवाच - श्री भगवान् बोले
अनाश्रितः - आश्रय न लेकर
कर्मफलं - कर्मफल का
कार्यं - करणीय
कर्म - कर्म
करोति यः - जो करता है
स सन्न्यासी - वही संन्यासी
च योगी - तथा योगी है
च न निरग्निर्न - अग्नि का त्याग करने वाला नहीं
चाक्रियः - क्रियाओं का त्याग करने वाला

भावार्थ/Translation
   श्री भगवान् बोले - कर्मफल का आश्रय न लेकर जो करणीय कर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है, केवल अग्नि तथा क्रियाओं का त्याग करने वाला नहीं ।6.1।

   ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨ ਬੋਲੇ - ਕਰਮਫਲ ਦੀ ਆਸ ਨਾਂ ਕਰਕੇ ਜੋ ਕਰਨ-ਯੋਗ ਕੰਮ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹੀ ਸੰਨਿਆਸੀ ਅਤੇ ਯੋਗੀ ਹੈ, ਕੇਵਲ ਅੱਗ (ਭੋਜਨ ਬਨਾਉਣ ਦਾ ਜੁਗਾੜ) ਅਤੇ ਕਿਰਿਆਵਾਂ ਦਾ ਤਿਆਗ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਨਹੀਂ ।6.1।

   Lord Krishna Said - He who performs an action which is his duty, without depending on the result of action, he is a monk and a yogi; (but) not, he who does not keep a fire (arrangement to cook food) and has stopped doing action. ।6.1।

।6.2।
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥ २ ॥

शब्दार्थ
यं सन्न्यासमिति - जिसको संन्यास कहते हैं
प्राहुर्योगं तं - उसी को तुम योग
विद्धि - समझो
पाण्डव - हे अर्जुन
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो - संकल्पों का त्याग किये बिना नहीं
योगी - योगी
भवति - हो सकता
कश्चन - कोई भी

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, जिसको संन्यास कहते हैं, उसी को तुम योग समझो, संकल्पों (फलेच्छा) का त्याग किये बिना, कोई भी योगी नहीं हो सकता ।6.2।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜਿਸ ਨੂੰ ਸੰਨਿਆਸ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਉਸ ਨੂੰ ਤੂੰ ਯੋਗ ਸਮੱਝ, ਸੰਕਲਪਾਂ (ਫਲੇੱਛਾ) ਦਾ ਤਿਆਗ ਕੀਤੇ ਬਿਨਾਂ, ਕੋਈ ਵੀ ਯੋਗੀ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ।6.2।

   O Arjuna, consider renunciation same as Yoga. No body can be a yogi without giving up expectations (fruits of action). ।6.2।

।6.3।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ ३ ॥

शब्दार्थ
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं - मननशील योगी, योग में आरूढ़ होना चाहता है
कर्म - कर्म
कारणमुच्यते - कारण है
योगारूढस्य - योगारूढ़
तस्यैव - (उस) का
शमः - शम (शान्ति)
कारणमुच्यते - कारण है

भावार्थ/Translation
   जो योग में आरूढ़ होना चाहता है ऐसे मननशील के लिये कर्तव्य कर्म करना कारण है और उसी योगारूढ़ मनुष्य का शम (शान्ति) योगसिद्धि में कारण है। (अर्थात कर्म-शम का कार्य-कारण भाव बदल जाता है) ।6.3।

   ਜੋ ਯੋਗ ਵਿੱਚ ਸਿੱਧ ਹੋਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਜਿਹੇ ਵਿਚਾਰਵਾਨ ਲਈ ਕਰਤੱਵ ਕਰਮ ਕਰਣਾ ਕਾਰਨ ਹੈ ਅਤੇ ਉਸੀ ਯੋਗ ਵਿੱਚ ਸਿੱਧ ਹੋਏ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਸ਼ਮ (ਸ਼ਾਂਤੀ) ਯੋਗਸਿੱਧੀ ਵਿੱਚ ਕਾਰਨ ਹੈ। (ਅਰਥਾਤ ਕਰਮ-ਸ਼ਮ ਦਾ ਕਾਰਜ-ਕਾਰਨ ਭਾਵ ਬਦਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ) ।6.3।

   Action is said to be the means for the sage who seeks to climb the heights of Yoga; but when he has climbed the heights of Yoga, tranquillity (selfless action without any attachment) is said to be the means. ।6.3।

।6.4।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥ ४॥

शब्दार्थ
यदा हि - जब
नेन्द्रियार्थेषु - न इन्द्रियों के विषयों में
न कर्मस्वनुषज्जते - न कर्मों में आसक्त होता है
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी - सर्व संकल्पों के संन्यासी
योगारूढ़स्तदोच्यते - योगारूढ़ कहा जाता है

भावार्थ/Translation
   जब (साधक) न इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में आसक्त होता है तब सर्व संकल्पों (इच्छाओं) के संन्यासी को योगारूढ़ कहा जाता है ।6.4।

   ਜਦੋਂ (ਸਾਧਕ) ਨਾਂ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੇ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਨਾਂ ਕਰਮਾਂ ਵਿੱਚ ਆਸਕਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਤੱਦ ਸਰਵ ਸੰਕਲਪਾਂ (ਇੱਛਾਵਾਂ) ਦੇ ਸੰਨਿਆਸੀ ਨੂੰ ਯੋਗ ਸਿੱਧ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।6.4।

   When one loses all desires of attachment, for sense objects and actions, then he is said to have climbed the heights of Yoga. ।6.4।

।6.5।
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ५ ॥

शब्दार्थ
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं - स्वयं ही स्वयं का उद्दार करे
नात्मानमवसादयेत्‌ - स्वयं का पतन ना करे
आत्मैव - स्वयं
ह्यात्मनो - स्वयं का
बन्धुरात्मैव - मित्र है, स्वयं
रिपुरात्मनः - स्वयं का शत्रु है

भावार्थ/Translation
   मनुष्य स्वयं ही स्वयं का उद्दार करे, स्वयं का पतन ना करे, क्योकि वह आप ही स्वयं का मित्र है और आप ही स्वयं का शत्रु है ।6.5।

   ਮਨੁੱਖ ਆਪ ਹੀ ਆਪਣੀ ਉੱਨਤੀ ਕਰੇ, ਆਪਣਾ ਪਤਨ ਨਾ ਕਰੇ, ਉਹ ਆਪ ਹੀ ਆਪਣਾ ਮਿੱਤਰ ਹੈ ਅਤੇ ਆਪ ਹੀ ਆਪਣਾ ਵੈਰੀ ਹੈ ।6.5।

   For him who has conquered the mind, the mind is the best of friends; but for one who has failed to do so, his mind will remain the greatest enemy. ।6.5।

।6.6।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥ ६ ॥

शब्दार्थ
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य - उसके लिये आप ही अपना बन्धु है
येनात्मैवात्मना - जिसने अपने आप से अपने आप को
जितः - जीत लिया है
अनात्मनस्तु - जिसने अपने को नहीं जीता है
शत्रुत्वे - शत्रुता में
वर्तेतात्मैव - अपने से बरतता है
शत्रुवत्‌ - शत्रु की तरह

भावार्थ/Translation
   जिसने अपने आप से अपने आप को जीत लिया है उसके लिये वह आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपने को नहीं जीता, ऐसा अपने से शत्रुता में बरतता है और अपने से शत्रु की तरह व्यवहार करता है ।6.6।

   ਜਿਨ੍ਹੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਆਪ ਤੋਂ ਜਿੱਤ ਲਿਆ ਹੈ, ਉਹ ਆਪ ਹੀ ਆਪਣਾ ਮਿੱਤਰ ਹੈ ਅਤੇ ਜਿਨ੍ਹੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਜਿੱਤਿਆ ਹੈ ਅਜਿਹਾ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਦੁਸ਼ਮਣੀ ਬਰਤਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਵੈਰੀ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸੁਭਾਅ ਦਾ ਪ੍ਰਗਟਾਵਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ।6.6।

   The Self is the friend of the self of him who has conquered the self, but to the unconquered self, this Self acts and behaves like an enemy. ।6.6।

।6.7।
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥ ७ ॥

शब्दार्थ
जितात्मनः - जिसने अपने पर विजय कर ली है
प्रशान्तस्य - परम शान्त
परमात्मा - परमात्मा
समाहितः - निवास करता है
शीतोष्णसुखदुःखेषु - सर्दी-गर्मी, सुख दुःख
तथा मानापमानयोः - तथा मान अपमान में

भावार्थ/Translation
   जिसने अपने पर विजय कर ली है तथा सर्दी-गर्मी (अनुकूलता-प्रतिकूलता) सुख-दुःख तथा मान-अपमान में परम शान्त है, उस मनुष्य में परमात्मा निवास करता है ।6.7।

   ਜਿਨ੍ਹੇ ਆਪਣੇ ਉੱਤੇ ਫਤਿਹ ਕਰ ਲਈ ਹੈ ਅਤੇ ਸਰਦੀ-ਗਰਮੀ (ਅਨੁਕੂਲਤਾ-ਮੁਖਾਲਫਤ) ਸੁਖ-ਦੁੱਖ ਅਤੇ ਮਾਨ-ਅਪਮਾਨ ਵਿੱਚ ਪਰਮ ਸ਼ਾਂਤ ਹੈ, ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਵਿੱਚ ਰੱਬ ਵਸਦਾ ਹੈ ।6.7।

   Who has conquered the self and remains peaceful in cold and heat, pleasure and pain, and also in honour and dishonour; God reflects in such a being. ।6.7।

।6.8।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥ ८ ॥

शब्दार्थ
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा - जिसका अन्तःकरण ज्ञान विज्ञान से तृप्त है
कूटस्थो - सर्वदा भगवान में रमण करना
विजितेन्द्रियः - इन्द्रियों को जीत लिया है
युक्त इत्युच्यते - पूर्ण, कहा जाता है
योगी - योगी
समलोष्टाश्मकांचनः - मिट्टी, पत्थर तथा सोने में सम बुद्धि वाला है

भावार्थ/Translation
   जिसका अन्तःकरण ज्ञान विज्ञान से तृप्त है, जो सर्वदा भगवान में रमण करता है, जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है और मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण में सम बुद्धि वाला है, ऐसा मनुष्य पूर्ण योगी कहा जाता है ।6.8।

   ਜਿਸਦਾ ਅੰਤਰ ਗਿਆਨ ਵਿਗਿਆਨ ਨਾਲ ਤ੍ਰਿਪਤ ਹੈ, ਜੋ ਸਦਾ ਭਗਵਾਨ ਵਿੱਚ ਰਮਣ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਜਿਸਨੇ ਇੰਦਰੀਆਂ ਨੂੰ ਜਿੱਤ ਲਿਆ ਹੈ ਅਤੇ ਮਿੱਟੀ ਦੇ ਢੇਲੇ, ਪੱਥਰ ਅਤੇ ਸੋਨੇ ਵਿੱਚ ਬਰਾਬਰ ਬੁੱਧੀ ਵਾਲਾ ਹੈ ਅਜਿਹਾ ਮਨੁੱਖ ਪੂਰਣ ਯੋਗੀ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।6.8।

   One whose mind is satisfied with knowledge and realization, who remains situated in tanscendence, who has his organs under control, who treats equally a lump of earth, a stone and gold; is said to be fully established as a yogi. ।6.8।

।6.9।
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ ९ ॥

शब्दार्थ
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु - सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और सम्बन्धियों में
साधुष्वपि - साधु
च पापेषु - पापी
समबुद्धिर्विशिष्यते - सम बुद्धि वाला मनुष्य श्रेष्ठ है

भावार्थ/Translation
   सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी, सम्बन्धी, साधु और पापी में सम बुद्धि वाला मनुष्य श्रेष्ठ है ।6.9।

   ਸੁਹਿਰਦੇ, ਮਿੱਤਰ, ਵੈਰੀ, ਉਦਾਸੀਨ, ਵਿਚੋਲਾ, ਦਵੇਸ਼ੀ, ਸੰਬੰਧੀ, ਸਾਧੁ ਅਤੇ ਪਾਪੀ ਵਿੱਚ ਬਰਾਬਰ ਬੁੱਧੀ ਵਾਲਾ ਮਨੁੱਖ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਹੈ ।6.9।

   He who is of the same mind to good-hearted, friend, enemy, indifferent, neutral, hateful, relative, righteous and unrighteous is an excellent human being. ।6.9।

।6.10।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ १० ॥

शब्दार्थ
योगी - योगी
युञ्जीत - लगाये
सततमात्मानं - निरन्तर स्वयं को
रहसि - रहता हुआ
स्थितः - स्थित
एकाकी - अकेला
यतचित्तात्मा - वशमें रखने वाला
निराशीरपरिग्रहः - इच्छारहित, भोग बुद्धि से संग्रह न करने वाला

भावार्थ/Translation
   स्वयं को संयमित करके योगी, अकेला रहता हुआ, इच्छारहित, भोग बुद्धि से संग्रह न करने वाला बनकर, स्वयं को निरन्तर परमात्मा में लगाये ।6.10।

   ਆਪਣੇ ਉੱਤੇ ਸੰਜਮ ਰੱਖ ਕੇ ਯੋਗੀ, ਇਕੱਲਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੋਇਆ, ਇੱਛਾਰਹਿਤ, ਭੋਗ ਬੁੱਧੀ ਨਾਲ ਸੰਗ੍ਰਿਹ ਨਾਂ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਬਣਕੇ, ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਨਿਰੰਤਰ ਰੱਬ ਵਿੱਚ ਲਗਾਵੇ ।6.10।

   Yogi should constantly fix his mind on God, remaining in a solitary place all alone, controlling his thought and mind, free from desire and sense of possession. ।6.10।

।6.11।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌ ॥ ११ ॥

शब्दार्थ
शुचौ देशे - शुद्ध (स्वच्छ) स्थान
प्रतिष्ठाप्य - स्थापित करके
स्थिरमासनमात्मनः - स्थिर आसन
नात्युच्छ्रितं - न अति ऊँचा
नातिनीचं - और न अति नीचा
चैलाजिनकुशोत्तरम्‌ - कुश मृगशाला और वस्त्र रखा हो

भावार्थ/Translation
   शुद्ध (स्वच्छ) स्थान में क्रमशः कुश, मृगशाला और वस्त्र रखा हो ऐसे स्थिर आसन को न अति ऊँचा और न अति नीचा स्थापित करके ।6.11।

   ਸ਼ੁੱਧ (ਸਵੱਛ) ਸਥਾਨ ਤੇ ਕ੍ਰਮਵਾਰ ਕੁਸ਼ਾ, ਹਿਰਨ ਦੀ ਛਾਲ ਅਤੇ ਕੱਪੜਾ ਰੱਖਿਆ ਹੋਵੇ, ਅਜਿਹੇ ਨਾਂ ਹਿਲੱਣ ਵਾਲੇ ਆਸਨ ਨੂੰ ਨਾਂ ਜਿਆਦਾ ਉੱਚਾ ਅਤੇ ਨਾਂ ਜਿਆਦਾ ਨੀਵਾਂ ਸਥਾਪਤ ਕਰਕੇ ।6.11।

   Having firmly established in a clean place his seat, neither too high nor too low, and successively placing kusa-grass, deer- skin and cloth. ।6.11।

।6.12।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥

शब्दार्थ
तत्रैकाग्रं - एकाग्र करके
मनः कृत्वा - मन को
यतचित्तेन्द्रियक्रियः - इन्द्रियों की क्रियाओं को और चित्त को वश में रखते हुए
उपविश्यासने - उस आसन पर बैठकर
युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये - अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे

भावार्थ/Translation
   उस आसन पर बैठ कर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए, एकाग्र मन से अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग अभ्यास करे ।6.12।

   ਉਸ ਆਸਨ ਤੇ ਬੈਠ ਕੇ ਚਿੱਤ ਅਤੇ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੀਆਂ ਕਿਰਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਵਸ ਵਿੱਚ ਰੱਖਦੇ ਹੋਏ, ਇਕਾਗਰ ਮਨ ਨਾਲ ਆਪਣੇ ਅੰਦਰ ਦੀ ਸ਼ੁੱਧੀ ਲਈ ਯੋਗ ਅਭਿਆਸ ਕਰੇ ।6.12।

   He should practise yoga for the purification of the self, seated on the seat, having made the mind one-pointed, with the actions of the mind and the senses controlled. ।6.12।

।6.13।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ॥ १३ ॥

शब्दार्थ
समं - सीधे
कायशिरोग्रीवं - धङ, सिर और गर्दन
धारयन्नचलं स्थिरः - अचल और स्थिर होकर
सम्प्रेक्ष्य - देखकर
नासिकाग्रं - नाक के अग्र भाग को
स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ - अन्य दिशाओं को न देखता हुआ

भावार्थ/Translation
   काया, सिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किये हुए, स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्र भाग को देखकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ ।6.13।

   ਧੜ, ਸਿਰ ਅਤੇ ਧੌਣ ਨੂੰ ਸਮਾਨ, ਅਚਲ ਅਤੇ ਸਥਿਰ ਕਰਕੇ ਆਪਣੇ ਨੱਕ ਦੇ ਅਗਲੇ ਭਾਗ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ, ਹੋਰ ਦਿਸ਼ਾਵਾਂ ਨੂੰ ਨਾਂ ਦੇਖਦਾ ਹੋਇਆ ।6.13।

   Let him firmly hold his body, head and neck erect and still, gazing at the tip of his nose, without looking in other directions. ।6.13।

।6.14।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४ ॥

शब्दार्थ
प्रशान्तात्मा - शांत अन्तःकरण वाला
विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते - भयरहित, ब्रह्मचारी के व्रत
स्थितः - स्थित
मनः - मन
संयम्य - संयमित करके
मच्चित्तो - मुझे याद करता हुआ
युक्त - योगी
आसीत - होए
मत्परः - मेरे परायण

भावार्थ/Translation
   ब्रह्मचारी, भयरहित तथा शांत अन्तःकरण वाला योगी मन को संयमित करके मुझे याद करता हुआ, मेरे परायण होए ।6.14।

   ਬ੍ਰਹਮਚਾਰੀ, ਬਿਨਾਂ ਡਰ ਤੋਂ ਅਤੇ ਸ਼ਾਂਤ ਮਨ ਵਾਲਾ ਯੋਗੀ, ਮਨ ਨੂੰ ਸੰਜਮ ਵਿੱਚ ਕਰਕੇ ਮੈਨੂੰ ਯਾਦ ਕਰਦਾ ਹੋਇਆ, ਮੇਰੇ ਪਰਾਇਣ ਹੋਵੇ ।6.14।

   Calm-minded, fearless, firm in the vow of celibacy; controlling mind fully; let the master of Yoga think of Me and consider Me as his supreme goal. ।6.14।

।6.15।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ १५ ॥

शब्दार्थ
युञ्जन्नेवं - लगाता हुआ
सदात्मानं - निरंतर स्वयं को
योगी - योगी
नियतमानसः - नियमित मन वाला
शान्तिं - शान्ति
निर्वाणपरमां - परम आनन्द रूप
मत्संस्थामधिगच्छति -मेरे में स्थित, प्राप्त होता है

भावार्थ/Translation
   वश में किए हुए मन वाला योगी इस प्रकार निरंतर स्वयं को मुझ में लगाता हुआ, मेरे समान, परमानन्द की शान्ति को प्राप्त होता है ।6.15।

   ਵਸ ਵਿੱਚ ਕੀਤੇ ਹੋਏ ਮਨ ਵਾਲਾ ਯੋਗੀ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਲਗਾਤਾਰ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਲਗਾਉਂਦਾ ਹੋਇਆ, ਮੇਰੇ ਸਮਾਨ, ਪਰਮਾਨੰਦ ਦੀ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।6.15।

   Having controlled his mind, and thinking of Me always, Yogi achieves the state of ultimate peace which is similar to My own state. ।6.15।

।6.16।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ १६ ॥

शब्दार्थ
नात्यश्नतस्तु - न अधिक खाने वाला
योगोऽस्ति न - न, योग होता है
चैकान्तमनश्नतः - बिल्कुल न खाने वाला
न चाति - तथा जो अधिक
स्वप्नशीलस्य - सोने वाला
जाग्रतो - जागने वाला
नैव - नही
चार्जुन - हे अर्जुन

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, यह योग न अधिक खाने वाले के लिए है, न बिल्कुल न खाने वाले के लिए है तथा न अधिक सोने वाले के लिए है, न अधिक जागने वाले के लिए है ।6.16।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਇਹ ਯੋਗ ਨਾਂ ਜਿਆਦਾ ਖਾਣ ਵਾਲੇ ਲਈ ਹੈ, ਨਾਂ ਬਿਲਕੁੱਲ ਨਾਂ ਖਾਣ ਵਾਲੇ ਲਈ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾਂ ਜਿਆਦਾ ਸੋਣ ਵਾਲੇ ਲਈ ਹੈ, ਨਾਂ ਜਿਆਦਾ ਜਾਗਣ ਵਾਲੇ ਲਈ ਹੈ ।6.16।

   O Arjuna, This Yoga is not for those, who eats too much or eats too little, sleeps too much or does not sleep enough. ।6.16।

।6.17।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ १७ ॥

शब्दार्थ
युक्ताहारविहारस्य - समुचित आहार और विहार करने वाले का
युक्तचेष्टस्य - समुचित चेष्टा
कर्मसु - कर्मों में
युक्तस्वप्नावबोधस्य - समुचित सोने और जागने वाले का
योगो - योग
भवति - है
दुःखहा - दुःखों का नाश करने वाला

भावार्थ/Translation
   समुचित आहार और विहार करने वाला, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाला तथा यथायोग्य सोने और जागने वाला योगी अपने दुःखों का नाश करने में सक्षम है ।6.17।

   ਸਹੀ ਖਾਣਾ ਅਤੇ ਵਿਹਾਰ ਕਰਣ ਵਾਲਾ, ਕਰਮ ਕਰਣ ਲਈ ਸਹੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਅਤੇ ਸਹੀ ਸੋਣ ਅਤੇ ਜਾਗਣ ਵਾਲਾ ਯੋਗੀ, ਆਪਣੇ ਦੁਖਾਂ ਦਾ ਨਾਸ਼ ਕਰਣ ਵਿੱਚ, ਸਮਰੱਥਾਵਾਨ ਹੈ ।6.17।

   By regulating his habits of eating, sleeping, recreation and work, Yogi is capable to mitigate all material pains. ।6.17।

।6.18।
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ १८ ॥

शब्दार्थ
यदा विनियतं - जब, वश में किया हुआ
चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते - मन, अपने स्वरूप में ही स्थित हो जाता है
निःस्पृहः - निरीह (बिना चाह के)
सर्वकामेभ्यो - सम्पूर्ण पदार्थों से
युक्त - योगी
इत्युच्यते - कहा जाता है
तदा - तब

भावार्थ/Translation
   जब कोई मन वश में करके, अपने स्वरूप में ही स्थित हो जाता है और सम्पूर्ण पदार्थों से चाह रहित हो जाता है, तब वह योगी कहलाता है ।6.18।

   ਜਦੋਂ ਕੋਈ ਮਨ ਵਸ ਵਿੱਚ ਕਰਕੇ, ਆਪਣੇ ਸਵਰੂਪ ਵਿੱਚ ਹੀ ਸਥਿਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸੰਪੂਰਣ ਪਦਾਰਥਾਂ ਵਲੋਂ ਚਾਹ ਰਹਿਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਤੱਦ ਉਹ ਯੋਗੀ ਕਹਾਂਉਦਾ ਹੈ ।6.18।

   When the subdued mind become situated in the self alone, then, free of all yearning for objects of desire, one is said to be Yogi. ।6.18।

।6.19।
यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ १९ ॥

शब्दार्थ
यथा दीपो - जैसे दीपक
निवातस्थो - गतिरहित वायु स्थान में
नेंगते - कम्पित नहीं होता
सोपमा - वैसी उपमा
स्मृता - कही गयी है
योगिनो - योगी के
यतचित्तस्य - मन की
युञ्जतो - लगे हुए
योगमात्मनः - स्वयं में स्थित

भावार्थ/Translation
   जैसे गतिरहित वायु स्थान में स्थित दीपक कम्पित नहीं होता, वैसी उपमा स्वयं में स्थित योगी के मन की कही गयी है ।6.19।

   ਜਿਵੇਂ ਖੜੀ ਹਵਾ ਵਾਲੀ ਥਾਂ ਤੇ, ਦੀਵੇ ਦੀ ਲੌ ਨਹੀਂ ਕੰਬਦੀ, ਉਵੇਂ ਦੀ ਉਪਮਾ, ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਯੋਗੀ ਦੇ ਮਨ ਦੀ ਕਹੀ ਗਈ ਹੈ ।6.19।

   Just as a lamp in the windless place does not flicker, similar is the state of Yogi, whose mind is situated on the Self. ।6.19।

।6.20।
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २० ॥

शब्दार्थ
यत्रोपरमते - जब उपराम हो जाता है
चित्तं - मन
निरुद्धं - निरुद्ध (वश में करना)
योगसेवया - योग का सेवन (अभ्यास)
यत्र - जब
चैवात्मनात्मानं - स्वयं, स्वयं को
पश्यन्नात्मनि - देखता हुआ, स्वयं में
तुष्यति - सन्तुष्ट है

भावार्थ/Translation
   योग का सेवन (अभ्यास) करने से जब वश में किया मन उपराम हो जाता है तथा जब स्वयं, स्वयं में, स्वयं को देखता हुआ सन्तुष्ट हो जाता है ।6.20।

   ਯੋਗ ਦਾ ਸੇਵਨ (ਅਭਿਆਸ) ਕਰਣ ਨਾਲ ਜਦੋਂ ਵਸ ਵਿੱਚ ਕੀਤਾ ਮਨ ਉਪਰਾਮ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜਦੋਂ ਆਪ, ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿੱਚ, ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਵੇਖਦਾ ਹੋਇਆ ਸੰਤੁਸ਼ਟ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।6.20।

   When the mind, restrained by the practice of Yoga attains to quietude and when seeing the Self by the self, he is satisfied in hiw own Self. ।6.20।

।6.21।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ २१ ॥

शब्दार्थ
सुखमात्यन्तिकं - अनन्त आनन्द
यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ - जो इन्द्रियातीत, बुद्धि के द्वारा ग्राह्य
वेत्ति यत्र - जिस अवस्था में अनुभव करता है
न चैवायं - और फिर नहीं
स्थितश्चलति - स्थित हुआ, विचलित
तत्त्वतः - तत्त्व से

भावार्थ/Translation
   जो इन्द्रियातीत, बुद्धि के द्वारा ग्राह्य अनन्त आनन्द को जिस अवस्था में अनुभव करता है, वह उसमें स्थित हुआ, फिर कभी तत्त्व से विचलित नहीं होता ।6.21।

   ਜੋ ਇੰਦਰੀਆਂ ਤੋਂ ਪਰੇ, ਬੁੱਧੀ ਦੇ ਨਾਲ, ਅਨੰਤ ਖੁਸ਼ੀ ਨੂੰ ਜਿਸ ਦਸ਼ਾ ਵਿੱਚ ਅਨੁਭਵ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਉਸ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹੋਇਆ, ਫਿਰ ਕਦੇ ਤੱਤਵ ਤੋਂ ਵਿਚਲਿਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ।6.21।

   When one feels the infinite joy, whcih can be grasped by the intellect and which is beyond the senses; established in that, he never swerves from the reality. ।6.21।

।6.22।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ २२ ॥

शब्दार्थ
यं लब्ध्वा - जिसे पाकर
चापरं - और दूसरा
लाभं - लाभ
मन्यते - मानता है
नाधिकं - अधिक नहीं
ततः - वह
यस्मिन्स्थितो - जिसमें स्थित हुआ
न दुःखेन - दुख से नहीं
गुरुणापि - बड़े भारी
विचाल्यते - विचलित होना

भावार्थ/Translation
   जिस लाभ को पाकर उससे अधिक कोई लाभ नहीं मानता है और जिसमें स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुख से भी विचलित नहीं होता है ।6.22।

   ਜਿਸ ਮੁਨਾਫ਼ੇ ਨੂੰ ਪਾ ਕੇ ਉਸ ਤੋਂ ਜਿਆਦਾ ਕੋਈ ਮੁਨਾਫ਼ਾ ਨਹੀਂ ਮੰਣਦਾ ਅਤੇ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹੋਇਆ ਯੋਗੀ ਵੱਡੇ ਭਾਰੀ ਦੁੱਖ ਨਾਲ ਵੀ ਵਿਚਲਿਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ।6.22।

   Obtaining which one does not think of any other acquisition to be superior to that, and being established, in which one is not perturbed even by great sorrow. ।6.22।

।6.23।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥ २३ ॥

शब्दार्थ
तं विद्याद् - उसी को जानो
दुःखसंयोगवियोगं - दुःखों के संबध से रहित
योगसञ्ज्ञितम् - योग नाम से
स निश्चयेन - उसे निश्चयपूर्वक
योक्तव्यो - करना चाहिये
योगोऽनिर्विण्णचेतसा - न उकताये हुए चित्तसे

भावार्थ/Translation
   जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसी को योग नाम से जानना चाहिये। उस योग को न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिये ।6.23।

   ਜੋ ਦੁਖਾਂ ਦੇ ਸੰਜੋਗ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਹੈ ਉਸੀ ਨੂੰ ਯੋਗ ਜਾਣ। ਉਸ ਯੋਗ ਨੂੰ ਬਿਨਾਂ ਉਕਤਾਏ ਹੋਏ ਚਿੱਤ ਨਾਲ ਨਿਸ਼ਚੇ ਨਾਲ ਕਰਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ।6.23।

   Freeing yourself from any relation with misery is called yoga. This yoga should be practised with determination and without any depression in mind. ।6.23।

।6.24।
सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ २४ ॥

शब्दार्थ
सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा - संकल्प से उत्पन्न होने वाली कामनाओं का त्याग करके
सर्वानशेषतः - सम्पूर्ण, सर्वथा
मनसैवेन्द्रियग्रामं - मन से इन्द्रिय समूहको
विनियम्य - हटाकर
समन्ततः - सभी ओर से

भावार्थ/Translation
   संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग करके और मन से इन्द्रिय समूह को सभी ओर से हटाकर ।6.24।

   ਸੰਕਲਪ ਨਾਲ ਪੈਦਾ ਹੋਣ ਵਾਲੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਕਾਮਨਾਵਾਂ ਦਾ ਪੂਰਾ ਤਿਆਗ ਕਰਕੇ ਅਤੇ ਮਨ ਨਾਲ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੇ ਸਮੂਹ ਨੂੰ ਸਾਰੇ ਪਾਸੋਂ ਹਟਾਕੇ ।6.24।

   Renouncing every desire which imagination can conceive, controlling all the senses by the power of mind. ।6.24।

।6.25।
शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ॥

शब्दार्थ
शनैः शनै - धीरेधीरे
रुपरमेद् - उपराम हो जाय
बुद्ध्या - बुद्धि के द्वारा
धृतिगृहीतया - धैर्ययुक्त
आत्मसंस्थं - आत्म स्वरूप में स्थापन
मनः कृत्वा न - मन को, न करके
किंचिदपि - कुछ भी
चिन्तयेत्‌ - चिन्तन

भावार्थ/Translation
   धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा संसार से धीरे धीरे उपराम हो जाय और मन को आत्म स्वरूप में स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे ।6.25।

   ਧੀਰਜ ਵਾਲੀ ਬੁੱਧੀ ਨਾਲ ਸੰਸਾਰ ਵਲੋਂ ਹੌਲੀ - ਹੌਲੀ ਉਪਰਾਮ ਹੋ ਜਾਵੇ ਅਤੇ ਮਨ ਨੂੰ ਆਤਮ ਸਵਰੂਪ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਕਰਕੇ ਫਿਰ ਕੁੱਝ ਵੀ ਚਿੰਤਨ ਨਾਂ ਕਰੇ ।6.25।

   Little by little let him attain to quietude by the intellect held firmly; having made the mind establish itself in the Self, let him not think of anything else. ।6.25।

।6.26।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥ २६ ॥

शब्दार्थ
यतो यतो - जिस जिस (विषय में)
निश्चरति - विचरण करता है
मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ - अस्थिर और चञ्चल मन
ततस्ततो - वहाँ वहाँ से
नियम्यैतदात्मन्येव - हटाकर स्वयं के
वशं नयेत्‌ - वश में करें

भावार्थ/Translation
   यह अस्थिर और चञ्चल मन जिस जिस (विषय में) विचरण करता है वहाँ वहाँ से हटाकर स्वयं के वश में करें ।6.26।

   ਇਹ ਅਸਥਿਰ ਅਤੇ ਚੰਚਲ ਮਨ ਜਿਸ ਜਿਸ ਵਿਸ਼ੇ ਵਿੱਚ ਵਿਚਰਨ ਕਰਦਾ ਹੈ ਉੱਥੋਂ ਉੱਥੋਂ ਹਟਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਵਸ ਵਿੱਚ ਕਰ ।6.26।

   when the restless and unsteady mind wanders away in different sense objects,restrain it and bring it back under the control of the Self alone. ।6.26।

।6.27।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ॥ २७ ॥

शब्दार्थ
प्रशान्तमनसं - मन शान्त हो गया है
ह्येनं - निश्चित ही
योगिनं - योगी को
सुखमुत्तमम्‌ - उत्तम सुख
उपैति - प्राप्त होता है
शांतरजसं - रजोगुण शान्त हो गया है
ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ - ब्रह्मस्वरूप, दुर्गुण रहित

भावार्थ/Translation
   जो दुर्गुण रहित है, जिस का रजोगुण तथा मन शान्त हो गया है, ऐसे ब्रह्मस्वरूप योगी को निश्चित ही उत्तम सुख प्राप्त होता है ।6.27।

   ਜੋ ਐਬ ਰਹਿਤ ਹੈ, ਜਿਸ ਦਾ ਰਜੋਗੁਣ ਅਤੇ ਮਨ ਸ਼ਾਂਤ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, ਅਜਿਹੇ ਬਰਹਮਸਵਰੂਪ ਯੋਗੀ ਨੂੰ ਨਿਸ਼ਚਿਤ ਹੀ ਉੱਤਮ ਸੁਖ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।6.27।

   The yogi whose mind is at peace, who is free from all evil and who has controlled his rajas tendencies; verily attains the highest perfection of transcendental happiness. ।6.27।

।6.28।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ २८ ॥

शब्दार्थ
युञ्जन्नेवं - इस प्रकार
सदात्मानं - सदा आत्मा में स्थिर
योगी - योगी
विगतकल्मषः - पापरहित
सुखेन - सुख से
ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं - परमात्मा सम्पर्क का परम
सुखमश्नुते - सुख प्राप्त करता है

भावार्थ/Translation
   इस प्रकार सदा आत्मा में स्थिर, पापरहित योगी परमात्मा सम्पर्क का परम सुख प्राप्त करता है ।6.28।

   ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਹਮੇਸ਼ਾ ਆਤਮਾ ਵਿੱਚ ਸਥਿਰ, ਪਾਪਰਹਿਤ ਯੋਗੀ, ਈਸਵਰ ਸੰਪਰਕ ਦਾ ਪਰਮ ਸੁਖ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦਾ ਹੈ ।6.28।

   Thus devoting himself to the Yoga of the self, freed from impurities, the Yogi easily attains the supreme bliss of contact with the Lord. ।6.28।

।6.29।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ २९ ॥

शब्दार्थ
सर्वभूतस्थमात्मानं - अपने को सम्पूर्ण प्राणियों में देखता है
सर्वभूतानि - सम्पूर्ण प्राणियों को
चात्मनि - अपने स्वरूप में
ईक्षते - देखता है
योगयुक्तात्मा - योग से युक्त अन्तःकरण वाला
सर्वत्र - सब जगह
समदर्शनः - सम दृष्टि

भावार्थ/Translation
   सम दृष्टि वाला और योग से युक्त अन्तःकरण वाला, अपने स्वरूप को सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियों को अपने में देखता है (सर्वत्र परमात्मा को देखता है) ।6.29।

   ਬਰਾਬਰ ਨਜ਼ਰ ਰੱਖਣ ਵਾਲਾ ਅਤੇ ਯੋਗ ਨਾਲ ਯੁਕਤ ਚਿੱਤ ਵਾਲਾ, ਆਪਣੇ ਸਵਰੂਪ ਨੂੰ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਵੇਖਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਵਿੱਚ ਵੇਖਦਾ ਹੈ (ਸਭਨੀ ਥਾਂਈਂ ਰੱਬ ਵੇਖਦਾ ਹੈ) ।6.29।

   A true yogi observes himself in all beings and also sees every being in himself. Indeed, the self-realized person sees the Supreme Lord, everywhere. ।6.29।

।6.30।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ३० ॥

शब्दार्थ
यो मां - जो मुझे
पश्यति - देखता है
सर्वत्र - सर्वत्र
सर्वं च - सबको
मयि - मुझ में
पश्यति - देखता है
तस्याहं - उसके लिए मैं
न प्रणश्यामि - परे नहीं होता
स च मे न - और न वह मुझ से
प्रणश्यति - परे होता है

भावार्थ/Translation
   जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझ में देखता है उसके लिए मैं दूर नहीं होता और वह मुझ से परे नहीं होता ।6.30।

   ਜੋ ਮੈਨੂੰ ਸਭਨੀ ਥਾਂਈਂ ਵੇਖਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸਾਰਿਆ ਨੂੰ ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਵੇਖਦਾ ਹੈ ਉਸਦੇ ਲਈ ਮੈਂ ਦੂਰ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ਅਤੇ ਉਹ ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਪਰੇ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ।6.30।

   For one who sees Me everywhere and sees everything in Me, I am never lost, nor is he ever lost to Me. ।6.30।

।6.31।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ३१॥

शब्दार्थ
सर्वभूतस्थितं - सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित
यो मां - जो मेरा
भजत्येकत्वमास्थितः - भजता है, मेरे और अपने को एक समझना, ऐसे भाव से स्थित
सर्वथा - सब प्रकार से
वर्तमानोऽपि स - बर्ताव करता हुआ भी
योगी - योगी
मयि - मेरे में
वर्तते - बर्ताव कर रहा है

भावार्थ/Translation
   मन से मेरे और अपने को एक समझता हुआ जो योगी सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित मुझे भजता है वह सब बर्ताव करता हुआ भी मेरे में ही बर्ताव कर रहा है ।6.31।

   ਮਨ ਵਿੱਚ ਮੇਰੇ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਨੂੰ ਇੱਕ ਸੱਮਝਦਾ ਹੋਇਆ ਜੋ ਯੋਗੀ ਸੰਪੂਰਣ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਮੈਨੂੰ ਭਜਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਸਭ ਵਰਤਾਓ ਕਰਦਾ ਹੋਇਆ ਵੀ ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਹੀ ਵਰਤਾਓ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ ।6.31।

   He who, being established in unity with Me, worships Me as situated in all beings; that Yogi abides in Me, even if doing all the activites like a normal human. ।6.31।

।6.32।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥३२॥

शब्दार्थ
आत्मौपम्येन - अपने से अपनापन (के समान)
सर्वत्र - सर्वत्र
समं - सम
पश्यति - देखता है
योऽर्जुन - हे अर्जुन, जो
सुखं वा - सुख हो
यदि वा - या वह
दुःखं स - दुख हो
योगी - योगी
परमो - उत्तम
मतः - माना गया है

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन, जो पुरुष अपने से अपनेपन की तरह सर्वत्र सम देखता है, चाहे वह सुख हो या दुख वह परम योगी माना गया है ।6.32।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜੋ ਪੁਰਖ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਅਪਨੇਪਨ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਭਨੀ ਥਾਂਈਂ ਬਰਾਬਰ ਵੇਖਦਾ ਹੈ, ਚਾਹੇ ਉਹ ਸੁਖ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਦੁੱਖ, ਉਹ ਪਰਮ ਯੋਗੀ ਮੰਨਿਆ ਗਿਆ ਹੈ ।6.32।

   O Arjuna, that yogi is considered the best who judges what is happiness and sorrow in all beings by the same standard as he would apply to himself. ।6.32।

।6.33।
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥३३ ॥

शब्दार्थ
अर्जुन उवाच - अर्जुन बोले
योऽयं - जो यह
योगस्त्वया - योग, आपने
प्रोक्तः - कहा है
साम्येन - समता का
मधुसूदन - हे मधुसूदन
एतस्याहं - मैं, इस की
न पश्यामि - नहीं देखता हूँ
चञ्चलत्वात्स्थितिं - चञ्चलताके कारण
स्थिराम्‌ - स्थिरता

भावार्थ/Translation
   अर्जुन बोले, हे मधुसूदन, आपने समता का जो यह योग कहा है, मन की चञ्चलता के कारण, मैं इस की स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ ।6.33।

   ਅਰਜੁਨ ਬੋਲੇ, ਹੇ ਮਧੁਸੂਦਨ, ਤੁਸੀਂ ਸਮਤਾ ਦਾ ਜੋ ਇਹ ਯੋਗ ਕਿਹਾ ਹੈ, ਮਨ ਦੀ ਚੰਚਲਤਾ ਦੇ ਕਾਰਨ, ਮੈਂ ਇਸ ਦੀ ਸਥਿਰ ਹਾਲਤ ਨਹੀਂ ਵੇਖਦਾ ਹਾਂ ।6.33।

   Arjuna said, O Krishna, This Yoga of equal-mindedness, spoken by You; I do not find its steady continuance, because of continuous flickering of the mind. ।6.33।

।6.34।
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥ ३४॥

शब्दार्थ
चञ्चलं हि - चंचल
मनः - मन
कृष्ण - हे श्रीकृष्ण
प्रमाथि - उपद्रवी
बलवद्दृढम्‌ - बड़ा दृढ़ और बलवान
तस्याहं - उसको मैं
निग्रहं - वश में
मन्ये - मानता हूँ
वायोरिव - वायु को रोकने की भाँति
सुदुष्करम्‌ - अत्यन्त कठिन

भावार्थ/Translation
   हे श्रीकृष्ण! यह मन चंचल, उपद्रवी, दृढ़ और बलवान है। उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त कठिन मानता हूँ ।6.34।

   ਹੇ ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਣ ! ਇਹ ਮਨ ਚੰਚਲ, ਉਪਦਰਵੀ, ਦ੍ਰਿੜ ਅਤੇ ਬਲਵਾਨ ਹੈ । ਇਹਨੂੰ ਵਸ ਵਿੱਚ ਕਰਣਾ ਮੈਂ ਹਵਾ ਨੂੰ ਰੋਕਣ ਦੀ ਤਰਾੰ ਬਹੁਤ ਔਖਾ ਮੰਨਦਾ ਹਾਂ ।6.34।

   O Krishna, the mind is restless, turbulent, strong and unyielding; I deem it as difficult to control it as to control the wind. ।6.34।

।6.35।
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥३५ ॥

शब्दार्थ
श्रीभगवानुवाच - श्रीभगवान् बोले
असंशयं - निःसंदेह
महाबाहो - हे अर्जुन
मनो - यह मन
दुर्निग्रहं - नियंत्रण बड़ा कठिन है
चलम्‌ - चञ्चल
अभ्यासेन - अभ्यास
तु कौन्तेय - हे कुन्तीनन्दन
वैराग्येण - वैराग्य के द्वारा
च गृह्यते - वश में होता है

भावार्थ/Translation
   श्रीभगवान् बोले, हे अर्जुन, इसमें कोई शक नहीं है, यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका नियंत्रण करना भी बड़ा कठिन है । परन्तु हे कुन्तीनन्दन, अभ्यास और वैराग्य के द्वारा यह कर सकते हैं ।6.35।

   ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਂਨ ਬੋਲੇ, ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਇਸ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਸ਼ਕ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਇਹ ਮਨ ਬਹੁਤ ਚੰਚਲ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਕਾਬੂ ਕਰਣਾ ਵੀ ਬਹੁਤ ਔਖਾ ਹੈ । ਪਰ ਹੇ ਕੁਂਤੀਨੰਦਨ, ਅਭਿਆਸ ਅਤੇ ਤਪੱਸਿਆ ਦੇ ਨਾਲ ਇਹ ਕਰ ਸੱਕਦੇ ਹਾਂ ।6.35।

   Krishna said, O Arjuna, Undoubtedly, the mind is difficult to control and restless; but by practice and dispassion it may be restrained. ।6.35।

।6.36।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥३६॥

शब्दार्थ
असंयतात्मना - जो संयम नहीं रख सकता
योगो - योग
दुष्प्राप - दुर्लभ
इति - ऐसे
मे मतिः - मेरा मत है
वश्यात्मना - वश में किए हुए मन वाले
तु यतता - प्रयत्नशील
शक्योऽवाप्तुमुपायतः - प्राप्त होना सहज है, यह

भावार्थ/Translation
   जो मन पर संयम नहीं रख सकता, ऐसे के लिए योग कठिन है और वश में किए हुए मन से, उपाय से प्रयत्न करने पर प्राप्त होना सहज है - यह मेरा मत है ।6.36।

   ਜੋ ਮਨ ਉੱਤੇ ਸੰਜਮ ਨਹੀਂ ਰੱਖ ਸਕਦਾ, ਅਜਿਹੇ ਲਈ ਯੋਗ ਔਖਾ ਹੈ ਅਤੇ ਵਸ ਵਿੱਚ ਕੀਤੇ ਹੋਏ ਮਨ ਵਾਲੇ ਲਈ, ਉਪਾਅ ਨਾਲ ਜਤਨ ਕਰਣ ਤੇ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਣਾ ਸਹਿਜ ਹੈ - ਇਹ ਮੇਰਾ ਮਤ ਹੈ ।6.36।

   In my opinion Yoga is hard to attain by a person of unrestrained mind. However, it can be attained through right means by him, who strives for it and has a controlled mind. ।6.36।

।6.37।
अर्जुन उवाच अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥३७ ॥

शब्दार्थ
अर्जुन उवाच - अर्जुन बोले
अयतिः - प्रयत्न नहीं करता
श्रद्धयोपेतो - श्रद्धा रखने वाला है
योगाच्चलितमानसः - मन योग से विचलित हो गया है
अप्राप्य - न प्राप्त होकर
योगसंसिद्धिं - योग की सिद्धि को
कां गतिं - किस गति को
कृष्ण - हे श्रीकृष्ण
गच्छति - प्राप्त होता है

भावार्थ/Translation
   अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमित होकर प्रयत्न नहीं करता, जिसका मन योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को न पाकर किस गति को प्राप्त होता है ।6.37।

   ਅਰਜੁਨ ਬੋਲੇ - ਹੇ ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਣ ! ਜੋ ਯੋਗ ਵਿੱਚ ਸ਼ਰਧਾ ਰੱਖਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਪਰ ਸੰਜਮੀ ਹੋ ਕੇ ਜਤਨ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ, ਜਿਸਦਾ ਮਨ ਯੋਗ ਵਲੋਂ ਵਿਚਲਿਤ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, ਅਜਿਹਾ ਸਾਧਕ ਯੋਗ ਦੀ ਸਿੱਧੀ ਨੂੰ ਨਾਂ ਪਾ ਕੇ ਕਿਸ ਮੰਜਲ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।6.37।

   Arjuna said, O Krsna - If a person, who is possessed of faith but has put in only inadequate effort, finds his mind wandering away from Yoga, and fails to attain perfection - what way does he go ? ।6.37।

।6.38।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥३८ ॥

शब्दार्थ
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव - छिन्नभिन्न मेघ के समान दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ, नहीं
नश्यति - नष्ट हो जाता है
अप्रतिष्ठो - आश्रयरहित
महाबाहो - हे श्रीकृष्ण
विमूढो - मोहित
ब्रह्मणः - ब्रह्म के
पथि - मार्ग

भावार्थ/Translation
   हे श्रीकृष्ण - क्या वह ब्रह्म के मार्ग में मोहित तथा आश्रयरहित, छिन्नभिन्न मेघ के समान दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है ।6.38।

   ਹੇ ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਣ - ਕੀ ਉਹ ਬ੍ਰਹਮ ਦੇ ਰਸਤੇ ਤੋਂ ਮੋਹਿਤ ਅਤੇ ਬਿਨਾ ਕਿਸੇ ਆਸਰੇ ਤੋਂ, ਛਿੰਨ ਭਿੰਨ ਬੱਦਲ ਦੇ ਸਮਾਨ ਦੋਨਾਂ ਪਾਸਿਉਂ ਭ੍ਰਿਸ਼ਟ ਹੋਇਆ ਨਸ਼ਟ ਤਾਂ ਨਹੀਂ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ।6.38।

   O Krishna, fallen from both sides, does he not perish like a scattered cloud, supportless, deluded on the path of Brahman? ।6.38।

।6.39।
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ ३९॥

शब्दार्थ
एतन्मे - मेरे इस
संशयं - सन्देह का
कृष्ण - हे कृष्ण
छेत्तुमर्हस्यशेषतः - पूरा दूर करने के आप ही योग्य हैं
त्वदन्यः - आपके सिवाय दूसरा
संशयस्यास्य - इस संशय का
छेत्ता न - छेदन करने वाला, नहीं
ह्युपपद्यते - कोई हो नहीं सकता

भावार्थ/Translation
   हे कृष्ण, मेरे इस सन्देह का सर्वथा छेदन करनेके लिये आप ही योग्य हैं क्योंकि इस संशय का छेदन करने वाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता ।6.39।

   ਹੇ ਕ੍ਰਿਸ਼ਣ, ਮੇਰੇ ਇਸ ਸੰਦੇਹ ਦਾ ਪੂਰਾ ਖਾਤਮਾ ਕਰਨ ਲਈ ਤੁਸੀ ਹੀ ਲਾਇਕ ਹੋ, ਕਿਉਂਕਿ ਇਸ ਸੰਦੇਹ ਨੂੰ ਦੂਰ ਕਰਣ ਵਾਲਾ, ਤੁਹਾਡੇ ਇਲਾਵਾ ਦੂਜਾ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ।6.39।

   O Krishna, You are the only one who can dispel this doubt completely; because it is not possible for any one else, except you to remove this doubt. ।6.39।

।6.40।
श्रीभगवानुवाच पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥४० ॥

शब्दार्थ
श्रीभगवानुवाच - श्रीभगवान् बोले
पार्थ - हे अर्जुन
नैवेह - न यहां
नामुत्र - न परलोक में
विनाशस्तस्य - उसका, विनाश
विद्यते - होता है
न हि - नहीं
कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं - कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी दुर्गति को
तात - हे प्यारे
गच्छति - जाता

भावार्थ/Translation
   श्री भगवान् बोले, हे अर्जुन - उसका न यहां और न परलोक में ही विनाश होता है, क्योंकि हे प्यारे, कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी दुर्गति को नहीं जाता ।6.40।

   ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨ ਬੋਲੇ, ਹੇ ਅਰਜੁਨ - ਉਸਦਾ ਨਾਂ ਇੱਥੇ ਅਤੇ ਨਾਂ ਪਰਲੋਕ ਵਿੱਚ ਹੀ ਵਿਨਾਸ਼ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਹੇ ਪਿਆਰੇ, ਕਲਿਆਣਕਾਰੀ ਕੰਮ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਕੋਈ ਵੀ ਦੁਰਗਤੀ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦਾ ।6.40।

   Krishna said, O Arjuna, there is certainly no ruin for him here or hereafter. My dear, no one engaged in good meets with a deplorable end. ।6.40।

।6.41।
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ४१॥

शब्दार्थ
प्राप्य पुण्यकृतां - पुण्य करने वालों के, प्राप्त होकर
लोकानुषित्वा - लोकों में, रहकर
शाश्वतीः - बहुत
समाः - समय तक
शुचीनां - शुद्ध
श्रीमतां - वैभव सम्पन्न मानव
गेहे - घर में
योगभ्रष्टोऽभिजायते - योग से विचलित, जन्म लेता है

भावार्थ/Translation
   वह योगभ्रष्ट पुण्य करने वालों के लोकों को प्राप्त होकर और वहाँ बहुत समय तक रहकर फिर यहाँ शुद्ध वैभव सम्पन्न मानव के घर जन्म लेता है ।6.41।

   ਉਹ ਯੋਗ ਭਰਸ਼ਟ ਮਨੁੱਖ, ਪੁੰਨ ਕਰਣ ਵਾਲਿਆਂ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਕੇ ਅਤੇ ਉੱਥੇ ਬਹੁਤ ਸਮਾਂ ਰਹਿਕੇ ਫਿਰ ਇੱਥੇ ਸ਼ੁੱਧ ਦੌਲਤ ਸੰਪੰਨ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਘਰ ਜਨਮ ਲੈਂਦਾ ਹੈ ।6.41।

   He who falls from Yoga, attains the worlds of the righteous and having after living there for a long time, is born in a pure and wealthy home. ।6.41।

।6.42।
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ॥४२ ॥

शब्दार्थ
अथवा - अथवा
योगिनामेव - योगियों के
कुले - कुल में
भवति - आता है
धीमताम्‌ - ज्ञानवान
एतद्धि - है
दुर्लभतरं - अत्यन्त दुर्लभ
लोके - संसार में
जन्म - जन्म
यदीदृशम्‌ - इस प्रकार का

भावार्थ/Translation
   अथवा वह सीधा ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जन्म, संसार में निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है ।6.42।

   ਜਾਂ ਫਿਰ ਉਹ ਸਿੱਧਾ ਗਿਆਨਵਾਨ ਯੋਗੀਆਂ ਦੇ ਕੁਲ ਵਿੱਚ ਹੀ ਜਨਮ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦਾ ਜਨਮ, ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚ ਨਿ:ਸੰਦੇਹ ਅਤਿਅੰਤ ਦੁਰਲਭ ਹੈ ।6.42।

   Or he is born in a family of the wise Yogis; but a birth like this is very difficult to obtain in this world. ।6.42।

।6.43।
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥४३ ॥

शब्दार्थ
तत्र तं - वहाँ पर
बुद्धिसंयोगं - ज्ञान, अनायास ही
लभते - प्राप्त होता है
पौर्वदेहिकम्‌ - पूर्व जन्म से
यतते - प्रयत्न करता है
च ततो - उससे
भूयः - पुनः
संसिद्धौ - सिद्धि के विषयमें
कुरुनन्दन - हे कुरुनन्दन

भावार्थ/Translation
   हे अर्जुन - वहाँ उसको पूर्व जन्म से संग्रहित ज्ञान अनायास ही प्राप्त हो जाता है। वह योग की सिद्धि के विषय में पुनः विशेष यत्न करता है ।6.43।

   ਹੇ ਅਰਜੁਨ - ਉੱਥੇ ਉਹਨੂੰ ਪੂਰਵ ਜਨਮ ਵਿੱਚ ਮਿਲਿਆ ਗਿਆਨ ਐਵੇਂ ਹੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਉਹ ਯੋਗ ਦੀ ਸਿੱਧੀ ਦੇ ਵੱਲ ਵਿੱਚ ਫਿਰ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਜਤਨ ਕਰਦਾ ਹੈ ।6.43।

   O Arjuna, There he regains the disposition of mind which he had in his former body, and from there he strives much more for success in Yoga. ।6.43।

।6.44।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ४४॥

शब्दार्थ
पूर्वाभ्यासेन - पहले के अभ्यास से
तेनैव - उस, ही
ह्रियते - खिंच जाता है
ह्यवशोऽपि - (भोगों के) परवश होता हुआ भी
सः - वह
जिज्ञासुरपि - जिज्ञासु भी
योगस्य - योग का
शब्दब्रह्मातिवर्तते - वेदों में कहे अनुसार वर्तन न करना

भावार्थ/Translation
   वह भोगों के पराधीन हुआ भी, पहले के अभ्यास से ही, भगवान की ओर आकर्षित होता है तथा योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए करणीय-अकरणीय कर्मों का उल्लंघन कर जाता है ।6.44।

   ਉਹ ਭੋਗਾਂ ਦਾ ਗੁਲਾਮ ਹੋਇਆ ਵੀ, ਪਹਿਲਾਂ ਦੇ ਅਭਿਆਸ ਕਾਰਣ, ਭਗਵਾਨ ਵੱਲ ਆਕਰਸ਼ਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਯੋਗ ਦਾ ਜਿਗਿਆਸੁ ਵੀ ਵੇਦ ਵਿੱਚ ਕਹੇ ਹੋਏ ਕਰਨਯੋਗ - ਨਾਂ ਕਰਨਯੋਗ ਕਰਮਾਂ ਦੀ ਉਲੰਘਣਾ ਕਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।6.44।

   Even if bounded by the sense objects, he develops interest in Yoga by the power of his earlier practice. Even though he is an enquirer about Yoga, he sometimes transcends the instructions of Vedas. ।6.44।

।6.45।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ॥४५ ॥

शब्दार्थ
प्रयत्नाद्यतमानस्तु - प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला
योगी - योगी
संशुद्धकिल्बिषः - सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो - अनेक जन्मों से सिद्ध होता हुआ
यात - प्राप्त होता है
परां - परम
गतिम्‌ - गति को

भावार्थ/Translation
   परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों से (धीरे धीरे) सिद्ध होता हुआ, परम गति को प्राप्त होता है ।6.45।

   ਪਰ ਯਤਨ ਪੂਰਵਕ ਅਭਿਆਸ ਕਰਣ ਵਾਲਾ ਯੋਗੀ, ਸਭ ਪਾਪਾਂ ਤੋਂ ਸ਼ੁੱਧ ਹੋਕੇ ਅਨੇਕ ਜਨਮਾਂ ਚ (ਹੌਲੀ-ਹੌਲੀ) ਸਿੱਧ ਹੁੰਦਾ ਹੋਇਆ, ਪਰਮ ਗਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।6.45।

   After that, the assiduously striving man of Yoga, having his sins completely cleansed and slowly perfected through many briths, reaches the Supreme Goal. ।6.45।

।6.46।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ ४६॥

शब्दार्थ
तपस्विभ्योऽधिको - तपस्वियों से श्रेष्ठ
योगी - योगी
ज्ञानिभ्योऽपि - ज्ञानियों से भी
मतोऽधिकः - श्रेष्ठ है
कर्मिभ्यश्चाधिको - कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है
योगी - योगी
तस्माद्योगी - तुम योगी
भवार्जुन - अर्जुन, अर्जुन

भावार्थ/Translation
   क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिए, हे अर्जुन, तुम योगी बनो ।6.46।

   ਕਯੋਂਕਿ ਯੋਗੀ ਤਪਸਵੀਆਂ ਨਾਲੋਂ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਹੈ ਅਤੇ ਗਿਆਨੀਆਂ ਨਾਲੋਂ ਵੀ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਮੰਨਿਆ ਗਿਆ ਹੈ ਅਤੇ ਕਰਮ ਕਰਣ ਵਾਲਿਆਂ ਨਾਲੋਂ ਵੀ ਯੋਗੀ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ, ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਤੁੰ ਯੋਗੀ ਬਣ। ।6.46।

   The man of Yoga is superior to the men of austerities and is considered superior even to the men of knowledge; and the man of Yoga is superior to the men of action. Therefore, O Arjuna ! you shall become a man of Yoga. ।6.46।

।6.47।
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥४७ ॥

शब्दार्थ
योगिनामपि - योगियों में भी
सर्वेषां - सम्पूर्ण
मद्गतेनान्तरात्मना - मुझ में तल्लीन हुए मनसे
श्रद्धावान्भजते - श्रद्धा से भजन करता है
यो मां स मे - वह मेरे
युक्ततमो मतः - मत में सर्वश्रेष्ठ योगी है

भावार्थ/Translation
   सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान्, मुझ में तल्लीन हुए मन से मेरा भजन करता है, वह मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी है ।6.47।

   ਸੰਪੂਰਣ ਯੋਗੀਆਂ ਵਿੱਚ ਵੀ ਜੋ ਸ਼ਰਧਾ ਨਾਲ ਮੇਰੇ ਵਿੱਚ ਲੀਨ ਹੋ ਕੇ ਮੇਰਾ ਭਜਨ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਮੇਰੇ ਮਤ ਵਿੱਚ ਸਭ ਤੋਂ ਚੰਗਾ ਯੋਗੀ ਹੈ ।6.47।

   Even among all the yogis, he who adores Me with his mind fixed on Me and with full of faith,he is considered by Me to be the best of the yogis. ।6.47।


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥6.1-6.47॥

To be Completed by 1st July, 2015 (47 days)

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