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अध्याय दो / Chaper Two

बिना श्लोक केवल हिंदी टीका 

अर्जुन को इस प्रकार करुणा से व्याप्त, आँसुओं से पूर्ण, व्याकुल तथा शोकयुक्त देखकर तथा उसके मन के भाव समझकर भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहे।

उन्होंने कहा, हे अर्जुन, यह कलुषित भाव तुम्हारे मन में कहां से आया, यह भाव न स्वर्ग देने वाला है, न कीर्ति देने वाला है तथा अश्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है। नपुंसकता को मत प्राप्त हो और इस भाव को अपने में न उत्पन्न होने दे। हृदय की तुच्छ दुर्बलता को छोङ कर खडा हो। अर्जुन का दृष्टिकोण इस हद तक गलत था कि भगवान कृष्ण को अर्जुन को नपुसंकता की गाली तक देनी पङी। उस समय जब युद्ध शुरू होने का शंखनाद हो चुका था, श्री कृष्ण ने उसको कठोरतम शब्दों से समझाकर युद्ध करने को कहा। उनको अर्जुन का विचार किसी भी दृष्टि से उचित नहीं लगा।

परन्तु अर्जुन के मनोभाव पर इसका कोई असर नहीं हुआ। उसने कहा, मैं पूजनीय भीष्म एवं द्रोण से युद्ध में बाणों से कैसे लङूं, गुरूजनों को मारकर, खून से सने हुए सांसारिक भोगों को भोगने की अपेक्षा, उनको न मारकर, भिक्षा का अन्न खाना कल्याणकारी है। मैं ऐसा नहीं देखता हूँ कि भूमि का निष्कण्टक तथा धन-धान्य सम्पन्न राज्य, देवताओं का स्वामी पद भी मेरे इस इन्द्रियों को शोषित करने वाले शोक को दूर कर सके। इसी तरह हम कई बार परिस्थिति के हिसाब से तर्क देकर अपनी प्रतिक्रिया को उचित ठहराते हैं। कायरता से आवेशित तथा धर्म के विषय में मूर्ख मैं आपका शरणागत शिष्य आपसे पूछता हूँ, जो निश्चित ही मेरे लिए कल्याणकारी हो, वह मुझे कहिए। वह उस परिस्थिति में धर्म क्या है, यह जानना चाहता है। जब शरणागत शिष्य की भांति अर्जुन ने पूछा तब श्रीकृष्ण प्रसन्न भाव से दोनों सेनाओं के बीच में यह वचन बोले। यहां गीता हमें बताती है कि जब तक कोई मन से आप की सलाह ना पूछे तब तक अनावश्यक सुझाव नही देने चाहिए।

श्री कृष्ण जान गये कि यह भाव अर्जुन के मन में क्षण भर के लिए नहीं आए, और उसको विस्तार से मार्गदर्शन की आवश्यक्ता है। यह अध्याय सांख्य योग के नाम से है। सांख्य का अर्थ विश्लेष्णात्मक अध्ययन से है। योग का अर्थ जीवन जीने की विधि है, जिसमे शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक क्रियाओं का मिश्रण है। श्री कृष्ण एक मूल भूत विचार से शुरू करते हैं और कहते हैं कि तुम विद्वानों की तरह बातें कर रहे हो, परन्तु उनके लिए शोक कर रहे हो, जो शोक करने योग्य नहीं हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि ज्ञानीजन मृतकों व जीवितों के लिए शोक नहीं करते इसलिए तुम्हारा कौरवों के लिए शोक करना उचित नहीं है। इसका कारण बताते हुए कहते हैं कि ऐसा कभी नहीं था जब, मैं नहीं था और ऐसा कभी नहीं होगा जब मैं नहीं होऊँगा। ऐसा कभी नहीं था, जब तुम नहीं थे और ऐसा कभी नहीं होगा जब तुम नहीं होगे। ऐसा कभी नहीं था, जब ये सब राजा लोग नहीं थे और ऐसा कभी नहीं होगा जब ये नहीं होंगे अर्थात भूत काल, वर्तमान एवं भविष्य काल में मैं, तुम और सब प्राणी अनवरत विद्यमान हैं। इस को समझाने के लिए श्रीकृष्ण उदाहण देते हैं कि जैसे मानव शरीर में बचपन, जवानी और बुढापे की अवस्थाएं आती हैं और आत्मा उससे प्रभावित नहीं होता, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है और आत्मा इस परिवर्तन से अछूता रहता है। धीर पुरुष इस को समझता है और इस से मोहित नहीं होता।

अविनाशी वह है, जो सर्वत्र व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। इस नाशवान शरीर में रहनेवाला शरीरी नित्य, नाशरहित तथा जाना न जा सकने वाला है। जो इस शरीरी को मारने वाला मानता है और जो इसे मरा हुआ मानता है, वे दोनों ही इसे नहीं जानते; यह न मारता है और न मारा जाता है। यह न जन्मता है और न मरता ही है; यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला नहीं है। यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।

हे अर्जुन ! जो पुरुष शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्मरहित तथा क्षयविहीन जानता है, वह किसे मरवायेगा और कैसे मारेगा। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण करता है, ऐसे ही देही पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीर में चला जाता है। इस (आत्मा) को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। यह (आत्मा) न कटने वाली, न जलने वाली, न गलने वाली, न सुखने वाली है। यह नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर स्वभाव वाला, अचल, अनादि है। (देही) अदृश्य, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय कहा जाता है इसलिए इसे इस प्रकार जानकर तुमको शोक करना उचित नहीं है। हे अर्जुन, अगर तुम इसे (देही को) सदा जन्म लेने वाला तथा सदा मरने वाला मानता है, फिर भी यह शोक करने योग्य नहीं है। जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है, मरे हुए का जन्म निश्चित है क्योंकि यह अपरिहार्य (अटल) है इसलिए उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।

सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद अप्रकट होंगे, केवल मध्य में प्रकट हैं; अतः इसमें शोक की बात क्या है? कोई इस (शरीरी) को आश्चर्यकी तरह देखता है। अन्य कोई इसको आश्चर्य से कहता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है; और सुन करके भी कोई इसको नहीं जानता। हे अर्जुन, सबके शरीर में देही सदा अवध्य है, इसलिए किसी भी प्राणी के लिए तुम्हें शोक करना उचित नहीं।

अद्भुत शिक्षा - हम सभी के जीवन में ऐसा समय आता है जब हम अपनों के खोने (मरने) से या खोने के डर से शोक युक्त हो जाते हैं जो कि सर्वथा अनुपयुक्त है। इस शोक के भाव से हम उद्वेलित न हों, इसके लिए रोज कुछ समय के लिए ध्यान में बैठ कर सोचिए कि ऐसा कभी नहीं था, जब मैं और बाकी सब नहीं थे और ऐसा कभी नहीं होगा जब मैं और बाकी सब नहीं होंगे। ऊपर दिए अन्य विचारों का मनन कीजिए। यह अभ्यास आपको शोक मुक्त करने के लिए जादू का काम करेगा।

भगवान कृष्ण अर्जुन की इस शंका का निवारण करते हैं जिस में वह कहता है कि मैं अपनों को मारना नहीं चाहता। अगर आत्मा की बात करें तो उस को मारना तो संभव ही नहीं है, और अगर शरीर की बात करें तो उस का मरना अटल है। दोनों ही तर्कों से भगवान अर्जुन का शोक करना अनुचित बताते हैं। इस में देही की निरन्तरता (सत्यता) तथा देह की क्षणभंगुरता (असत्यता) ध्यान में आती है।

जितने भी कष्ट एवम प्रसन्नता के विषय हैं,वह सब शरीर से संबधित हैं आत्मा से नहीं। शरीर इन का अनुभव इन्द्रियों से करता है इसलिए इन्द्रियों को ठीक से संचालित करना, महत्वपूर्ण है। हे अर्जुन, इन्द्रियों के विषय सुख और दु:ख देने वाले हैं, जो सर्दी-गर्मी की तरह आने-जाने वाले और अनित्य हैं, उनको सहन करो। भगवान ने दोनों तरह के विषयों का वर्णन किया है, कुछ विषय सदा के लिए दु:ख से जुङे हैं जैसे रोग, बुढापा, गरीबी एवं कुछ विषय सदा के लिए सु:ख से जुङे हैं जैसे जवानी, माता-पिता, भोजन-वस्त्र-घर इत्यादि। लेकिन कुछ विषय मानव स्वभाव या समय के संदर्भ में सुख और दु:ख देने वाले हो सकते हैं जैसे सर्दी में सुर्य की गर्मी सुख देती है तथा गर्मी में सुर्य की गर्मी दु:ख देती है। एक प्रकार का संगीत किसी को सु:ख देता है (अच्छा लगता है) और दूसरे को दु:ख देता है (बुरा लगता है)।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस मनुष्य को इन्द्रियों के विषय व्यथित नहीं करते और जो दु:ख सुख में समान रहता है, वह धीर पुरुष अमृतत्व के योग्य है। यह अटल सत्य है कि सभी के जीवन में दु:ख सुख आता है, उसकी मात्रा तथा गहनता अलग हो सकती है। जो सुख में भी भगवान को याद रखे तथा दु:ख में संतुलित रहे वह पुरुष स्थिर चित्त वाला कहलाता है। भगवान ने कुछ भी बिना आधार व तथ्य के नहीं कहा, इसीलिए उन्होंने, दु:ख सुख में समान क्यों रहें, का निराकरण करते हुए कहा, कि इन्द्रियों के विषय के अंतर्गत आने वाली सब भौतिक वस्तुएं असत् हैं, उनके संबध में आकर होने वाला दु:ख सुख, सर्दी-गर्मी अल्पकालिक है, अतः असत् का तो अस्तित्व नहीं है। सत् का अभाव नहीं है, यानि परमात्मा सर्वस्व है, परमात्मा ही जगत का एकमात्र सत्य है। इस सत्-असत् का तत्व ज्ञानी पुरुष जानते हैं।

ऐसा अक्सर देखने में आता है कि मनुष्य क्षणिक दुःख से निराश होकर आशाहीन हो जाता है और सुख की घड़ी में अत्यंत चंचल होकर उत्साहित हो जाता है। हमको इन दोनों स्थितियों में शांत चित्त रहकर सम भाव रखना सीखना है। इसके लिए रोज कुछ समय के लिए ध्यान में बैठ कर सोचिए कि सुख-दुःख देने वाले इंद्रियों के विषय असत्य एवं अल्पकालिक हैं, यह हम में अपने को उस देह से अलग रखकर सोचने का अवसर देगा और मानसिक व्यथा व उत्तेजना को कम करेगा।

उपर की व्याख्या से कोई यह तर्क दे सकता है कि अगर कोई मरता मारता नहीं है तो अर्जुन को युद्ध करने की क्या आवश्यकता है, दुसरा तर्क दे कर लोग किसी को भी मारने को सही ठहरा सकते हैं। इस के निराकरण के लिए भगवान आगे कहते हैं।

यह युद्ध की पृष्ठ भूमि बड़ी लंबी है। जब शांति एवम संधि की सब कोशिशें बेकार हो जाती हैं तथा कौरवों के अधर्म तथा पाप का घड़ा भर जाता है। इस सब के बाद वह युद्ध की दहलीज पर पहुंचते हैं। भगवान कहते हैं कि क्षत्रिय धर्म के अनुसार भी क्षत्रिय के लिये धर्मयुद्ध से बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है। तुम्हें अपने धर्म से विचलित नहीं होना चाहिए। हे अर्जुन, अपने आप प्राप्त हुआ इस प्रकार का युद्ध स्वर्ग का खुला द्वार है और क्षत्रिय इससे सुख पाता है। अगर तुम यह धर्मयुद्ध नहीं करोगे, तो अपने धर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगे। सब लोग तुम्हारी अपकीर्ति को लगातार कहते रहेंगे; और सम्मानित पुरुष के लिए अपयश मरण से अधिक है। महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे। जिनके लिए तुम बहुत सम्मानित हो, वह तुम्हें सम्मान के पद से गिरा हुआ देखेंगे। तुम्हारे शत्रु तुम्हारे सार्मथ्य की निन्दा करते हुए बहुत कटु वचन कहेंगे, उससे अधिक दु:ख क्या होगा। हे अर्जुन, युद्ध में मरकर तुम स्वर्ग प्राप्त करोगे या जीतकर पृथ्वी को भोगोगे, इसलिये युद्ध का निश्चय कर खड़े हो जाओ। जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान जानकर युद्ध करो।

इसमें भगवान इशारा करते हैं कि मनुष्य कभी ऐसा काम ना करे जिससे वो अपना यश एवं कीर्ति खो ले। इसका अर्थ अपनी दौलत या पद खोना कदापि नहीं है। अगर सर्वस्व गवा कर भी धर्म युक्त यश कायम रहे तो ऐसा निर्णय लेने में चूक एवं देरी नहीं करनी चाहिए।

इस प्रकार युद्ध करने से पाप नहीं होगा। यह विषय सांख्य योग के परिपेक्ष्य में कहा गया, अब इस विषय को इस बुद्धि (ज्ञानदृष्टि) से सुनो जिससे तुम कर्मबन्धन से छुट सकते हो। इसके प्रयास (अनुकरण) से प्रारम्भ का नाश नहीं होता (फायदा ही है), उलटा फल भी नहीं होता बल्कि इस ज्ञान का थोडा आचरण करने से भी महान भय से रक्षा होती है। अगर हम इस रास्ते पर चलकर रुक जाते हैं या भटक जाते हैं तो भी जहाँ से छोड़ा है वहीं से शुरू कर सकते हैं। मनुष्य के एक जन्म के प्रयास से भी अगर लक्षय तक ना पहुंचे तो उस जन्म के अर्जित प्रयास अगले जन्म में जमा हो जाते हैं (खत्म नहीं होते)। इस से यह शिक्षा मिलती है कि अच्छे कार्य करते रहना चाहिए और यह सोच कर बैठ ना जाएं कि मैं इस को पूरा कर पाऊंगा या नहीं।

हे अर्जुन, निश्चय वाली बुद्धि एक ही है (जिनको पता है कि क्या करणीय है और क्या करणीय नहीं है), निश्चयरहित पुरुष की बुद्धि बहुत भेदों वाली अनंत होती है। ऐसे पुरूष अपने मन में कई तरह की ईच्छाएं रखते हैं (परिवार के लिए कुछ करना चाहते हैं,समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं, इन्द्रिय सुख पाना चाहते हैं, दौलत-पद-प्रतिष्ठा चाहते हैं इत्यादि) हे अर्जुन, वेदों की परिभाषा में व्यस्त अविवेकी पुरुष इस प्रकार की मनोरम वाणी बोलते हैं कि (स्वर्गादि के बिना) दूसरा कुछ है ही नहीं। कामनाओं से युक्त, स्वर्ग को श्रेष्ठ मानने वाले; भोग और ऐश्वर्य को प्राप्त कराने वाली, जन्म कर्म तथा फल देने वाली अनेक क्रियाओं को बताते हैं। उस पुष्पित वाणी से जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है, जो भोग तथा ऐश्वर्य में आसक्त हो गया है, उन मनुष्यों की परमात्मा में निश्चयात्मिका (एक तरफा) बुद्धि नहीं होती। हे अर्जुन, वेदों का विषय तीन गुणों (सत्व, रज व तम) से सम्बन्धित है, तुम तीनों गुणों से रहित बनो, द्वन्द्व रहित तथा योगक्षेम रहित होकर, नित्य सत्त्व गुण में स्थित रहो एवं आत्म परायण बनो। सारे भौतिक कार्य तीनों गुणों में से (सत्व, रज व तम) किसी एक से संबधित हैं। सत्व गुण से संबधित क्रियाएं करने से व्यक्ति धीरे-धीरे त्रिगुण रहित हो जाता है। योगक्षेम रहित होने का अर्थ है कि ऐसे सभी कर्मों से ऊपर उठना जो अपने पुष्पित भविष्य (पुण्य-संचय तथा स्वर्गादि) के लिए किए जाते हैं।

सब ओर से परिपूर्ण जलराशि के होने पर छोटे जलाशय का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्मज्ञानी का सभी वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है। कर्म करना तुम्हारा अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। अपने आपको कर्म फल का कारण मत समझो और तुम्हारी कर्म न करने में आसक्ति न हो।

इस का भाव है कि फलेच्छा के कारण कर्म न किया जाए। इस का अर्थ यह कदापि नहीं कि कर्म ही न किया जाए। कर्म करके उस का बखान करना या श्रेय लेना भी त्याज्य है।

इसी तरह आगे चल कर भगवान ने कहा है कि दान, यज्ञ आदि कर्म छोड़ने नहीं चाहिए, लेकिन वह किसी फलेच्छा के भाव से नहीं बल्कि समाज उपयोगी होने के कारण करने चाहिए। इसी तरह बहुत से कार्य जो हम अपने लिए परिवार पालन के लिए तथा अलग अलग परिस्थितियों, समय के सन्दर्भ में करते हैं, वह सब कार्य समबुद्धि से बिना फलेच्छा तथा अहम के भाव से करेंगे तो ऐसे सब कार्य योग की श्रेणी में आ जाएंगे। भाव बदलने से पूरा परिपेक्ष्य बदल जाता है, जैसे एक मानव चाकु का प्रयोग दूसरे को मारने के लिए करता है और दुसरा चाकु का प्रयोग रोगी का उपचार करने के लिए करता है, दोनों समान कार्य कर रहे हैं परन्तु भाव अलग अलग हैं, एक कातिल कहलाता है दूसरा वैद्य कहलाता है। हे अर्जुन, सफलता-विफलता की आसक्ति को त्याग कर, सम होकर कर्म करो। समत्व (समता का भाव) ही योग कहलाता है। हे अर्जुन,बुद्धियोग (बिना फलेच्छा से कर्म करने तथा फलों पर अपना अधिकार न होने का भाव) से सकाम कर्म अत्यंत निम्न श्रेणी का है। तू बुद्धि की शरण ले, फल की इच्छा करने वाले बहुत कृपण हैं। बुद्धि (समता) से युक्त पुरुष अच्छे तथा बुरे कर्मफल, दोनों त्याग देता है इसलिये योग में स्थिर हो जा, कर्मों में कुशलता योग है। बुद्धि युक्त मनीषी लोग कर्मजन्य फलों को त्यागकर बिना कष्ट के जन्मरूप बन्धन से मुक्त हुये पद को प्राप्त होते हैं। जब तेरी बुद्धि मोह रूपी दलदल को तर जायगी, तब तू सुने हुए और सुनने में आने वाले भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायगा। जब वेद-शास्त्रो के संशयपूर्ण वचन सुनने से विचलित तुम्हारी बुद्धि अचल और स्थिर हो जायेगी तब तुम योग को प्राप्त करोगे। अर्जुन युद्ध से होने वाले परिणाम (फल) से चिन्तित था। भगवान ने बड़ा सटीक उतर दिया और कहा कि तुम बिना फल की चिन्ता के युद्ध करो।

अर्जुन बोला - हे केशव (कृष्ण) परमात्मा में स्थित, स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य के क्या लक्षण हैं? स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है। अर्जुन ऐसे व्यक्ति के लक्षण पूछ रहा है जो भगवान के उपर बताए (पिछले श्लोकों के आधार पर) शब्दों पर पूरा उतरता है। श्री भगवान् बोले - हे अर्जुन, जब कोई मन से सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है और अपने आप से अपने आप में ही सन्तुष्ट (आत्मसंतुष्ट) रहता है, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। दु:ख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख की अभिलाषा नष्ट हो गयी है, मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है। जो सर्वत्र स्नेहरहित हुआ, शुभ या अशुभ वस्तु को पाकर न अनुराग करता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। जैसे कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जब कोई इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है। विषय भोग न करने से मनुष्य के विषय तो दूर हो जाते हैं, परन्तु राग नहीं ; परम तत्व को देखने पर राग (रुचि) भी निवृत्त हो जाता है।

यहां भी भाव की प्रधानता है। विषयों से दूर रहना या अपने उपर कठिन बन्धन लगा लेना (लम्बे व्रत, दूसरे लिंग के लोगों से न मिलने का व्रत, अन्यान्य सुख सुविधाएं प्रयोग न करने का व्रत) विषय भोग से दूर रहने का एक तरीका हो सकता है, परन्तु यह पाया गया है कि विषयों के सामने आने से मन पर अंकुश नहीं रहता। विषयों में रह कर, विषयों से दूर रहना ही स्थितप्रज्ञ का स्वभाव है। राजा जनक इस की सर्वोत्तम उदाहरण हैं। हे अर्जुन, यत्न करते हुए विवेकयुक्त मनुष्य के मन को, इन्द्रियां बलपूर्वक उत्तेजित कर देती हैं। योगी सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण होकर बैठे; जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है। इस में भगवान ईंगित करते हैं कि जो मनुष्य अपने को उपर उठाने के रास्ते पर है उस को रास्ते में कई प्रलोभन तथा अड़चनें मिलेंगी, लेकिन उस को गिरते उठते, चोट खाते यह रास्ता तय करना है और किसी भी हालत में छोड़ना नहीं है। विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से कामना और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से सम्मोह होता है, सम्मोह से स्मृति भ्रम, स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि नाश तथा बुद्धि नाश होने पर (मनुष्य का) पतन हो जाता है। अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ प्रसन्नता को प्राप्त होता है। प्रसन्नता प्राप्त होने पर समस्त दुःखों का नाश हो जाता है, प्रसन्न चित्त वाले की बुद्धि शीघ्र स्थिर हो जाती है। जिसकी बुद्धि एवं भावना समाहित नहीं होती, ऐसी भावनाहीन को शान्ति नहीं मिलती। शान्तिरहित को सुख कैसे मिल सकता है। अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से जिस एक इन्द्रिय का भी मन अनुकरण करता है वह मन बुद्धि को हर लेता है, जैसे जल में नौका को वायु हर लेती है। छोटी सी भूल हमें एक भूल भुलैया में ङाल सकती है। इन्द्रिय सुख की छोटी सी फिसलन एक बड़ी दल दल में धकेल सकती है। हे अर्जुन, जिस पुरुष की इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के विषयों से राग नहीं करती, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

सब प्रणियों के लिए जो रात्रि है, उसमें संयमी जागता है; और जब सब प्राणी जागते हैं, वह जानने वाले मुनि के लिए रात्रि है। जैसे सम्पूर्ण नदियों का जल, अचल प्रतिष्ठित परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है, ऐसे ही कामनाओं के प्रवेश करने से (जिस में विकार नहीं आता), वही शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं। इस का अर्थ यह भी है कि विषयों में विचरण करने से, विषयों के रस का अनुराग जिस में नहीं आता वह समुद्र की भाँति स्थिर है, जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके निर्मम, निरहंकार और बिना लालसा के विचरता है, वह शान्ति प्राप्त करता है। हे अर्जुन, यह ब्रह्म को प्राप्त हुए की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर कोई मोहित नहीं होता। इस में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय, तो ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति होती है। अगर जीवन पर्यन्त इस का अभ्यास नहीं होगा तो मृत्यु के समय इस भाव में स्थिर होना संभव नहीं है और यह एक मृगतृष्णा बन कर रह जाएगी।

ਸ਼ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਬਿਨਾ ਸਿਰਫ ਪੰਜਾਬੀ ਟੀਕਾ 

ਅਰਜੁਨ ਨੂੰ ਇਸ ਤਰਾਂ ਦਯਾ ਅਤੇ ਹੰਝੂਆਂ ਨਾਲ ਭਰਿਆ, ਦੁਖੀ ਅਤੇ ਸ਼ੋਕ ਵਿਚ ਦੇਖ ਕੇ ਅਤੇ ਉਸ ਦੇ ਮਨ ਨੂੰ ਸਮਝ ਕੇ ਭਗਵਾਨ ਮਧੁਸੂਦਨ ਨੇ ਇਹ ਸ਼ਬਦ ਕਹੇ। ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਕਿਹਾ, ਹੇ ਅਰਜੁਨ ਇਹ ਕਲੁਸ਼ਿਤ ਵਿਚਾਰ ਤੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਕਿਥੋਂ ਆਇਆ, ਇਹ ਵਿਚਾਰ ਨਾ ਸ੍ਵਰਗ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਨਾ ਕਿਰਤੀ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸ਼੍ਰੇਸ਼ਠ ਪੁਰਖਾਂ ਦੁਆਰਾ ਆਚਰਿਤ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਨਪੁੰਸਕ ਨਾ ਬਣ ਅਤੇ ਇਸ ਵਿਚਾਰ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਵਿਚ ਪੈਦਾ ਨਾ ਹੋਣ ਦੇ। ਮਨ ਦੀ ਨਿੱਕੀ ਜਿਹੀ ਕਮਜੋਰੀ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਖੜਾ ਹੋ ਜਾ। ਅਰਜੁਨ ਦੀ ਸੋਚ ਇਸ ਹੱਦ ਤਕ ਗਲਤ ਸੀ ਕਿ ਭਗਵਾਨ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਨੂੰ ਅਰਜੁਨ ਨੂੰ ਨਪੁੰਸਕ ਤੱਕ ਕਹਿਣਾ ਪਿਆ, ਉਸ ਵੇਲੇ ਜਦੋਂ ਯੁੱਧ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਣ ਦਾ ਸ਼ੰਖਨਾਦ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਸੀ, ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਕਠੋਰ ਸ਼ਬਦਾਂ ਨਾਲ ਸਮਝਾ ਕੇ ਯੁੱਧ ਕਰਣ ਲਈ ਕਿਹਾ। ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਅਰਜੁਨ ਦਾ ਵਿਚਾਰ ਕਿਸੇ ਵੀ ਪਾਸੋਂ ਸਹੀ ਨਾ ਲੱਗਾ। ਪ੍ਰੰਤੂ ਅਰਜੁਨ ਦੇ ਮਨ ਤੇ ਇਸ ਦਾ ਕੋਈ ਅਸਰ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ, ਉਸ ਨੇ ਕਿਹਾ ਮੈਂ ਪੂਜਨੀਯ ਭੀਸ਼ਮ ਅਤੇ ਦਰੋਣ ਨਾਲ ਯੁੱਧ ਵਿਚ ਤੀਰਾਂ ਨਾਲ ਕਿਂਵੇ ਲੜ੍ਹਾ। ਗੁਰੂ ਨੂੰ ਮਾਰ ਕੇ, ਖੂਨ ਨਾਲ ਭਰੇ ਹੋਏ ਸੰਸਾਰਿਕ ਸੁੱਖਾਂ ਨੂੰ ਭੋਗਣ ਤੋਂ ਚੰਗਾ ਹੈ, ਮਹਾਨ ਗੁਰੂ ਨੂੰ ਨਾ ਮਾਰ ਕੇ, ਭੀਖ ਦਾ ਅੰਨ ਖਾਵਾਂ। ਮੈਂ ਇਹ ਨਹੀਂ ਦੇਖਦਾ ਕਿ ਭੂਮੀ ਦਾ ਨਿਸ਼ਕੰਟਕ ਅਤੇ ਧਨ ਨਾਲ ਸੰਪੰਨ ਰਾਜ, ਦੇਵਤਿਆਂ ਦੇ ਰਾਜੇ ਦੀ ਗੱਦੀ ਵੀ ਮੇਰੇ ਇਸ ਇੰਦਰੀਆਂ ਨੂੰ ਸੁਕਾਉਂਣ ਵਾਲੇ ਦੁੱਖ ਨੂੰ ਦੂਰ ਕਰ ਸਕੇ। ਇਸੇ ਤਰਾਂ ਅਸੀਂ ਕਈ ਵਾਰ ਸਮੇਂ ਦੇ ਹਿਸਾਬ ਨਾਲ ਤਰਕ ਦੇ ਕੇ ਆਪਣੀ ਗੱਲ ਨੂੰ ਠੀਕ ਦੱਸਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦੇ ਹਾਂ। ਕਾਇਅਰਤਾ ਨਾਲ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਅਤੇ ਧਰਮ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਵਿੱਚ ਮੂਰਖ, ਮੈਂ ਤੁਹਾਡਾ ਸ਼ਰਣਾਗਤ ਚੇਲਾ ਤੁਹਾਨੂੰ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ, ਜੋ ਨਿਸ਼ਚਿਤ ਹੀ ਮੇਰੇ ਲਈ ਕਲਿਆਣਕਾਰੀ ਹੈ, ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਕਹੋ। ਅਰਜੁਨ ਇਸ ਸਥਿਤੀ ਵਿਚ ਧਰਮ ਕੀ ਹੈ, ਇਹ ਜਾਨਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ।ਜਦੋਂ ਸ਼ਰਨ ਵਿਚ ਆਏ ਹੋਏ ਚੇਲੇ ਦੀ ਤਰਾਂ ਅਰਜੁਨ ਨੇ ਪੁਛਿਆ ਤਾਂ ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਖੁਸ਼ ਹੋ ਕੇ ਦੋਨ੍ਹਾਂ ਸੇਨਾਵਾਂ ਦੇ ਵਿੱਚ ਇਹ ਸ਼ਬਦ ਬੋਲੇ। ਇੱਥੇ ਗੀਤਾ ਸਾਨੂੰ ਦੱਸਦੀ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ ਤਕ ਕੋਈ ਮਨੋਂ ਤੁਹਾਡੀ ਸਲਾਹ ਨਾ ਪੁੱਛੇ ਉਦੋਂ ਤਕ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਸੁਝਾਵ ਨਹੀਂ ਦੇਣੇ ਚਾਹੀਦੇ। ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਜਾਣ ਗਏ ਕਿ ਇਹ ਵਿਚਾਰ ਅਰਜੁਨ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਅਚਾਨਕ ਨਹੀਂ ਆਏ ਅਤੇ ਉਸ ਨੂੰ ਵਿਸਥਾਰ ਨਾਲ ਰਸਤਾ ਦਿਖਾਉਣ ਦੀ ਜਰੂਰਤ ਹੈ। ਇਹ ਪਾਠ ਸਾੰਖਯ ਯੋਗ ਦੇ ਨਾਂ ਨਾਲ ਹੈ, ਸਾੰਖਯ ਦਾ ਅਰਥ ਵਿਸ਼ਲੇਸ਼ਨਾਤਮਕ ਅਧਿਐਨ ਨਾਲ ਹੈ, ਯੋਗ ਦਾ ਅਰਥ ਜੀਵਨ ਜਿਉਂਣ ਦੀ ਵਿਧੀ ਹੈ, ਜਿਸ ਵਿਚ ਸਰੀਰਕ, ਮਾਨਸਿਕ ਅਤੇ ਅਧਿਆਤਮਕ ਕਿਰਿਆਵਾਂ ਦਾ ਮੇਲ ਹੈ।

ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਇਕ ਮੁੱਢਲੇ ਵਿਚਾਰ ਤੋਂ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰਦਿਆਂ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਤੂ ਵਿਦਵਾਨਾਂ ਦੀ ਤਰਾਂ ਗੱਲਾਂ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈਂ, ਪਰ ਉਹਨਾਂ ਲਈ ਸ਼ੋਕ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈਂ, ਜੋ ਸ਼ੋਕ ਕਰਨ ਦੇ ਕਾਬਿਲ ਨਹੀਂ ਹਨ। ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਬੁੱਧੀਮਾਨ ਮਰੇ ਹੋਏ ਅਤੇ ਜਿਉਂਦਿਆਂ ਲਈ ਸ਼ੋਕ ਨਹੀ ਕਰਦੇ, ਇਸ ਲਈ ਤੇਰਾ ਕੋਰਵਾਂ ਲਈ ਸ਼ੋਕ ਕਰਨਾ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਇਸ ਦਾ ਕਾਰਨ ਦੱਸਦੇ ਹੋਏ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਇਹ ਕਦੇ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਨਹੀਂ ਸੀ ਅਤੇ ਇਹ ਕਦੇ ਨਹੀ ਹੋਵੇਗਾ ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਨਹੀਂ ਹੋਵਾਂਗਾ। ਇਹ ਕਦੇ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਜਦੋਂ ਤੂੰ ਨਹੀਂ ਸੀ ਅਤੇ ਇਹ ਕਦੇ ਨਹੀ ਹੋਵੇਗਾ ਜਦੋਂ ਤੂੰਨਹੀਂ ਹੋਵੇਂਗਾ। ਇਹ ਕਦੇ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਜਦੋਂ ਇਹ ਰਾਜਾ ਲੋਕ ਨਹੀਂ ਸੀ ਅਤੇ ਇਹ ਕਦੇ ਨਹੀ ਹੋਵੇਗਾ ਜਦੋਂ ਇਹ ਨਹੀਂ ਹੋਣਗੇ,ਮਤਲਬ ਭੂਤ ਕਾਲ, ਵਰਤਮਾਨ ਕਾਲ, ਭਵਿੱਖ ਕਾਲ ਵਿਚ ਮੈਂ, ਤੂੰ ਅਤੇ ਸਾਰੇ ਜੀਵ ਮੋਜੂਦ ਹਨ। ਇਸ ਨੂੰ ਸਮਝਾਉਣ ਲਈ ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਉਦਾਹਰਣ ਦਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਜਿਵੇਂ ਮਨੁੱਖੀ ਸ਼ਰੀਰ ਵਿਚ ਬਚਪਨ, ਜਵਾਨੀ ਅਤੇ ਬੁਢਾਪੇ ਦੀਆਂ ਸਥਿਤੀਆਂ ਆਉਂਦੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਆਤਮਾ ਉਸ ਨਾਲ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ, ਓੁਸ ਤਰਾਂ ਹੋਰ ਸ਼ਰੀਰ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਆਤਮਾ ਇਸ ਪਰਿਵਰਤਣ ਤੋਂ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ। ਧੀਰ ਪੁੱਰਖ ਇਸ ਨੂੰ ਸਮਝਦਾ ਹੈ ਇਸ ਤੋਂ ਮੋਹਿਤ ਨਹੀ ਹੁੰਦਾ। ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਉਹ ਹੈ ਜੋ ਸ਼ਭ ਪਾਸੇ ਮੋਜੂਦ ਹੈ, ਇਸ ਅਵਿਨਾਸ਼ੀ ਦਾ ਵਿਨਾਸ਼ ਕਰਨ ਲਈ ਕੋਈ ਸਮਰੱਥ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਇਸ ਨਾਸ਼ਵਾਨ ਸ਼ਰੀਰ ਵਿਚ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਸ਼ਰੀਰੀ ਨਿੱਤ, ਨਾਸ਼ ਨਾ ਕੀਤਾ ਜਾਣ ਵਾਲਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਜਾਣਿਆ ਨਹੀਂ ਜਾ ਸਕਦਾ। ਜੋ ਇਸ ਸ਼ਰੀਰ ਨੂੰ ਮਰਨ ਵਾਲਾ ਮੰਨਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜੋ ਇਸ ਨੂੰ ਮਰਿਆ ਹੋਇਆ ਮੰਨਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਦੋਵੇਂ ਹੀ ਇਸ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਜਾਣਦੇ, ਇਹ ਨਾਂ ਤਾਂ ਮਾਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾ ਮਾਰਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਨਾ ਜਨਮ ਲੈਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਮਰਦਾ ਹੈ, ਇਹ ਪੈਦਾ ਹੋ ਕੇ ਦੁਬਾਰਾ ਹੋਣ ਵਾਲਾ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਇਹ ਅਜਨਮਾ, ਨਿੱਤ, ਸਨਾਤਨ ਅਤੇ ਪੁਰਾਤਨ ਹੈ, ਸ਼ਰੀਰ ਦੇ ਮਰ ਜਾਣ ਤੇ ਵੀ ਇਹ ਨਹੀਂ ਮਰਦਾ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਸ਼ਰੀਰ ਨੂੰ ਨਾਸ਼ ਨਾ ਹੋਣ ਵਾਲਾ, ਨਿੱਤ, ਜਨਮ-ਮਰਨ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਅਤੇ ਅਟੱਲ ਜਾਣਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਕਿਸ ਨੂੰ ਮਰਵਾਉਗਾ ਅਤੇ ਕਿਵੇਂ ਮਾਰੁਗਾ। ਮਨੁੱਖ ਜਿਵੇਂ ਪੁਰਾਣੇ ਕੱਪੜੇ ਛੱਡ ਕੇ ਨਵੇਂ ਕਪੜੇ ਪਾਉਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਤਰਾਂ ਹੀ ਦੇਹੀ ਪੁਰਾਣੇ ਸ਼ਰੀਰ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਨਵੇਂ ਸ਼ਰੀਰ ਵਿਚ ਚਲਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਸ (ਆਤਮਾ) ਨੂੰ ਸ਼ਸਤਰ ਕੱਟ ਨਹੀਂ ਸਕਦੇ, ਅੱਗ ਜਲਾ ਨਹੀਂ ਸਕਦੀ, ਜਲ ਗਲਾ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ ਅਤੇ ਹਵਾ ਸੁਖਾ ਨਹੀਂ ਸਕਦੀ।

ਇਹ (ਆਤਮਾ) ਨਾ ਕਟਣ ਵਾਲੀ, ਨਾ ਜਲਣ ਵਾਲੀ, ਨਾ ਗਲਣ ਵਾਲੀ ਅਤੇ ਨਾ ਸੁੱਕਣ ਵਾਲੀ ਹੈ। ਇਹ ਨਿੱਤ, ਸਰਬਵਿਆਪੀ, ਸਥਿਰ ਸੁਭਾਅ ਵਾਲਾ, ਅਚਲ ਅਤੇ ਅਨਾਦਿ ਹੈ। (ਦੇਹੀ) ਨਾ ਦਿਖਣ ਵਾਲਾ, ਕਲਪਨਾ ਤੋਂ ਦੂਰ ਅਤੇ ਪਰਿਵਰਤਿਤ ਨਾ ਹੋਣ ਵਾਲਾ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ ਇਸ ਨੂੰ ਇਸ ਤਰਾਂ ਜਾਣ ਕੇ, ਤੈਨੂੰ ਸ਼ੋਕ ਕਰਨਾ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜੇ ਤੂੰ ਇਸ (ਦੇਹੀ) ਨੂੰ ਸਦਾ ਜਨਮ ਲੈਣ ਵਾਲਾ ਅਤੇ ਸਦਾ ਮਰਨ ਵਾਲਾ ਮੰਨਦਾ ਹੈਂ ਤਾਂ ਵੀ ਇਹ ਸ਼ੋਕ ਕਰਨ ਲਾਇਕ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਜੰਮੇ ਹੋਏ ਦੀ ਮੌਤ ਪੱਕੀ ਹੈ, ਮਰੇ ਹੋਏ ਦਾ ਜਨਮ ਤੈਅ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਇਹ ਨਿਯਮ ਅਟੱਲ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ ਉਸ ਸੰਬੰਧੀ ਤੈਨੂੰ ਸ਼ੋਕ ਨਹੀਂ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦਾ। ਸਾਰੇ ਜੀਵ ਜਨਮ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਅਪ੍ਰਗਟ ਸੀ ਅਤੇ ਮਰਨ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਅਪ੍ਰਗਟ ਹੋਣਗੇ, ਸਿਰਫ ਮੱਧ ਵਿਚ ਪ੍ਰਗਟ ਹਨ, ਇਸ ਵਿਚ ਸ਼ੋਕ ਕਰਨ ਵਾਲੀ ਕੀ ਗੱਲ ਹੈ। ਕੋਈ ਇਸ (ਸ਼ਰੀਰੀ) ਨੂੰ ਹੈਰਾਨੀ ਨਾਲ ਦੇਖਦਾ ਹੈ, ਕੋਈ ਹੋਰ ਇਸ (ਸ਼ਰੀਰੀ) ਨੂੰ ਹੈਰਾਨੀ ਨਾਲ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਕੋਈ ਇਸ ਨੂੰ ਹੈਰਾਨੀ ਨਾਲ ਸੁਣਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸੁਣ ਕੇ ਵੀ ਕੋਈ ਇਸ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਜਾਣਦਾ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਸਾਰਿਆਂ ਦੇ ਸ਼ਰੀਰ ਵਿਚ ਦੇਹੀ ਹਮੇਸ਼ਾ ਵੱਸਦਾ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ ਕਿਸੇ ਵੀ ਪ੍ਰਾਣੀ ਦੇ ਲਈ ਤੇਰਾ ਸ਼ੋਕ ਕਰਨਾ ਠੀਕ ਨਹੀਂ।

ਅਸੀਂ ਸਾਰੇ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿਚ ਕਦੇ ਨਾ ਕਦੇ ਆਪਣੇ ਨਜ਼ਦੀਕੀ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਮੌਤ ਕਾਰਨ ਜਾਂ ਉਨਾਂ ਦੇ ਨੁਕਸਾਨ ਹੋਣ ਦੇ ਡਰ ਨਾਲ ਦੁਖੀ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਾਂ ਜੋ ਕਿ ਗੈਰ ਜਰੂਰੀ ਹੈ। ਇਸ ਦੁਖ ਵਿਚ ਅਸੀ ਆਪਣੀ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨਾ ਖੋ ਬੈਠੀਏ ਇਸ ਲਈ ਰੋਜ ਕੁਝ ਸਮੇਂ ਧਿਆਨ ਵਿਚ ਬੈਠ ਕੇ ਸੋਚੋ ਕਿ ਇਹ ਕਦੇ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਅਤੇ ਬਾਕੀ ਸਾਰੇ ਨਹੀਂ ਸੀ ਅਤੇ ਇਹ ਕਦੇ ਨਹੀ ਹੋਵੇਗਾ ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਅਤੇ ਬਾਕੀ ਸਾਰੇ ਨਹੀਂ ਹੋਣਗੇ। ਉੱਪਰ ਦਿੱਤੇ ਬਾਕੀ ਉਪਦੇਸ਼ਾਂ ਦਾ ਧਿਆਨ ਕਰੋ। ਇਹ ਅਭਿਆਸ ਤੁਹਾਡਾ ਦੁਖ ਦੂਰ ਕਰਨ ਲਈ ਜਾਦੂ ਦਾ ਕੰਮ ਕਰੇਗਾ। ਭਗਵਾਨ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਅਰਜੁਨ ਦੀ ਇਸ ਸ਼ੰਕਾ ਨੂੰ ਦੂਰ ਕਰਦੇ ਹਨ ਜਿਸ ਵਿਚ ਉਹ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਨਜ਼ਦੀਕੀ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਮਾਰਨਾ ਨਹੀਂ ਚਾਹੁੰਦਾ। ਜੇ ਆਤਮਾ ਦੀ ਗੱਲ ਕਰੀਏ ਤਾਂ ਉਸਨੂੰ ਮਾਰਨਾ ਸੰਭਵ ਨਹੀਂ ਤੇ ਜੇ ਸ਼ਰੀਰ ਦੀ ਗੱਲ ਕਰੀਏ ਤਾਂ ਉਸਦਾ ਮਰਨਾ ਅਟਲ ਹੈ। ਦੋਨੋਂ ਤਰਕਾਂ ਨਾਲ ਭਗਵਾਨ ਅਰਜੁਨ ਦੇ ਦੁਖੀ ਹੋਣ ਨੂੰ ਗਲਤ ਦੱਸਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਵਿਚ ਆਤਮਾ ਦੀ ਨਿਰੰਤਰਤਾ (ਸੱਚਾਈ) ਸਾਮਣੇ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਧਿਆਣ ਵਿੱਚ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਸ਼ਰੀਰ ਦਾ ਇੱਕ ਪਲ ਦਾ ਭੀ ਭਰੋਸਾ ਨਹੀਂ।

ਹੇ ਅਰਜੁਨ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਸੁਖ ਅਤੇ ਦੁਖ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਹਨ, ਜੋ ਸਰਦੀ ਗਰਮੀ ਦੀ ਤਰਾਂ ਆਉਣ-ਜਾਉਣ ਵਾਲੇ ਹਨ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਹਿਨ ਕਰੋ। ਭਗਵਾਨ ਨੇ ਦੋਨ੍ਹਾਂ ਤਰਾਂ ਦੇ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਦਾ ਵਰਣਨ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਕੁਝ ਵਿਸ਼ੇ ਹਮੇਸ਼ਾ ਲਈ ਦੁੱਖ ਨਾਲ ਜੁੜੇ ਹਨ, ਜਿਂਵੇ ਰੋਗ, ਬੁਢਾਪਾ,ਗਰੀਬੀ ਅਤੇ ਕੁਝ ਵਿਸ਼ੇ ਹਮੇਸ਼ਾ ਲਈ ਸੁਖ ਨਾਲ ਜੁੜੇ ਹਨ ਜਿਂਵੇ ਜਵਾਨੀ, ਮਾਤਾ-ਪਿਤਾ, ਭੋਜਨ-ਕਪੜੇ-ਘਰ ਆਦਿ। ਪ੍ਰੰਤੂ ਕੁਝ ਵਿਸ਼ੇ ਮਨੁੱਖੀ ਸੁਭਾਅ ਜਾਂ ਸਮੇਂ ਦੇ ਹਿਸਾਬ ਨਾਲ ਸੁਖ ਅਤੇ ਦੁਖ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਹੋ ਸਕਦੇ ਹਨ ਜਿਂਵੇ ਸਰਦੀ ਵਿਚ ਸੂਰਜ ਦੀ ਗਰਮੀ ਸੁਖ ਦਿੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਗਰਮੀ ਵਿਚ ਸੂਰਜ ਦੀ ਗਰਮੀ ਦੁਖ ਦਿੰਦੀ ਹੈ, ਇਸੇ ਤਰਾਂ ਕਿਸੇ ਖਾਸ ਤਰਾਂ ਦਾ ਸੰਗੀਤ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਸੁਖ ਦਿੰਦਾ ਹੈ (ਚੰਗਾ ਲਗਦਾ ਹੈ) ਅਤੇ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਦੁਖ ਦਿੰਦਾ ਹੈ (ਬੁਰਾ ਲਗਦਾ ਹੈ)।

ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਜਿਹੜੇ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਇੰਦ੍ਰਿਆਂ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਦੁਖੀ ਨਹੀ ਕਰਦੇ ਅਤੇ ਦੁਖ-ਸੁਖ ਵਿਚ ਸਮਾਨ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ,ਓਹ ਧੀਰ ਪੁਰਖ ਅਮ੍ਰਿਤ੍ਤਵ ਦੇ ਲਾਇਕ ਹੈ। ਇਹ ਅਟੱਲ ਸਚ ਹੈ ਕਿ ਸਾਰਿਆਂ ਦੇ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਦੁਖ ਸੁਖ ਆਉਂਦਾ ਹੈ,ਉਸਦੀ ਮਾਤਰਾ ਅਤੇ ਡੂੰਘਾਈ ਵੱਖ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਜਿਹੜਾ ਸੁਖ ਵਿੱਚ ਵੀ ਰੱਬ ਨੂੰ ਯਾਦ ਰਖੇ ਅਤੇ ਦੁੱਖ ਵਿਚ ਸੰਤੁਲਿਤ ਰਹੇ ਓਹ ਪੁਰਖ ਸਥਿਰ ਮਨ ਵਾਲਾ ਕਹਾਓਂਦਾ ਹੈ।

ਭਗਵਾਨ ਨੇ ਕੁਝ ਵੀ ਬਿਨਾਂ ਅਧਾਰ ਅਤੇ ਤੱਥ ਦੇ ਨਹੀਂ ਕਿਹਾ, ਇਸ ਲਈ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਦੁੱਖ ਸੁਖ ਵਿਚ ਸਮਾਨ ਕਿਉਂ ਰਹੀਏ, ਨੂੰ ਪਰਿਭਾਸ਼ਿਤ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਕਿਹਾ,ਕਿ ਝੂਠ ਦਾ ਕੋਈ ਰੂਪ ਨਹੀ ਹੈ, ਇੰਦ੍ਰਿਆਂ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਵਿਚ ਆਓਣ ਵਾਲੀ ਸਾਰੀਆਂ ਭੋਤਿਕ ਵਸਤੂਆਂ ਝੂਠ ਹਨ, ਉਸ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਵਿਚ ਆਓਣ ਵਾਲਾ ਸੁੱਖ ਦੁੱਖ, ਸਰਦੀ-ਗਰਮੀ ਕੁਝ ਸਮੇਂ ਲਈ ਹੈ। ਝੂਠ ਦੀ ਹੋਂਦ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਸੱਚ ਹਰ ਵੇਲੇ ਮੋਜੁਦ ਹੈ, ਮਤਲਬ ਰੱਬ ਸਾਰੇ ਕਿੱਥੇ ਹੈ, ਰੱਬ ਹੀ ਸੰਸਾਰ ਦਾ ਇਕੋ ਇੱਕ ਸੱਚ ਹੈ, ਇਸ ਸੱਚ ਝੂਠ ਦਾ ਤਤ, ਬੁੱਧੀਮਾਨ ਪੁਰਖ ਜਾਣਦੇ ਹਨ। ਅਸੀਂ ਰੋਜ ਦੇਖਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਮਨੁੱਖ ਥੋੜੇ ਸਮੇਂ ਵਿਚ ਹੀ ਦੁਖ ਤੋਂ ਨਿਰਾਸ਼ ਹੋ ਕਿ ਆਸ ਛੱਡ ਦਿੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸੁਖ ਦੀ ਘੜੀ ਆਉਂਣ ਤੇ ਚੰਚਲਤਾ ਅਤੇ ਜੋਸ਼ ਨਾਲ ਭਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਸਾਨੂੰ ਦੋਨਾਂ ਪੜਾਵਾਂ ਤੇ ਸ਼ਾਂਤ ਰਹਿਕੇ ਸਮ ਭਾਵ ਰਖਣਾ ਸਿੱਖਣਾ ਹੈ। ਇਸ ਦੇ ਲਈ ਰੋਜ ਕੁਝ ਸਮਾਂ ਧਿਆਨ ਵਿਚ ਬੈਠਕੇ ਸੋਚੀਏ ਕਿ ਸੁਖ ਦੁਖ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਝੂਠੇ, ਅਸਥਾਈ ਅਤੇ ਅਨਿੱਤ ਹਨ, ਇਹ ਸਾਨੂੰ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਸ਼ਰੀਰ ਤੋਂ ਅਲਗ ਰੱਖ ਕੇ ਸੋਚਣ ਦਾ ਮੌਕਾ ਦੇਵੇਗਾ ਅਤੇ ਮਾਨਸਿਕ ਪੀੜ ਅਤੇ ਉਤੇਜਨਾ ਨੂੰ ਘਟ ਕਰੇਗਾ।

ਉਪਰ ਲਿਖੀ ਵਿਆਖਿਆ ਤੋਂ ਕੋਈ ਇਹ ਤਰਕ ਦੇ ਸਕਦਾ ਹੈ ਕਿ ਜੇ ਕੋਈ ਮਰਦਾ ਮਾਰਦਾ ਨਹੀਂ ਹੈ ਤਾਂ ਅਰਜੁਨ ਨੂੰ ਯੁੱਧ ਕਰਨ ਦੀ ਕੀ ਲੋੜ ਹੈ, ਦੂਜਾ ਤਰਕ ਦੇਕੇ ਲੋਕ ਕਿਸੇ ਦੀ ਵੀ ਜਾਨ ਲੈਣ ਨੂੰ ਠੀਕ ਕਹਿ ਸਕਦੇ ਹਾਂ। ਇਸਦਾ ਨਿਰਾਕਰਣ ਕਰਣ ਲਈ ਭਗਵਾਨ ਅੱਗੇ ਦੱਸਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਲੜਾਈ ਦਾ ਪਿਛੋਕੜ ਕਾਫੀ ਲੰਬਾ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਸ਼ਾਂਤੀ ਅਤੇ ਸੰਧੀ ਦੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ਾਂ ਬੇਕਾਰ ਹੋ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਕੌਰਵਾਂ ਦਾ ਅਧਰਮ ਅਤੇ ਪਾਪ ਦਾ ਘੜਾ ਭਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਸਾਰੇ ਇਸ ਯੁੱਧ ਦੀ ਦੇਹਲੀ ਤੇ ਪਹੁੰਚਦੇ ਹਨ।

ਖੱਤਰੀ ਧਰਮ ਦੇ ਅਨੁਸਾਰ ਵੀ ਖੱਤਰੀ ਲਈ ਧਰਮ ਯੁੱਧ ਤੋਂ ਵੱਧ ਕੇ ਹੋਰ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਤੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਧਰਮ ਤੋਂ ਘਬਰਾਉਣਾ ਨਹੀਂ ਚਾਹੀਦਾ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਅਪਣੇ ਆਪ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਇਆ ਇਸ ਤਰਾਂ ਦਾ ਯੁੱਧ ਸਵਰਗ ਦਾ ਖੁੱਲਾ ਰਸਤਾ ਹੈ ਅਤੇ ਖੱਤਰੀ ਇਸ ਨਾਲ ਸੁਖ ਪਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਜੇ ਤੂੰ ਇਹ ਧਰਮ ਯੁੱਧ ਨਹੀ ਕਰੇਂਗਾ ਤਾਂ ਅਪਣੇ ਧਰਮ ਅਤੇ ਕੀਰਤੀ ਨੂੰ ਖੋ ਕੇ ਪਾਪ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਂਵੇਗਾ। ਸਾਰੇ ਲੋਕ ਤੇਰੀ ਅਪਕੀਰਤੀ ਨੂੰ ਲਗਾਤਾਰ ਕਹਿਂਦੇ ਰਹਿਣਗੇ, ਅਤੇ ਸਨਮਾਨਿਤ ਪੁਰਸ਼ ਲਈ ਬੇਇਜਤੀ ਮਰਨ ਤੋਂ ਵੱਧਕੇ ਹੈ। ਮਹਾਰਥੀ ਲੋਕ ਤੈਨੂੰ ਡਰ ਦੇ ਕਾਰਣ ਯੁੱਧ ਤੋਂ ਹਟਿਆ ਹੋਇਆ ਮੰਨਣਗੇ ਜਿਨਾਂ ਲਈ ਤੂੰ ਬਹੁਤ ਸਨਮਾਨਿਤ ਹੈਂ, ਉਹ ਤੈਨੂੰ ਸਨਮਾਨ ਦੇ ਪਦ ਤੋਂ ਗਿਰਿਆ ਹੋਇਆ ਦੇਖਣਗੇ। ਤੇਰੇ ਦੁਸ਼ਮਣ ਤੇਰੀ ਸ਼ਕਤੀ ਦੀ ਆਲੋਚਨਾ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਬਹੁਤ ਕੌੜੇ ਵਚਨ ਕਹਿਣਗੇ, ਉਸ ਤੋਂ ਵੱਧ ਦੁਖ ਕੀ ਹੋਵੇਗਾ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਯੁੱਧ ਵਿਚ ਮਰ ਕੇ ਤੁੰ ਸਵਰਗ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰੇਂਗਾ ਜਾਂ ਜਿੱਤ ਕੇ ਧਰਤੀ ਦਾ ਰਾਜ ਭੋਗੇਂਗਾ, ਇਸ ਲਈ ਯੁੱਧ ਦਾ ਨਿਸ਼ਚੈ ਕਰ ਕੇ ਖੜਾ ਹੋ ਜਾ। ਹਾਰ-ਜਿੱਤ, ਲਾਭ-ਹਾਨੀ ਅਤੇ ਸੁਖ-ਦੁਖ ਨੂੰ ਇਕੋ ਜਿਹਾ ਜਾਣ ਕੇ ਯੁੱਧ ਕਰ। ਇਸ ਵਿਚ ਭਗਵਾਨ ਇਸ਼ਾਰਾ ਕਰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਮਨੁੱਖ ਕਦੇ ਇਹੋ ਜਿਹਾ ਕੰਮ ਨਾ ਕਰੇ ਜਿਸ ਦੇ ਨਾਲ ਉਸਦੇ ਮਾਣ ਅਤੇ ਕੀਰਤੀ ਨੂੰ ਕੋਈ ਧੱਕਾ ਲੱਗੇ। ਇਸ ਦਾ ਮਤਲਬ ਦੌਲਤ ਜਾਂ ਪਦ ਖੋਂਣਾ ਬਿਲਕੁਲ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਜੇ ਸਾਰਾ ਕੁਝ ਗਵਾ ਕੇ ਵੀ ਧਰਮ ਨਾਲ ਖੱਟਿਆ ਯਸ਼ ਬਣਿਆ ਰਹੇ ਤਾਂ ਇਹੋ ਜਿਹਾ ਫੈਸਲਾ ਲੈਣ ਵਿਚ ਦੇਰੀ ਨਹੀਂ ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ।

ਇਸ ਤਰਾਂ ਯੁੱਧ ਕਰਨ ਨਾਲ ਪਾਪ ਨਹੀਂ ਹੋਵੇਗਾ। ਇਹ ਵਿਸ਼ੇ ਸਾਂਖਅ ਯੋਗ ਦੇ ਪਰਿਪੇਖ ਵਿਚ ਕਿਹਾ ਗਿਆ, ਹੁਣ ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਨੂੰ ਇਸ ਨਜਰ ਨਾਲ ਸੁਣ ਕਿ ਜਿਸ ਦੇ ਨਾਲ ਤੂੰ ਕਰਮ ਬੰਧਨ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈਂ। ਇਸਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ (ਚੱਲਣ) ਨਾਲ ਸ਼ੁਰੂਆਤ ਦਾ ਨਾਸ਼ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ (ਜਿਥੋਂ ਛੱਡਿਆ, ਉਥੋਂ ਦੁਬਾਰਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਸਕਦੇ ਹਾਂ), ਉਲਟਾ ਫਲ ਵੀ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ, ਬਲਕਿ ਇਸ ਗਿਆਨ ਦਾ ਥੋੜਾ ਆਚਰਣ ਕਰਨ ਨਾਲ ਵੀ ਮਹਾਨ ਡਰ ਤੋਂ ਰੱਖਿਆ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਜੇ ਇਸ ਰਾਸਤੇ ਤੇ ਚੱਲ ਕੇ ਰੁਕ ਜਾਂਦੇ ਹਾਂ ਜਾਂ ਭਟਕ ਜਾਂਦੇ ਹਾਂ, ਤਾਂ ਜਿੱਥੇ ਛੱਡਿਆ ਹੈ, ਉੱਥੋਂ ਹੀ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਸਕਦੇ ਹਾਂ। ਜੇ ਇੱਕ ਜਨਮ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਨਾਲ ਵੀ ਮੰਜਿਲ ਤੇ ਨਾ ਪਹੁੰਚਿਆ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਉਸ ਜਨਮ ਵਿੱਚ ਕੀਤੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਅਗਲੇ ਜਨਮ ਵਿੱਚ ਜਮਾਂ ਹੋ ਜਾਉਂਦੀ ਹੈ (ਖਤਮ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ)। ਇਸ ਤੋਂ ਇਹ ਸਿਖਿਆ ਮਿਲਦੀ ਹੈ ਕਿ ਚੰਗੇ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਰਹਿਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਸੋਚ ਕੇ ਬੈਠ ਨਾ ਜਾਓ ਕਿ ਮੈਂ ਇਸ ਨੂੰ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜ ਸਕਾਂਗਾਂ ਜਾਂ ਨਹੀਂ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਨਿਸ਼ਚੇ ਵਾਲੀ ਬੁੱਧੀ ਇਕ ਹੀ ਹੈ (ਜਿਸ ਨੂੰ ਪਤਾ ਹੈ ਕਿ ਕੀ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਹੈ ਤੇ ਕੀ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਨਹੀਂ ਹੈ), ਨਿਸ਼ਚੇ ਰਹਿਤ ਪੁਰਖ ਦੀ ਬੁੱਧੀ ਭੇਦ ਭਰੀ ਅਤੇ ਅਨੰਤ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਪੁਰਖ ਆਪਣੇ ਮਨ ਵਿਚ ਕਈ ਤਰਾਂ ਦੀਆਂ ਇੱਛਾਵਾਂ ਰੱਖਦੇ ਹਨ(ਪਰੀਵਾਰ ਲਈ ਕੁਝ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਸਮਾਜ ਲਈ ਕੁਝ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਇੰਦਰੀ ਸੁਖ ਪਾਉਂਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਦੌਲਤ-ਪਦ-ਕੀਰਤੀ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ ਆਦਿ)। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਵੇਦਾਂ ਦੀ ਪਰਿਭਾਸ਼ਾ ਵਿਚ ਰੁੱਝੇ ਵਿਵੇਕਹੀਨ ਪੁਰਖ, ਇਸ ਤਰਾਂ ਦੇ ਮਨੋਰਮ ਵਚਨ ਬੋਲਦੇ ਹਨ ਕਿ (ਸ੍ਵਰਗ ਆਦਿ ਤੋਂ ਬਿਨਾ) ਦੂਜਾ ਕੁਝ ਹੈ ਹੀ ਨਹੀਂ। ਕਾਮਨਾ ਨਾਲ ਭਰੇ, ਸ੍ਵਰਗ ਨੂੰ ਸਭ ਤੋਂ ਵਧੀਆ ਮੰਨਣ ਵਾਲੇ, ਭੋਗ ਅਤੇ ਸੁਖ ਸੁਵਿਧਾਵਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਾਉਂਨ ਵਾਲੀਆਂ, ਜਨਮ ਕਰਮ ਅਤੇ ਫਲ ਦੇਣ ਵਾਲੀਆਂ ਬਹੁਤ ਕਿਰਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਦੱਸਦੇ ਹਨ।

ਓਸ ਮਿੱਠੀ ਬੋਲੀ ਨਾਲ ਜਿਸਦਾ ਰੋਮ-ਰੋਮ ਵੱਸ ਵਿਚ ਕਰ ਲਿਆ ਗਿਆ ਹੈ, ਜੋ ਭੋਗ ਅਤੇ ਸੁਖ ਸੁਵਿਧਾਵਾਂ ਵਿਚ ਲੀਨ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, ਉਹਨਾ ਮਨੁੱਖਾਂ ਦੀ ਰੱਬ ਵਿਚ ਟਿਕਾਊ ਬੁੱਧੀ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਵੇਦਾਂ ਦਾ ਵਿਸ਼ਾ ਤਿੰਨ ਗੁਣਾਂ ਨਾਲ (ਸਤ, ਰਜ ਅਤੇ ਤਮ) ਸੰਬੰਧਿਤ ਹੈ, ਤੂੰ ਤਿੰਨ ਗੁਣਾ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਬਣ, ਭਰਮ ਰਹਿਤ ਅਤੇ ਯੋਗ੍ਖੇਮ ਰਹਿਤ ਹੋ ਕੇ, ਪ੍ਰਤੀਦਿਨ ਸੱਤਵ ਗੁਣ ਵਿਚ ਸਥਿਤ ਰਹਿ ਤੇ ਸ੍ਵੈਲੀਨ(ਆਤਮ ਪਰਾਇਣ) ਬਣ। ਸਾਰੇ ਭੌਤਿਕ ਕੰਮ ਤਿੰਨ ਗੁਣਾਂ (ਸਤ, ਰਜ ਅਤੇ ਤਮ) ਵਿਚੋਂ ਕਿਸੇ ਇਕ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧ ਰਖਦੇ ਹਨ। ਸਤੋ ਗੁਣ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧੀ ਕਿਰਿਆਵਾਂ ਕਰਨ ਨਾਲ ਬੰਦਾ ਹੌਲ਼ੀ-ਹੌਲ਼ੀ ਤਿੰਨਾਂ ਗੁਣਾਂ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਯੋਗ੍ਖੇਮ ਰਹਿਤ ਹੋਣ ਦਾ ਅਰਥ ਹੈ ਕਿ ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਸਾਰੇ ਕੰਮਾਂ ਤੋਂ ਉੱਪਰ ਉਠਣਾ ਜੋ ਆਪਣੇ ਰੰਗੀਲੇ ਭਵਿੱਖ (ਪੁੰਨ ਜਮਾਂ ਕਰਨਾਂ ਅਤੇ ਸ੍ਵਰਗ ਆਦਿ ਲੈਣ ਲਈ ਯੱਗ, ਪੂਜਾ ਆਦਿ ) ਦੇ ਲਈ ਕਰੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਸਭ ਪਾਸੋਂ ਭਰੀ ਹੋਈ ਜਲਰਾਸ਼ੀ ਦੇ ਹੋਣ ਨਾਲ, ਛੋਟੇ ਤਾਲਾਬ ਦਾ ਜਿੰਨਾ ਮਹੱਤਵ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਬ੍ਰਹਮ ਨੂੰ ਜਾਣਨ ਵਾਲੇ ਗਿਆਨੀ ਦਾ ਸਾਰੇ ਵੇਦਾਂ ਵਿਚ ਉਨਾ ਹੀ ਮਹੱਤਵ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। ਕਰਮ ਕਰਨਾ ਤੇਰਾ ਹੱਕ ਹੈ, ਓਸ ਦੇ ਫ਼ਲਾਂ ਤੇ ਕਦੇ ਨਹੀ। ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਕਰਮ ਫਲ ਦਾ ਕਾਰਨ ਨਾ ਸਮਝ, ਅਤੇ ਕਰਮ ਨਾ ਕਰਨ ਵਿਚ ਤੇਰਾ ਲਗਾਵ ਨਾ ਹੋਵੇ।

ਇਸ ਦਾ ਮਤਲਬ ਹੈ ਕਿ ਫਲ ਦੀ ਇੱਛਾ ਦੇ ਕਾਰਨ ਕਰਮ ਨਾ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇ। ਇਸਦਾ ਮਤਲਬ ਇਹ ਬਿਲਕੁਲ ਨਹੀਂ ਕਿ ਕਰਮ ਹੀ ਨਾ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇ। ਕਰਮ ਕਰਕੇ ਉਸਦਾ ਬਖਾਣ ਕਰਨਾ ਅਤੇ ਉਸਦਾ ਕ੍ਰੇਡਿਟ ਲੈਣ ਦਾ ਭਾਵ ਵੀ ਛੱਡ ਦੇਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅੱਗੇ ਚੱਲ ਕੇ ਭਗਵਾਨ ਨੇ ਕਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਦਾਨ, ਯੱਗ ਆਦਿ ਕਰਮ ਛੱਡਣੇ ਨਹੀਂ ਚਾਹੀਦੇ, ਲੇਕਿਨ ਉਹ ਕਿਸੇ ਫਲੇੱਛਾ ਦੇ ਭਾਵ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਸਗੋਂ ਸਮਾਜ ਲਈ ਲਾਭਦਾਇਕ ਹੋਣ ਦੇ ਕਾਰਨ ਕਰਣੇ ਚਾਹੀਦੇ ਹਨ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਕਾਰਜ ਜੋ ਅਸੀ ਆਪਣੇ ਲਈ, ਪਰਵਾਰ ਪਾਲਣ ਲਈ ਅਤੇ ਵੱਖ ਵੱਖ ਪਰੀਸਥਿਤੀਆਂ, ਸਮੇਂ ਦੇ ਸੰਦਰਭ ਵਿੱਚ ਕਰਦੇ ਹਾਂ,ਉਹ ਸਭ ਕਾਰਜ ਸਮ ਬੁੱਧੀ ਨਾਲ,ਬਿਨਾਂ ਫਲੇੱਛਾ ਅਤੇ ਅਹਿਮ ਦੇ ਭਾਵ ਨਾਲ ਕਰਾਂਗੇ ਤਾਂ ਅਜਿਹੇ ਸਭ ਕਾਰਜ ਯੋਗ ਦੀ ਸ਼੍ਰੇਣੀ ਵਿੱਚ ਆ ਜਾਣਗੇ। ਮਣ ਦਾ ਭਾਵ ਬਦਲਣ ਨਾਲ ਕੰਮ ਦਾ ਪਰਿਪੇਖ ਬਦਲ ਜਾੰਦਾ ਹੈ ਜਿਵੇਂ ਇੱਕ ਬੰਦਾ ਚਾਕੂ ਦਾ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕਿਸੇ ਦੀ ਜਾਨ ਲੈਣ ਲਈ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਦੁਸਰਾ ਚਾਕੂ ਦਾ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕਿਸੇ ਦੀ ਜਾਨ ਬਚਾਉਣ ਲਈ (ਰੋਗੀ ਜਾਂ ਜਖਮੀ ਦਾ ਆਪਰੇਸ਼ਨ ਕਰਕੇ) ਕਰਦਾ ਹੈ। ਦੋਨੋਂ ਕੰਮ ਤਾਂ ਚਾਕੂ ਚਲਾਉਣ ਦਾ ਹੀ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ, ਪਰ ਭਾਵ ਅਲਗ ਅਲਗ ਹਨ। ਇੱਕ ਕਾਤੀਲ ਕਹਾਂਉਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਦੂਜਾ ਵੈਦ ਕਹਾਂਉਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜਿੱਤ-ਹਾਰ ਦੇ ਲਗਾਵ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ, ਸਮ ਹੋ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰੋ। ਸਮਤਾ ਦਾ ਭਾਵ ਹੀ ਯੋਗ ਕਹਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਬੁੱਧੀਯੋਗ ( ਬਿਨਾ ਫਲ ਦੀ ਇੱਛਾ ਤੋਂ ਕੰਮ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਅਤੇ ਫਲਾਂ ਤੇ ਆਪਣਾ ਅਧਿਕਾਰ ਨਾ ਜਤਾਉਂਣ ਦੀ ਭਾਵਨਾ) ਨਾਲੋ (ਸਕਾਮ ਕਰਮ) ਬਹੁਤ ਨੀਵੀਂ ਸ਼੍ਰੇਣੀ ਦਾ ਹੈ, ਤੂੰ ਬੁੱਧੀ ਦੀ ਸ਼ਰਣ ਲੈ, ਫਲ ਦੀ ਇੱਛਾ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਬਹੁਤ ਕ੍ਰਿਪਣ ਹਨ। ਸਿਆਣਪ (ਸਮਤਾ) ਨਾਲ ਭਰਿਆ ਪੁਰਖ ਚੰਗੇ ਅਤੇ ਬੁਰੇ ਫਲ, ਦੋਹਾਂ ਦਾ ਤਿਆਗ ਕਰ ਦਿੰਦਾ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ ਯੋਗ ਵਿਚ ਸਥਿਰ ਹੋ ਜਾ, ਕਰਮਾਂ ਦੀ ਕੁਸ਼ਲਤਾ ਹੀ ਯੋਗ ਹੈ। ਬੁੱਧੀ ਵਾਲੇ ਮਨੁੱਖ ਕਰਮਾਂ ਤੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਫਲ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕੇ, ਬਿਨਾ ਤਕਲੀਫ਼ ਤੋਂ ਜਨਮ ਰੂਪ ਬੰਧਨ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਹੋਈ ਪਦਵੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਜਦੋਂ ਤੇਰੀ ਬੁੱਧੀ ਮੋਹ ਰੂਪੀ ਦਲਦਲ ਤੋਂ ਪਾਰ ਹੋ ਜਾਵੇਗੀ, ਉਦੋਂ ਤੂੰ ਸੁਣੇ ਹੋਏ ਅਤੇ ਸੁਣਨ ਵਿੱਚ ਆਉਣ ਵਾਲੇ, ਭੋਗਾਂ ਤੋਂ ਮੁਕਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਵੇਂਗਾ। ਜਦੋਂ ਵੇਦ-ਸ਼ਾਸ਼ਤਰਾਂ ਦੇ ਸ਼ੱਕੀ ਵਚਨ ਸੁਨਣ ਨਾਲ, ਭਟਕਦੀ ਹੋਈ ਤੇਰੀ ਬੁੱਧੀ ਅਚਲ ਅਤੇ ਸਥਿਰ ਹੋ ਜਾਵੇਗੀ, ਓਦੋਂ ਤੂੰ ਯੋਗ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰੇਂਗਾ। ਅਰਜੁਨ ਲੜਾਈ ਵਲੋਂ ਹੋਣ ਵਾਲੇ ਨਤੀਜੇ (ਫਲ) ਵਲੋਂ ਚਿੰਤੀਤ ਸੀ।ਭਗਵਾਨ ਨੇ ਬਹੁਤ ਸਟੀਕ ਉੱਤਰ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਕਿਹਾ ਕਿ ਤੂੰ ਬਿਨਾਂ ਫਲ ਦੀ ਚਿੰਤਾ ਦੇ ਲੜਾਈ ਕਰ।

ਅਰਜੁਨ ਬੋਲਿਆ - ਹੇ ਕੇਸ਼ਵ (ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ) ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ਵਿਚ ਸਥਿਤ ਸਥਿਰ ਬੁੱਧੀ ਵਾਲੇ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਕੀ ਲੱਛਣ ਹਨ? ਸਥਿਰ ਬੁੱਧੀ ਵਾਲਾ ਮਨੁੱਖ ਕਿਵੇਂ ਬੋਲਦਾ ਹੈ, ਕਿਵੇਂ ਬੈਠਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਕਿਵੇਂ ਚੱਲਦਾ ਹੈ। ਅਰਜੁਨ ਅਜਿਹੇ ਵਿਅਕਤੀ ਦੇ ਲੱਛਣ ਪੁੱਛ ਰਿਹਾ ਹੈ ਜੋ ਭਗਵਾਨ ਦੇ ਉੱਪਰ ਦੱਸੇ (ਪਿਛਲੇ ਸ਼ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਆਧਾਰ ਉੱਤੇ ) ਸ਼ਬਦਾਂ ਉੱਤੇ ਪੂਰਾ ਉੱਤਰਦਾ ਹੈ। ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨ ਬੋਲੇ- ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜਦ ਕੋਈ ਦਿਲੋਂ ਸਾਰੀਆਂ ਇੱਛਾਵਾਂ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਦਿੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਤੋਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿੱਚ ਹੀ ਸੰਤੁਸ਼ਟ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਓਸ ਨੂੰ ਸਥਿਤਪ੍ਰਗਯ (ਸਥਿਰ ਬੁੱਧੀ ਵਾਲਾ) ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ।ਦੁੱਖ ਵਿੱਚ ਜਿਸਦਾ ਮਨ ਦੁਖੀ ਨਹੀ ਹੁੰਦਾ, ਸੁੱਖ ਦੀ ਇੱਛਾ ਖਤਮ ਹੋ ਗਈ ਹੈ, ਮਨ ਵਿਚੋ ਰਾਗ, ਡਰ ਅਤੇ ਗੁੱਸਾ ਖਤਮ ਹੋ ਗਏ ਹਨ, ਓਹ ਮਨੁਖ ਸਥਿਤਪ੍ਰਗਯ ਕਹਾਓਂਦਾ ਹੈ। ਜੋ ਸਭ ਇੱਛਾਵਾਂ ਤੋਂ ਰਹਿਤ (ਸਨੇਹ ਰਹਿਤ) ਹੋ ਚੁਕਾ ਹੈ, ਸ਼ੁਭ ਤੇ ਅਸ਼ੁਭ ਵਸਤੁ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਕੇ ਨਾ ਰਾਗ ਕਰਦਾ ਹੈ ਨਾ ਦੁਰਭਾਵਨਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ਓਸਦੀ ਬੁਧੀ ਸਥਿਰ ਹੈ। ਜਿਵੇਂ ਕੱਛੂ ਆਪਣੇ ਸਾਰੇ ਅੰਗਾਂ ਨੂੰ ਇਕੱਠਾ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਓਸੇ ਤਰਾਂ ਜਦ ਕੋਈ ਇੰਦਰੀਆਂ ਨੂੰ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਤੋਂ ਹਟਾ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਓਦੋਂ ਓਸ ਦੀ ਬੁੱਧੀ ਸਥਿਰ ਹੈ। ਵਿਸ਼ੇ ਨਾਂ ਭੋਗਣ ਨਾਲ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਤਾਂ ਦੂਰ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਪਰ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਦਾ ਰਾਗ ਨਹੀ, ਪਰਮ ਤੱਤ ਨੂੰ ਦੇਖਣ ਨਾਲ ਰਾਗ ਵੀ ਖਤਮ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।

ਇੱਥੇ ਵੀ ਭਾਵ ਦੀ ਪ੍ਰਧਾਨਤਾ ਹੈ। ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਵਲੋਂ ਦੂਰ ਰਹਿਨਾ ਜਾਂ ਆਪਣੇ ਉਪਰ ਔਖਾ ਬੰਧਨ ਲਗਾ ਲੈਣਾ( ਲੰਬੇ ਵਰਤ, ਦੂੱਜੇ ਲਿੰਗ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਨਾਲ ਨਾਂ ਮਿਲਣ ਦਾ ਵਰਤ, ਅਲਗ ਅਲਗ ਸੁਖ ਸੁਵਿਧਾਵਾਂ ਪ੍ਰਯੋਗ ਨਾਂ ਕਰਣ ਦਾ ਵਰਤ )ਵਿਸ਼ੇ ਭੋਗ ਵਲੋਂ ਦੂਰ ਰਹਿਣ ਦਾ ਇੱਕ ਤਰੀਕਾ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ,ਪਰ ਇਹ ਦੇਖਿਆ ਗਿਆ ਹੈ ਕਿ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਦੇ ਸਾਹਮਣੇ ਆਉਣ ਤੇ ਮਨ ਉੱਤੇ ਅੰਕੁਸ਼ ਨਹੀਂ ਰਹਿੰਦਾ। ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਕੇ ,ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਵਲੋਂ ਦੂਰ ਰਹਿਨਾ ਹੀ ਸਥਿੱਤਪ੍ਰਗ ਦਾ ਸੁਭਾਅ ਹੈ। ਰਾਜਾ ਜਨਕ ਇਸ ਦੀ ਸਰਵੋੱਤਮ ਉਦਾਹਰਣ ਹਨ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ,ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਵਿਵੇਕੀ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਮਨ ਨੂੰ ਇੰਦਰੀਆਂ ਸ਼ਕਤੀ ਨਾਲ ਉੱਤੇਜਿਤ ਕਰ ਦਿੰਦੀਆਂ ਹਨ। ਯੋਗੀ ਸਾਰੀਆਂ ਇੰਦਰੀਆਂ ਨੂੰ ਕਾਬੂ ਵਿੱਚ ਕਰ ਕੇ ਮੇਰੀ ਭਗਤੀ ਵਿੱਚ ਬੈਠੇ, ਜਿਸ ਦੀਆਂ ਇੰਦਰੀਆਂ ਕਾਬੂ ਵਿਚ ਹਨ, ਊਸ ਦੀ ਬੁੱਧੀ ਪ੍ਰਤਿਸ਼ਠਾਵਾਨ ਹੈ। ਇਸ ਵਿੱਚ ਭਗਵਾਨ ਇਸ਼ਾਰਾ ਕਰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਆਪਣੇ ਨੂੰ ਉਪਰ ਚੁੱਕਣ ਦੇ ਰਸਤੇ ਉੱਤੇ ਹੈ ਉਸ ਨੂੰ ਰਸਤੇ ਵਿੱਚ ਕਈ ਲਾਲਚ ਅਤੇ ਅੜਚਨਾਂ ਮਿਲਣਗੀਆਂ, ਲੇਕਿਨ ਉਸ ਨੂੰ ਡਿੱਗਦੇ ਉਠਦੇ, ਚੋਟ ਖਾਂਦੇ ਇਹ ਰਸਤਾ ਪੁਰਾ ਕਰਣਾ ਹੈ ਅਤੇ ਕਿਸੇ ਵੀ ਹਾਲਤ ਵਿੱਚ ਛੱਡਣਾ ਨਹੀਂ ਹੈ

ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਦਾ ਵਿਚਾਰ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਪੁਰਖ ਦੀ ਉਸ ਵਿਚ ਰੁਚੀ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਰੁਚੀ ਨਾਲ ਇੱਛਾ ਅਤੇ ਇੱਛਾ ਨਾਲ ਗੁੱਸਾ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਗੁੱਸੇ ਨਾਲ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਮਨ ਬੇਕਾਬੂ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਮਨ ਬੇਕਾਬੂ ਹੋਣ ਨਾਲ ਦਿਮਾਗ ਨੂੰ ਭੁਲੇਖਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ, ਦਿਮਾਗ ਨੂੰ ਭੁਲੇਖਾ ਪੈਣ ਨਾਲ ਬੁੱਧੀ ਦਾ ਨਾਸ਼ ਅਤੇ ਬੁੱਧੀ ਨਾਸ਼ ਹੋਣ ਤੇ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਪਤਨ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਆਪਣੇ ਅਧੀਨ ਕੀਤੇ ਹੋਏ ਮਨ ਵਾਲਾ ਸਾਧਕ, ਰਾਗ-ਨਫਰਤ ਰਹਿਤ ਇੰਦਰੀਆਂ ਨਾਲ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਵਿੱਚ ਵਿੱਚਰਦਾ ਹੋਇਆ ਖੁਸ਼ੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਖੁਸ਼ੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਣ ਨਾਲ ਸਾਰੇ ਦੁਖਾਂ ਦਾ ਨਾਸ਼ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਖੁਸ਼ ਮਨ ਵਾਲੇ ਦੀ ਬੁੱਧੀ ਜਲਦੀ ਸਥਿਰ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਜਿਸਦੀ ਬੁੱਧੀ ਅਤੇ ਭਾਵਨਾ ਦਾ ਮੇਲ ਨਹੀ ਹੁੰਦਾ, ਏਹੋ ਜਿਹੇ ਭਾਵਨਾਹੀਣ ਨੂੰ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨਹੀ ਮਿਲਦੀ, ਅਸ਼ਾੰਤ ਨੂੰ ਸੁੱਖ ਕਿੰਵੇ ਮਿਲ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਆਪਣੇ-ਆਪਣੇ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਵਿਚ ਵਿੱਚਰਦੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਇੰਦਰੀਆਂ ਵਿਚੋਂ ਜੇ ਇਕ ਇੰਦਰੀ ਦਾ ਵੀ ਮਨ ਧਿਆਨ (ਰਾਗ) ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਮਨ ਬੁੱਧੀ ਨੂੰ ਕਾਬੂ ਵਿਚ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਜਿਵੇਂ ਪਾਣੀ ਵਿਚ ਕਿਸ਼ਤੀ ਨੂੰ ਹਵਾ ਕਾਬੂ ਵਿਚੱ ਕਰ ਲੈਂਦੀ ਹੈ। ਇੱਕ ਛੋਟੀ ਜੀ ਭੁੱਲ ਸਾਨੂੰ ਇੱਕ ਭੁੱਲ ਭੁਲੇਖੇ ਵਿੱਚ ਪਾ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਇੰਦਰੀ ਸੁਖ ਦੀ ਛੋਟੀ ਜਿਹੀ ਫਿਸਲਣ ਇੱਕ ਵੱਡੀ ਦਲਦਲ ਵਿੱਚ ਧਕੇਲ ਸਕਦੀ ਹੈ।

ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਜਿਸ ਪੁਰਖ ਦੀਆਂ ਇੰਦਰੀਆਂ, ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਵਿਚ ਰਾਗ ਨਹੀ ਕਰਦੀਆਂ, ਉਸਦੀ ਬੁੱਧੀ ਸਥਿਰ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਸਾਰੇ ਮੱਨੁਖਾਂ ਲਈ ਜੋ ਰਾਤ ਹੈ ਓਸ ਵਿੱਚ ਧੀਰਜ ਰੱਖਣ ਵਾਲਾ ਉੱਠਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜਦੋ ਸਾਰੇ ਜੀਵ ਜਾਗਦੇ ਹਨ, ਓਹ ਜਾਨਣ ਵਾਲੇ ਮਨੁੱਖ ਲਈ ਰਾਤ ਹੈ। ਜਿਵੇਂ ਸਾਰੀਆਂ ਨਦੀਆਂ ਦਾ ਪਾਣੀ, ਅਚਲ ਸਮੁੰਦਰ ਵਿਚ ਆ ਕੇ ਮਿਲਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਤਰਾਂ ਇੱਛਾਵਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਵੇਸ਼ ਕਰਨ ਨਾਲ (ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਵਿਕਾਰ ਨਹੀਂ ਆਉਦਾਂ) ਓਹੀ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਭੋਗਾਂ ਦੀ ਇੱਛਾ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਨਹੀ। ਇਸ ਦਾ ਮਤਲੱਬ ਇਹ ਵੀ ਹੈ ਕਿ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਵਿੱਚ ਵਿਚਰਨ ਕਰਣ ਨਾਲ, ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਦੇ ਰਸ ਦਾ ਅਨੁਰਾਗ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦਾ ਉਹ ਸਮੁੰਦਰ ਦੀ ਭਾਂਤੀ ਸਥਿਰ ਹੈ। ਜੋ ਮੱਨੁਖ ਸਾਰੀਆਂ ਇੱਛਾਵਾਂ ਦਾ ਤਿਆਗ ਕਰ ਕੇ ਬੇਰਹਿਮ, ਬਿਨਾ ਹੰਕਾਰ ਅਤੇ ਲਾਲਚ ਦੇ ਵਿੱਚਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਅਰਜੁਨ, ਇਹ ਬ੍ਰਹਮ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਣ ਦੀ ਸਥਿਤੀ ਹੈ, ਇਸ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਕੇ ਕੋਈ ਮੋਹਿਤ ਨਹੀ ਹੁੰਦਾ, ਇਸ ਵਿੱਚ ਜੇ ਆਖਰੀ ਸਮੇਂ ਵਿਚ ਵੀ ਸਥਿਤ ਹੋ ਜਾਵੇ, ਤਾਂ ਵੀ ਬ੍ਰਹਮ ਨਿਰਵਾਣ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਜੇਕਰ ਜੀਵਨ ਭਰ ਇਸ ਦਾ ਅਭਿਆਸ ਨਹੀਂ ਹੋਵੇਗਾ ਤਾਂ ਮੌਤ ਦੇ ਸਮੇਂ ਇਸ ਭਾਵ ਵਿੱਚ ਸਥਿਰ ਹੋਣਾ ਸੰਭਵ ਨਹੀਂ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਇੱਕ ਮ੍ਰਿਗਿਤ੍ਰਸ਼ਣਾ ਬਨ ਕੇ ਰਹਿ ਜਾਵੇਗੀ।



English Commentary of Chapter 2 without Verses 

Watching Arjuna full of pity and compassion, tearful, worried and concerned, and understanding his emotions, Lord Krishna said these words. He felt that Arjuna's thougths were not correct at all. He said, O Arjuna from where have these foul and unreasonable thoughts entered your mind? Neither will these thoughts get you a seat in heaven, nor any fame; these kind of thoughts are adapted by inferior people. Don't act like an impotent and don't let these thougths crop up in your mind. Abandon these weaknesses of your conscious and stand up. Arjuna's views were so wrong, that Lord Krishna had to mention the abuse of impotence for Arjuna. When the war had already been signalled to start by the blowing of conches, Lord Krishna used harsh language in order to convince Arjuna to fight.

However, this did not affect Arjuna's feelings. He said, how can I fight the sacred Bhishma and Guru Drona with arrows? I think it will be better if I earn bread by begging rather than recieiving the worldly luxuries tainted with blood of my elders. Even if I am awarded a prosperous kingdom on earth, or a kingdom of demigods in the heavens, I cannot kill my great teachers.

Similarly, we often try and prove ourselves correct by citing some arguments or logic. Arjuna said with a cowardice feeling that I am foolish in the subject of righteousness. As your disciple, I ask you to tell me what will be the best action in this situation. He is curious to know what will be considered right under those circumstances.

When Arjuna enquired Lord Krishna as a refugee disciple, the Lord smiled and brought the chariot between the two forces and said cheerfully. Lord Krishna could now well-understand that the thougths had not entered Arjuna's conscience for merely a few moments, rather he needed detailed guidance. This chapter is named as Sankhya Yoga. Sankhya means analytical study and Yoga means methodology of living life which comprises of mental, physical and spiritual activities.

Lord Krishna started with the basic principle by telling Arjuna that he is talking like great scholars, but he is being merciful on those people who do not deserve to be pitied on. He said that moreover it deosn't suit wisemen to grieve for dead and alive, therfore it is wrong on his part to grieve for the Kauravas and their supporters. Mentioning the reason for his statement, Lord Krishna said: It was never that I did not exist, and it will never be that I will not exist. Neither was it ever that you or these kings never existed. You and all kings will always exist in the future as well. Thus, all beings always existed in the past, are existing in the present and will always exist in the future. For instance, the soul in not affected by the changing of a person from one life stage to another (childhood to adolosence to adulthood and finally old age). In the same manner, the soul does not get affected when it goes from one body to another. People with patience, understand this truth and do not get deluded about it.

O Arjuna, if you think of It as being constantly going through birth and death, even then, you should not grieve. Death is certain for what is born; and birth is certain after death. Therefore you should not lament over a thing that is inevitable. O Arjuna, all beings remain unmanifest in the beginning; become manifest in the middle, become unmanifest after death. What is there to grieve about. Someone visualizes It with amazement, someone talks of It as a wonder; and someone hears of It with astonishment. Hardly anyone realizes It even after hearing about It. The self in the body of everyone, is ever indestructible, O Arjuna; therefore, you should not grieve for any creature.

Great Teaching: We face such situations in our life when we become fearful due to the death or loss of our near and dear ones, which is uncalled for. We should sit in meditation for some time everyday to get over such situations. In meditation, we should think over this thought that all were there at all times and all will be there for all times to come. Also ponder over other thoughts given above. This thought process will work like magic to reduce your fear, anxiety and depression.

Lord Krishna try to dispel the doubt of Arjuna regarding killing his own relatives. He says that it is not possible to kill the self in every human being and body has to die without any exception. So in both the arguments, there is no place for Arjuna to worry about. The whole concept of soul being permanent and body being temporary, is illustrated. All the objects of happiness and sorrow are concerned with the body and not concerend with the self. Body feels and experiences these things through the senses, so it important to properly manage our senses.

Moments of pleasure and sorrow are temporary, so we should learn to live with them without getting excited or exhausted. Krishna has talked about both kinds of objects. Some are permanently associated with sorrow like old age, disease and poverty. Some are always associated with happiness like parents, youth and food-clothes-home etc. Few things differ in their character as per the time, place and context. For example, Sun rays may bring comfort in winters but may bring hardships in summer. People will like to sit in sun shine in cold and will like to avoid it in Summer. Similarly a particular music style may be liked by someone and may not be liked by others.

O Arjuna, That person becomes eligible for immortality, whom sensual desires do not trouble and remains alike in pleasure and pain. It is a stark fact that everyone's life is mix of happiness and sorrow. The volume and depth of these feelings can be different. Who remembers God in delight and remains balanced in affliction, is the person with steady mind. Krishna says everything based on facts. When he says to be even in down and up side of your life, he explains that everything which comes under the domain of sensual feelings (pleasure or pain) is false (short-lived) and has no real existence. The unreal can never come into being, the real never ceases to be. The essence of these two is known to wise men.

It is often seen that human beings become disappointed with a little untoward happening and become hopeless. Similarly they become too anxious and restless with a little happiness. We need to learn to maintain internal calm in both of these situations. If we meditate and ponder upon this thought that happiness, sorrow and other dualities related to the senses are temporary, then it will also hep us to see ourselves different from the body. It will reduce our anxiety and mental tension in the time of exptreme situations in life.

From above discussions, someone can say that if nobody is killed and no one kills then what is the need to fight. In another logic some people will consider it ok to kill anyone at will. To alleviate these arguments Krishna says, that this war of Mahabharta has long background. When every effort with kauravas for reconcilliation and peace is exhausted, then only both sides have reached at the door-step of war. Lord says, for kshatriya, there is no greater good than a righteous war. Considering it as your own duty, you should not waiver. O Arjuna, war has come on its own accord which is an open door to the heaven and kshatriyas gets delighted by fighting such a war. If you will not fight this righteous war then you shall incur sin by avoiding your own duty and loosing your fame. People will speak ill of you for all time, and to an honoured person, dishonour is worse than death.The great warriors will think that you have fled from battle in fear. These men who held you in high esteem will see you in disgrace. Your enemies will speak many indecent words while denigrating your might. Nothing can be more painful than that. If slain, you will obtain heaven; or if victorious, you shall enjoy the earth.

Krishna indicates that do not do anything, by which you loose your self esteem and fame. It should not be understood similar to loosing your wealth and position for the sake of something. If you loose everything to maintain your rightful fame then you should not take even a minute to decide and should not fall on the wrong side. Therefore, O Arjuna, arise with a resolve (determination) to fight. Engage in battle, treating conquest and defeat, gain and loss and happiness and sorrow with equanimity. Fighting with this mindset, you will not incur sin. I have narrated this topic in context of Sankhya Philosophy, now listen to it from a different view, endowed with that wisdom you will get rid of the bondage of action. In this there is no loss of effort, nor is there any harm (contrary results). Even a little practice of this knowledge protects one from great fear. It means that if you start some good work in the interest of the good of the world, then you can carry it even after your death, and start at that point in the next birth. It advises that you should not stop doing or initiating good works, thinking that you may not be able to complete in the available time and resources. This acts as a great vision for many people, who are sitting idle and are not proactive in doing good works for the society.

O Arjuna, the resolute mind is one-pointed (who knows what is to be done and what is to be avoided); the minds of the irresolute are many-branched and endless. These people have many desires in their mind (they want to do something for their family, for the society, want to enjoy materialistic pleasures, want wealth-position-power etc.

O Arjuna, those undiscerning people who are busy in the eulogising words of the Vedas, and utter flowery speeches, saying, there is nothing greater ( than the attainment of Heaven). Full of desires, considering heaven as the only glorious goal, for the attainment of pleasure and grandeur, leading to new births as the result of their works, (Those people with such mindset) prescribe various specific actions (rites). For those who are attached to pleasure and power, whose minds are drawn away by such flowery teaching, they don't develop resolute mind for meditation (Samadhi). O Arjuna, Vedas deal with three attributes (qualities) of nature. You must be free from the three Gunas and be free from the pairs of opposites. Be self-absorbed, abide in pure sattva; never care to acquire things and to protect what has been acquired. Vedas have no utility for a realized person as a man in front of a grand reservoir of water has no utility of a well. Your right is for action alone, not for the results. Do not yourself the reason of the results of action and do not be inclined (attached) to inaction. It means that work should not be done due to some desire for the fruits of that work. However, it does not in any way means, that work should not be done at all. You should also castaway the desire to take credit for your work. Lord has also said in consequent chapters that we should not abandon the taks which are done for the benefit of the society, but we should do these without the desire for the fruits of action.

So, different tasks, we do for our daily needs and different jobs to take care of our family in different contexts as per the prevailing circumstances, should be done with the evenness of mind; then these tasks will also be considered in the category of Yoga. Just changing the thought about any job can bring a considerable shift. For example, one person uses the knife to kill someone and other person uses the knife to operate on the patient. Both are doing the same task (using the knife on the body), but one is called the killer and other is called the doctor. Due to the difference of feelings in their mind the whole context and analysis of the job has changed. So it is very important to analyse that what you think, when you do a task. O Arjuna, remaining even-minded in success and failure, perform actions in equanimity, abandoning attachment. Even-mindedness is said to be the Yoga.

O Arjuna, Action with attachment is far inferior to action done with evenness of mind. Seek refuge in wisdom; who work with motive of fruit are miserable. Possessed of wisdom, one rejects the both virtue and vice (good and bad results of action). Be steadfast in Yoga. Yoga is skillfulness in action. The wise who possess evenness of mind, relinquishing the fruits of action, are freed from the bondage of rebirth, and go to the place devoid of illness.When your mind will go beyond the tangle of delusion regarding sense objects, then you will acquire dispassion for what has to be heard and what has been heard about materialistic pleasures.When your mind will become unshakable and steadfast in the Self even after hearing hearing different versions and interpretations of the Vedas, then you will attain Yoga. Arjuna said - O Krishna, What is the description of him who has steady wisdom (stabilized intellect) and is in the superconscious state? How does such self-absorbed person speaks, sits and walks? Arjuna is actually asking the characteristics of the person who lives as per the concepts giving above.

Krishna Said- O Arjuna, when someone relinquishes all the desires from the mind and is content in himself by the self, then he is the person with the steady wisdom. Whose mind is not shaken by adversity, who does not hanker after pleasures, and is free from attachment, fear and anger, is called a sage of steady wisdom. He, who has no desire in anything; and who neither rejoices nor hates on getting good or bad, his intellect is properly stabilized. When someone withdraws his senses from the sense-objects, like the tortoise which withdraws its limbs on all sides, his wisdom becomes steady. Leaving their taste behind, the sense-objects retreat from the mind of those who abstain from food; his taste too disappears when he sees the Supreme.

Here also sentiments are given utmost importance. To stay away from the sense-objects or to force various hardships on himself (long fasting, not to meet the persons of another sex, not to use different materialistic items etc.) can be one of the ways to control the senses. It is found that once these human beings encounter the sense-objects, then it becomes very difficult to keep the control on the senses and all the investment in hardships go away. Actual objective of the even-minded person is to control your mind while staying in the midst of sense objects. King Janaka is the best example of such a person, who was not carried away by any of the sense-objects, while being in the midst of all the princely splendour.

O Arjuna,the turbulent senses, forcefully carry away the mind of even a wise man, though he is ever striving. Having restrained all of them he should sit in meditation (relying on me for everything); whose senses are under control, his wisdom is steady. The Lord indicates that when a person is on the path to uplift himself spiritually, he will face many hindrances and temptations; but he should leave the path and keep on progressing further despite all kind of problems. When a man thinks of the objects, he gets attached to them; from attachment desire is born; from desire anger arises.From anger comes delusion; from delusion loss of memory; from loss of memory the destruction of discrimination; from destruction of discrimination he perishes. But the self-controlled man, moving among the sense-objects with the senses free from attraction and repulsion, attains to happiness.

After getting to this stage of happiness, all his sorrows vanish, because the wisdom of one who has a serene mind soon becomes firmly established. For the unsteady there is no wisdom and self-absorbed feeling. And for an unmeditative man there is no peace. How can there be happiness for one without peace? When the mind follows even one of the senses experiencing their objects, his understanding is carried away by them as the wind carries away a ship on the waters.

Small mistake can distract him form the path. Slipping for a moment for any sensual pleasure can put you into a quagmire. O Arjuna, Whose senses don't get attached to their objects, his wisdom is firmly set. What is night for all beings, the controlled one is awake in that; when all beings are awake, that is the night to the sage who sees. Just as rivers enter into the ocean continuously and ocean remains firmly established, similarly, When a human behaves in the same way (does not gets distracted) when desires enter - he attains peace; not he who longs for the objects of desire.

That man attains peace who, abandoning all desires, moves about without longing, egoism and sense of possession. O Arjuna, this is the eternal state, attaining to this, none is deluded. Even if one is established in this at the end of life, one attains to oneness with Brahman. If you will not practice it throughout your life, then it will be very difficult to be in that mindset at the time of death and this kind of mental state will be a mirage for you.

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेसाङ्ख्ययोगो नाम दवि्तियोऽध्यायः। ॥2.1-2.72॥

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